शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा उनके नाम एवं महात्म्य भाग
श्रीमद्देवीभागवत स्कंध ७ अध्याय ३०
संकलन – हिरेन त्रिवेदी,’क्षेत्रज्ञ’

छगलण्डे प्रचण्डा तु चण्डिकामरकण्टके।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती॥७३
देवमाता सरस्वत्यां पारावारा तटे स्मृता।
महालये महाभागा पयोष्ण्यां पिङ्गलेश्वरी॥७४
वे देवी छगलण्डमें ‘प्रचण्डा’, अमरकण्टकमें | ‘चण्डिका’, सोमेश्वरमें ‘वरारोहा’, प्रभासक्षेत्रमें | ‘पुष्करावती’, सरस्वतीतीर्थमें ‘देवमाता’, समुद्रतटपर ‘पारावारा’, महालयमें ‘महाभागा’ और पयोष्णीमें ‘पिंगलेश्वरी’ नामसे प्रसिद्ध हुईं ।। ७३-७४ ॥

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी।।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५
माता सिद्धवने लक्ष्मीरनका भरताश्रमे।।
जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते॥७६
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिविश्वेश्वरे तथा॥७७
कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे।।
शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा॥७८
वे कृतशौचक्षेत्रमें ‘सिंहिका’, कार्तिकक्षेत्रमें | ‘अतिशांकरी’, उत्पलावर्तकमें लोला’, सोनभद्रनदके संगमपर ‘सुभद्रा’, सिद्धवनमें माता ‘लक्ष्मी’, भरताश्रमतीर्थमें ‘अनंगा’, जालन्धरपर्वतपर ‘विश्वमुखी’, किष्किन्धापर्वतपर ‘तारा’, देवदारुवनमें पुष्टि’, काश्मीरमण्डलमें मेधा’, हिमाद्रिपर देवी ‘भीमा’, विश्वेश्वरक्षेत्रमें ‘तुष्टि’, कपालमोचनतीर्थमें ‘शुद्धि’, कामावरोहणतीर्थमें | ‘माता’, शंखोद्धारतीर्थमें ‘धारा’ और पिण्डारकतीर्थमें | ‘धृति’ नामसे विख्यात हैं। ७५-७८॥

कला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवधारिणी।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा॥७९
औषधिश्चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी॥८०
अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ॥८१
देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातृणां वैष्णवी मता॥ ८२
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम्॥८३
चन्द्रभागानदीके तटपर ‘कला’, अच्छोदक्षेत्रमें | ‘शिवधारिणी’, वेणानदीके किनारे ‘अमृता’, बदरीवनमें ‘उर्वशी’, उत्तरकुरुप्रदेशमें ‘औषधि’, कुशद्वीपमें ‘कुशोदका’, हेमकूटपर्वतपर ‘मन्मथा’, कुमुदवनमें ‘सत्यवादिनी’, अश्वत्थतीर्थमें ‘वन्दनीया’, वैश्रवणालयक्षेत्रमें ‘निधि’, वेदवदनतीर्थमें ‘गायत्री’, भगवान् शिवके सांनिध्यमें ‘पार्वती’, देवलोकमें ‘इन्द्राणी’, ब्रह्माके मुखोंमें ‘सरस्वती’, सूर्यके बिम्बमें ‘प्रभा’ तथा मातृकाओंमें ‘वैष्णवी’ नामसे कही गयी हैं। | सतियोंमें ‘अरुन्धती’, अप्सराओंमें ‘तिलोत्तमा’ और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें ‘ब्रह्मकला’ नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं ॥७९-८३॥

इमान्यष्ट शतानि स्युः पीठानि जनमेजय।
तत्संख्याकास्तदीशान्यो देव्यश्च परिकीर्तिताः॥८४
सतीदेव्यङ्गभूतानि पीठानि कथितानि च।
अन्यान्यपि प्रसङ्गेन यानि मुख्यानि भूतले॥८५
हे जनमेजय! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और – उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं। भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया; साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर – दिया॥ ८४-८५ ॥

यः स्मरेच्छृणुयाद्वापि नामाष्टशतमुत्तमम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तो देवीलोकं परं व्रजेत्॥८६
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका | स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे | मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है॥८६॥

एतेषु सर्वपीठेषु गच्छेद्यात्राविधानतः ।
सन्तर्पयेच्च पित्रादीञ्छ्राद्धादीनि विधाय च॥८७
कुर्याच्च महतीं पूजां भगवत्या विधानतः।
क्षमापयेज्जगद्धात्री जगदम्बां मुहुर्मुहुः॥८८
कृतकृत्यं स्वमात्मानं जानीयाजनमेजय।
भक्ष्यभोज्यादिभिः सर्वान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः॥८९
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक | भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये। हे जनमेजय! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये। हे राजन्! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं – आदिको खिलाने चाहिये ॥ ८७-८९॥

  • श्रीवैदिक ब्राह्मण ग्रुप,गुजरात 🚩
  • जय माँ भगवती 🚩💐🙏🏾

Puja to Stotram to Japa to Dhyana to Laya

PujA koti samam stotram stotra koti samo japah, japa koti samam dhyAnam, dhyAna koti samo layah

1 crore pujA is equal to a stotram,
1 crore stotram is equal to a japa,
1 crore japa is equal to a dhyAna,
1 crore dhyAna is equal to a laya (absorption in the Goddess)

PUjA nAma na pushpAdyairyA matih kriyate dridhA
nirvikalpe mahAvyomni sA pUjA hyAdarAllayaH

Worship is not merely offering flowers and other rituals. Instead it consists in putting one’s heart on that highest space of consciousness which is beyond all false thoughts and speculations. Worship is the dissolution of the individual self with perfect ardour. Dissolution of the individual self in the supreme self, ShrI LalitA.

The 8 Goddesses of Speech residing in the ShrIchakra glorifies ShrI LalitAmbikA ParAmbA as Layakari, the One by whose mercy laya is possible. Only by Her will and grace one can be dissoluted and be absorbed into Her.

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥

  • शिवमानसपूजा

“मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बर्तनों में घीयुक्त खीर, दूध, दही के साथ पाँच प्रकार के व्यंजन, केले के फल, शर्बत, अनेक तरह के शाक, कर्पूर की सुगन्धवाला स्वच्छ और मीठा जल और ताम्बूल — ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पित किया है। भगवन्! आप इसे स्वीकार कीजिए।”

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्य विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। पर शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर चण्ड का अधिकार होता है।

भगवान शिव के मुख से निकले हैं चण्ड

गणों के स्वामी चण्ड भगवान शिवजी के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं और भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं। चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है —

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:॥ (२२।१६)

“जहाँ चण्ड का अधिकार हो, वहाँ शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।”

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: ग्रहण करने योग्य है —

ज्योतिर्लिंग —बारह ज्योतिर्लिंगों (सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमतीतट में त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर और शिवालय में द्युश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग — जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग — जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं, जैसे — काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर) — बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य — प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग — इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है।

‘प्रतिमासु च सर्वासु न, चण्डोऽधिकृतो भवेत्॥

जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए?

— शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।

जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालग्राम शिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा

— जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।

— आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करूँगा’, ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।

— जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।

— शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।

— शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।

— शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि ‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्’ शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो ‘शिव’ का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं —

सुमंगलं तस्य गृहे विराजते।
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते ।

कुल का क्या अर्थ है?

‘ कुल ‘ से वस्तुत: परिवार , समाज का अर्थ नहीं है।
आगम शास्त्र के अनुसार ‘ कुल ‘ का अर्थ है — ३६ तत्वों का समूह। ३६ तत्वों का सम्यक् ज्ञान देनेवाली शक्ति को ‘ कुल – देवी ‘ कहते हैं।
‘ कुल ‘ आगम शास्त्र का एक महत्वपूर्ण शब्द है।
भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न भिन्न कुल – देवियों का प्रचलन है, जिससे पूरे समाज को क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की आध्यात्मिकी का अनुभव होता है।
दुर्गा, दश महाविद्या , गायत्री आदि —पूरे भारत के लिए ‘ कुल – देवियां ‘ हैं। यदि किसी को आज स्थानीय कुल – देवी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, तो वह इनसे ही लाभ उठा सकता है।
कुल – देवी को ही दुर्गा, नारायणी आदि समझकर सप्तशती की स्तुतियों से स्तुति की जा सकती है। एक दृष्टि- कोण से यही सर्वोत्तम है क्योंकि सप्तशती आदि स्तुतियां सिद्ध स्तुतियां हैं । इनसे ही आज के समय में लाभ उठाया जाना चाहिए।
फिर श्री कुल – देव्यै नमः कहकर अज्ञात कुल – देवी का पूजन-अर्चन किया जा सकता है।
आज कल बतानेवाले भय पहले फैलाते हैं। सरल रूप में बताना नहीं चाहते। कुल – देवी के सम्बन्ध में भी यही बात है। कुल – देवियां , पितृ — सभी केवल श्रद्धा- भक्ति से प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि पूर्वजों ने उन्हें पहले प्रसन्न किया है। किसी प्रकार की विशेष अर्चना आदि को खोजने आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। जो ऐसा बताते हैं, वे भयभीत करते हैं। आचरण को शुद्ध रखने से सबसे ज्यादा कुल – देवता – देवी, पितृ प्रसन्न होते हैं। कठिनाई यह है कि यह न तो कोई बताता है, न कोई सुनना चाहता है।
सनातन धर्म की विविधताओं के कारण भारत के विभिन्न हिस्सों में होलिका – पर्व मनाने के स्वरूपों में कुछ भेद दिखाई देते हैं।
कहीं भगवान् कृष्ण के ज्ञान से युक्त पर्व के रूप में मनाया जाता है ।
कहीं शक्तिशाली नाम – साधना के आदि आचार्य श्री प्रह्लाद का स्मरण कर — विष्णु – पद श्रीनृसिंह की आराधना की जाती है।
श्रीकृष्ण द्वारा विषैले दुग्ध का पान करानेवाली माया-शक्ति- स्वरूपा पूतना के ज्वलन का स्मरण किया जाता है।
कुछ लोग महा- देव द्वारा कामदेव के दु: साहस के ज्वलन का स्मरण करते हैं।
कुछ लोग होलिका को एक विशेष रात्रि के रूप में देखते हैं और अनात्माकार वृत्तियों का लय करने का प्रयत्न करते हैं, जिससे आत्म – ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
संक्षेप में, उक्त सभी प्रकारों में ज्ञान- दायक ‘ अग्नि – जागरण ‘ की प्रधानता होती है।

મંત્ર જપક્રમનું મહત્વ

વૈદિક તંત્રોક્ત જે જે ઉપાસકો સંધ્યા જપક્રમ વગેરે દ્વારા ઇષ્ટની નિત્ય ઉપાસના કરે છે તે મંત્રને પ્રાણશક્તિ ,ઉર્જા દ્વારા ચૈતન્ય યુક્ત પ્રાણવાન રાખે છે.
અને એ પરા પ્રાણશક્તિ દેહીના ષડંગમાં બિરાજે છે,માટે મંત્ર સંધ્યા આદિના ઉપાસકો એ ષડંગ ન્યાસાદિ વિના જપ કર્મ ન કરવા જોઈએ.જો એમ થાય તો એ મંત્રજપ દેવતાને કંટક સમાન બની ખૂંચ્યા કરે છે.
મૂળ દેવતા જેની ઉપાસના કરવા બેઠા હોઈએ તે દેવતા બિંદુરૂપ છે અને ષટકોણ એ દેવતાનું અલૌકિક દિવ્ય શરીર છે જેના દ્વારા ઉપાસક દેવતાના ચૈતન્ય સાથે પોતાનું તાદાત્મ્ય ,એકરૂપતા સાધી શકે છે.
નમઃ,સ્વાહા,વષટ્, હૂમ્,વૌષટ્ અને ફટ્ આ મંત્રના છ અંગોથી મંત્રરૂપ કે ચિંતવન રૂપ દેવતાનું સાંનિધ્ય કે ઐક્ય સધાય છે.
જ્યારે આરંભમાં આ ષડંગ થાય ત્યારે હૃદયસ્થ દેવતામાં મૂળ ચૈતનયનો આવિર્ભાવ થાય છે અને જપાન્તે હ્રદયાદિ ન્યાસ ધ્યાન થાય છે ત્યારે મૂળ દેવતાનો જ ષડંગ સહિત બિંદુમાં લય, તિરોભાવ થાય છે.કારણ કે એ દેવતારૂપ શરીર લઈને આપડે સાંસારિક ક્રિયાઓ વ્યવહારો નથી કરી શકતા એટલે ત્યાંજ એ અંગોમાં એને પુનઃ સ્થાપિત કરી તિરોભાવ કરી દઈએ છીએ.
આ માત્ર ક્રિયા નથી પણ જ્યારે ગુરુમુખ મળેલા મંત્રના વિનિયોગ મુજબ જ ઋષ્યાદિ,કરષડંગ,હ્રદયાદિ ષડંગ ભાવ સહિત મંત્રના પ્રત્યેક કૂટ સાથે તે તે અંગમાં સ્થપાય પછી જ દેવતાનું ધ્યાન આવાહન સહિત લયાંગ રૂપ બિંદુમાં પ્રાગટય થાય છે એ પ્રગટેલા દેવતાની હૃદયસ્થ,મનનીય મૂર્તિ જોતા જોતા ભાવવિભોર બની મંત્ર જપ થાય ત્યારે સાધક અને સાધ્ય બેય એકતત્વ થઈ જાય છે.આ જ ઉપાસક માટે નિત્ય ઇષ્ટના સાંનિધ્ય કે પ્રતીતિનો સુગમ માર્ગ છે.
ઋષિ,દેવતા,છંદ,બીજ,શક્તિ,કિલક અને બીજ મુજબ કર, હ્રદયાદિ ન્યાસ ધ્યાન વિના કોઈ જ મંત્ર ગમે તેટલો પ્રભાવી હોય કશું જ ફળ આપતો નથી.આ બધુ જ માત્ર પુસ્તકમાં થી લઈને કરવું મારક છે પણ કોઈ યોગ્ય ગુરુ દ્વારા એની સાચી સમજ અને ગુરુમુખ મંત્ર પ્રાપ્તિ એ જ તારક બની રહે છે.
શાસ્ત્રી રાજેશ આચાર્યના જય અંબે જય ગુરુદેવ.

ત્રિપુરેશ્વરીની ચાર ભુજાઓ

માં ત્રિપુરેશ્વરી

🙏🏻ત્રિપુરેશ્વરીની ચાર ભુજાઓ.🙏🏻
પ્રસ્તોતા:- શાસ્ત્રી રાજેશ આચાર્ય.🖊️
ક,આદિ છત્રીશ વ્યંજનોમાં છત્રીસ તત્વોનો સમાવેશ છે.છેલ્લા વર્ણો એ તુરિય પદના અંગરૂપ છે.જ્યારે માત્ર ક્ષ’કાર એ બિંદુરૂપ શિવ છે.
પ્રવૃત્યાત્મક સંસરણની ચરમ સીમા જાગ્રત અવસ્થા છે.આ અવસ્થામાં જીવ પોતાને શિવથી જુદો ,સીમિત અને બંધાયેલો માને છે.અને જે તુરિય દશાની અનુભૂતિ છે એમાં જીવ બંધનથી મુક્ત થઈ ફરી શિવ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ કરી લે છે.
ઈચ્છા,ક્રિયા અને જ્ઞાન આ જે ત્રણ શક્તિઓ છે તેમાં ઈચ્છા જ કૂટસ્થ રૂપીણી છે.ઈચ્છાનું જ્ઞાન અને ક્રિયાના મધ્યમાં સ્ફુરણ નિરૂપેલું છે.ઈચ્છા વિના જ્ઞાન અને ક્રિયા પ્રવર્તિત નથી થતી.જ્ઞાન અને ક્રિયા ઈચ્છાનું અંગ છે અને ઈચ્છા પોતે અંગી છે.
જાગ્રત,સ્વપ્ન,સુષુપ્તિ અને તુરિય આ ચાર દશાઓને શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીના ચાર ભુજાઓ સાથે સરખાવ્યાં છે.ચાર દશાઓ ઉપલક્ષણ માત્ર છે,પારમાર્થિક સ્વરૂપ નહીં.સુષુપ્તિ આદિ જે ત્રણ દશાઓ છે તે બંધન કરનારી છે માટે તેના આયુધો ઇક્ષુ ચાપ,પુષ્પબાણ અને પાશ છે.

👉🏻ઇક્ષુચાપ- રસમય અને મધુર હોય છે,અને સુષુપ્તિ અવસ્થા વિશ્રાન્તિ રૂપ હોવાથી એક રસ છે,જેમાં જીવ શિવત્વની મધુર અનુભૂતિ કરે છે; માટે સુષુપ્તિરૂપ ભુજાનું આયુધ ઇક્ષુચાપ નિરુપ્યું છે.
👉🏻પુષ્પબાણ-જાગ્રત અવસ્થામાં પ્રપંચનો પ્રસાર થાય છે.આ અવસ્થાનો મુખ્ય વ્યાપાર વશીકરણ છે;જેમાં જીવ માયાને વશ થઈ જાય છે,અને પુષ્પબાણનો પણ એ જ ગુણ છે.માટે જાગ્રત રૂપ ભુજાનું આયુધ પંચબાણ નિરુપ્યું છે.
👉🏻પાશ – સ્વપ્નદશા થોડી સૂક્ષ્મ રૂપ છે,માટે આ વાયુતત્વ છે.વાયુના પ્રકોપથી ઝંઝાવાતના ઉદયને લીધે સ્વપ્ન દશા ભ્રામક કહેવાય છે.આમાં જીવને ભેદાભેદ ભ્રાન્તિની અનુભૂતિ થાય છે.માટે સ્વપ્નાત્મક ભુજાના આયુધને પાશના રૂપમાં પ્રદર્શિત કર્યું છે.
👉🏻અંકુશ – ચોથી ભુજા જ્ઞાનાત્મક તુર્યદશા છે જેમાં જીવ શિવત્વની પ્રાપ્તિ કરી ને મુક્ત થઈ જાય છે.માટે જ્ઞાનાત્મક સદાશિવને અંકુશના રૂપમાં ચોથા આયુધ રૂપે નિરુપ્યું છે.જેવી રીતે ગજ- હાથીરૂપી મહાપશુનું નિયંત્રક અંકુશ છે એ જ રીતે ચૈત્યરૂપ મહાપશુનું નિયંત્રણ જ્ઞાનરૂપ સદાશિવ તત્વથી થાય છે.

સવિકલ્પ અને નિર્વિકલ્પ ઉભયાત્મક રૂપ શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીને “ક્ષ્માંગિની” નામથી સંબોધિત કર્યા છે.એટલે કે ક્ષ’કાર અને મ’કાર ત્રિપુરેશ્વરીના બીજ મંત્રો છે.શિવાત્મક નિર્વિકલ્પ પદનો બોધ ક્ષ’કાર છે એટલે જ ત્રિપુરેશ્વરીના તુર્ય પદનું બીજ પણ ક્ષ’કાર છે. સુષુપ્તિ આદિ અવસ્થાઓમાં જીવની સ્થિતિ જણાવેલી છે.આ જીવનો બોધ મ’કાર છે.માટે મકાર એ વિકલ્પ પદનું બીજ છે.અને શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીનું સ્વરૂપ સવિકલ્પ નિર્વિકલ્પ એમ ઉભયાત્મક છે.માટે ક્ષકાર અને મકાર એ ઉભયાત્મક બીજોના યોગથી ત્રિપુરેશ્વરીને “ક્ષ્માંગિની” પ્રતિપાદિત કરેલાં છે.
શાસ્ત્રી રાજેશ આચાર્યના જય અંબે જય ગુરુદેવ.

Maha Pratisara Devi

The protectress deity confer great protection. One such example befitting to this context is described in the first chapter of the Pancaraksha sutra (detailing on Pancharaksha Devtas). It is said that one who holds the dharani of Mahapratisara will be protected from all forms of illness, eliminate the past non-virtuous karma, protect from all sorts of dangers. Their body becomes a vajra body not affected by fire, weapons and others.

Ref:Aakash Deb, Shri Vidya Upasak

सहस्रनाम और रहस्य (Sahasranama and Rahasyas)

सहस्रनाम और रहस्य (Sahasranama and Rahasyas)

श्री ललिता सहस्रनाम में-“अक्षरों” के साथ एक अद्भुत जादूगरी की गयी है।

श्लोक लिखने की पद्धतिया होती है वह एक प्रकार के लेखन शैली का अनुशरण करती है जैसे गायत्री (24 अक्षर), उशनिक (28), अनुष्टुप (32), बृहथी (36), पंक्ति (40), त्रिष्टुप (44), और जगथी (48) ।

अधिकांश प्रसिद्ध कार्यों की तरह, श्री ललिता सहस्रनाम भी अनुष्टुप शैली में रचा गया था। प्रत्येक पंक्ति में 16 अक्षर होते है , इस प्रकार दो पंक्ति वाले श्लोक में 32 अक्षर होते हैं।

एक अन्य रहस्य यह है कि उपोधगतम (परिचय) में 51 श्लोक, नामा (182-1/2) और फल श्रुति (86) है। कुल 319-1 / 2 स्लोक। ध्यान स्लोक पर ध्यान नहीं दिया गया।

यह कहना है कि मैग्नम ओपस में 10,224 अक्षर (319-1 / 2 x 32 अक्षर) हैं। आमतौर पर, कोई भी प्रतिदिन पूर्वा और उत्तरा पीतिका का पाठ नहीं करता है। मान लें कि कोई व्यक्ति मुख्य ललिता सहस्रनाम का पाठ करता है, तो यह ध्यान में रखा जाता है कि उसने 5,824 अक्षर बोले ।

51 अक्षरों में से केवल 32 अक्षरों का उपयोग किया गया और अन्य स्वर और व्यंजन उपयोग नहीं किया गया । इससे यह संकेत मिलता है की कोई भी अपनी मर्ज़ी से और अपने हिसाब से शब्दों को परिवर्तित नहीं कर सकता, जैसा कि वह पसंद करता है। प्रत्येक अक्षर और शब्द का मूल अक्षर और उसकी ध्वनि समान होनी चाहिए।

आप “का ” को “गा” या इसके विपरीत नहीं पढ़ सकते। जैसे की सा और चा….. शरणम् और चरणम में – एक शरण लेना है मतलब किसी का सानिध्य लेना है और दूसरे का मतलब पैर है। इसलिए इस अंतर और असमान्ता के बारे में पता होना चाहिए और ठीक से बोलना होना चाहिए। यदि वह फिर भी नहीं बोल पा रहा , तो उसे केवल “लघु ” छोटे और आसान शब्दों को चुनना चाहिए और मंत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

2, 3, 4, 5, 6 8, 9, 12 और 16 अक्षरों में नाम आते हैं। किसी भी समय किसी भी नाम के क्रम को नहीं तोड़ना चाहिए, या तुकबंदी के लिए दूसरे को जोड़ना नहीं चाहिए ।

“निजारुना -प्रभा-पूरा -मज्जत-ब्रह्माण्ड-मंडला” को एक नाम के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। यह 16 अक्षरों का है। आपको इसे अपने लिए सुविधाजनक बनाने के लिए नहीं तोड़ना चाहिए।

कुरु-विन्द-मणि-श्रेणी-कणठ-कोटिरा-मण्डिता भी 16 अक्षरों का है।
अष्टमी-चन्द्र-विभ्राजा-धलिका-स्थला-सोभित भी 16 अक्षरों का है।
ऐसे 27 नाम और हैं पुरे सहश्रनाम में ।
इस संकलन/संग्रह की एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आधे लाइन में ही समाप्त हो जाता है। इसमें श्री माता से श्रीमत त्रिपुरसुंदरी तक 182 श्लोक हैं। हालाँकि, 16 अक्षरों की अंतिम पंक्ति श्री-शिव शिव- सकतेका रूपिनी ललिताम्बिका (3 नाम) एक स्वतंत्र ( standalone ) विवरण है।

हम सभी जानते हैं कि ललिता प्रदेवता जगत माता हैं और सब कुछ की निर्माता है वो ही विधाता है , जिनमें ब्रह्मा शब्द भी शामिल हैं। जिसमें से वेद निकले और इस तरह उन्हें “श्रुति” और “स्मृति” कहा गया क्यों की यहाँ पे जो भी लिखा गया वह याद कर के स्मरणशक्ति द्वारा लिखा गया ।

वह वेदों का सार है और इसका व्याकरण “छंद – सारा” है। वह सभी शास्त्रों का सार है “शास्त्र सारा ” । वह सभी मंत्रों का मूल है “मंत्र सारा”। “सर्व मन्त्र स्वारूपिणी”। वह सभी मन्त्रों का मूर्त रूप है। एक या कोई हजार मंत्र नहीं, वह सप्त कोटि मंत्रों (७,००,००,०००) का भंडार है। हर अक्षर एक मंत्र है। वह सभी मंत्रों का आधार है “मूल मंत्रात्मिका” ।

जो हम अपने मन्न और बुद्धि से सोच सकते है वह उस सोच से भी परे है।
“मनो-वाचम -गोचरा ” मनस , वाक् , अनुभव, समझ और विचार।
“मनोन्मनी” – वह आप में आपके विचार है, और कार्यों का परिणाम भी हैं ।
“वैखरी रूपा”- वह एक तरह से बातचीत करने का तरीका है। नाद रूपा- वह आपके विचारों को एक आकार देती है और आपको बात करने के काबिल बना ती है । हमारा सारा ज्ञान सूखे घाँस के ढेर की तरह है जब तक हमारे पास माँ की कृपा नहीं है जिसे “वाग वाधिनी” कहते है । शब्दों को प्रभावशाली बनाने में वह आपकी मदद करती है। वाक् चातुर्य , वाक् पातिमा ।

मत सोचो कि मंत्र एक कठिन अभ्यास है। मनन त्रायते इति मंत्र। जो भी आप बार-बार सुनते/पढ़ते/पाठ करते हैं वह मंत्र बन जाता है। आप सभी को माँ पर अत्यंत विश्वास होना चाहिए । वह आप की कोई भी बात सुन सकती है (सुभाषश्री) ।

हर समय आप ईश्वर की कृपा के बारे में सोचें । वह आपके साथ रहेंगे ।
यह सब उनकी कृपा के कारण हो रहा है । वह चाहती है की उन्हें ज्यादा से ज्यादा जाना जाए ।

यही बात श्रीकृष्ण ने उधव को बताया था, जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने जुआ (डाइस प्ले) के समय युद्ध को सही तरीके से क्यों नहीं रोका। कृष्ण कहते हैं कि धर्मराज ने उनकी मदद नहीं ली और उन्हें लगा कि उन्हें पासा के खेल में सब कुछ पता है। अज्ञानता और अहंकार मनुष्य को बर्बाद कर देता है। ईमानदार रहें जब आप कुछ भी नहीं जानते हैं, भगवान की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है – चाहे वह बड़ा या छोटा काम हो।

श्री चक्र देहचक्र ही हैं Shri Chakra is Microcosm of your body

श्री विद्या के उपासक श्रीयंत्र या श्रीचक्र की भावना अपने शरीर में करते हैं । इस तरह विद्योपासकों का शरीर अपने आप आप में श्रीचक्र बन जाता है।

(Image source: the mind matrix)

अतएव श्री यंत्रोपासक का ब्रह्मरंध्र बिंदु चक्र, मस्तिष्क त्रिकोण, ललाट अष्टकोण, भ्रूमध्य अंतर्दशार, गला बहिर्दशार, हृदय चतुर्दशार, कुक्षि व नाभि अष्टदल कमल, कटि अष्टदल कमल का बाह्यवृत्त, स्वाधिष्ठान षोडषदल कमल, मूलाधार षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त, जानु प्रथम रेखा भूपुर, जंघा द्वितीय रेखा भूपुर और पैर तृतीय रेखा भूपुर बन जाते हैं।

श्री यंत्र की ब्रह्मांडात्मकता:- श्रीयंत्र का ध्यान

करने वाला साधक योगीन्द्र कहलाता है। आराधक अखिल ब्रह्मांड को श्री यंत्रमय मानते हैं अर्थातश्रीयंत्र ब्रह्मांडमय है। यंत्र का बिंदुचक्र सत्यलोक, त्रिकोण तपोलोक, अष्टकोण जनलोक, अंतर्दशार महर्लोक, बहिर्दशार स्वर्लोक, चतुर्दशार भुवर्लोक, प्रथम वृत्त भूलोक, अष्टदल कमल अतल, अष्टदल कमल का बाह्य वृत्त वितल, षोडशदल कमल सुतल, षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त तलातल, प्रथम रेखा भूपुर महातल, द्वितीय रेखा भूपुर रसातल और तृतीय रेखा भूपुर पाताल है ।

ब्रह्मादि देव, इंद्रादि लोकपाल, सूर्य, चंद्र आदि नवग्रह, अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र, मेष आदि द्वादश राशियां, वासुकि आदि सर्प, यक्ष, वरुण, वैनतेय, मंदार आदि विटप, अमरलोक की रंभादि अप्सराएं, कपिल आदि सिद्धसमूह, वशिष्ठ आदि मुनीश्वर्य, कुबेर प्रमुख यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, विश्वावसु आदि गवैया, ऐरावत आदि अष्ट दिग्गज, उच्चैःश्रवा आदि घोड़े, सर्व-आयुध, हिमगिरि आदि श्रेष्ठ पर्वत, सातों समुद्र, परम पावनी सभी नदियां, नगर एवं राष्ट्र ये सब के सब श्रीयंत्रोत्पन्न हैं ।

श्रीयंत्र में सर्वप्रथम धुरी में एक बिन्दु और चारो तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते है जो शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और चार ऊपर की तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते हैं जो शक्ति का प्रदर्शन करते है और चार ऊपर की तरफ शिव ती तरफ दर्शाते है। अन्दर की तरफ झुके पांच-पांच तत्व, पांच संवेदनाएँ, पांच अवयव, तंत्र और पांच जन्म बताते है।

ऊपर की ओर उठे चार जीवन, आत्मा, मेरूमज्जा व वंशानुगतता का प्रतिनिधत्व करते है।चार ऊपर और पांच बाहारी ओर के त्रिकोण का मौलिक मानवी संवदनाओं का प्रतीक है। यह एक मूल संचित कमल है। आठ अन्दर की ओर व सोलह बाहर की ओर झुकी पंखुड़ियाँ है। ऊपर की ओर उठी अग्नि, गोलाकर, पवन,समतल पृथ्वी व नीचे मुडी जल को दर्शाती है। ईश्वरानुभव, आत्मसाक्षात्कार है। यही सम्पूर्ण जीवन का द्योतक है। यदि मनुष्य वास्तव में भौतिक अथवा आध्यात्मिक समृद्ध होना चाहता है तो उसे श्रीयंत्र स्थापना अवश्य ही करनी चाहिये । शिवजी कहते हैं हे शिवे ! संसार चक्र स्वरूप श्रीचक्र में स्थित बीजाक्षर रूप शक्तियों से दीप्तिमान एवं मूलविद्या के 9 बीजमंत्रों से उत्पन्न, शोभायमान आवरण शक्तियों से चारों ओर घिरी हुई, वेदों के मूल कारण रूप ओंकार की निधि रूप हैं, श्री यंत्र के मध्य त्रिकोण के बिंदु चक्र स्वरूप स्वर्ण सिंहासन में शोभायुक्त होकर विराजमान तुम परब्रह्मात्मिका हो । तात्पर्य यह है कि बिंदु चक्र स्वरूप सिंहासन में श्री ललिता महात्रिपुरसुंदरी सुशोभित होकर विराजमान हैं । पंचदशी मूल विद्याक्षरों से श्रीयंत्र की उत्पत्ति हुई है । पंचदशी मंत्र स्थित ‘‘स’’ सकार से चंद्र, नक्षत्र, ग्रहमंडल एवं राशियां आविर्भूत हुई हैं । जिन लकार आदि बीजाक्षरों से श्री यंत्र के नौ चक्रों की उत्पत्ति हुई है, उन्हीं से यह संसार चक्र बना है ।

Jai Ambe Jai Bahuchar Jai Gurudev

Lalita Sahasranama (1000 Names of Divine Mother)

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श्री ललिता सहस्त्रनाम का विशेष महत्व है,श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ से इष्टदेवी प्रसन्न हो जाती है और उपासक की कामना को पूर्ण करती है,यदि उपासक नित्य पाठ न कर सके तो पूण्य दिवसों पर संक्रांति पर दीक्षा दिवस पर,पूर्णिमा पर,शुक्रवार को अपने जन्मदिवस पर,t

दक्षिणायन ,उत्तरायण के समय ,नवमी चतुर्दशी आदि को अवश्य पाठ करें।पूर्णिमा के दिन श्री चन्द्र बिम्ब में श्री जी का ध्यान कर पंचोपचार पूजा के उपरान्त पाठ करने से साधक के समस्त रोग नष्ट हो जाते है,और वह दीर्घ आयु होता है, हर पूर्णिमा को यह प्रयोग करने से ये प्रयोग सिद्ध हो जाता है।ज्वर से दुखित मनुष्य के सर पर हाथ रखकर पाठ करने से दुखित मनुष्य का ज्वर दूर हो जाता है, सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित भस्म को धारण करने से सभी रोग नष्ट हो जाते है,इसी प्रकार सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित जल से अभिषेक करने से दुखी मनुष्यो की पीड़ा शांत हो जाती है अथार्त किसी पर कोई ग्रह या भूत,प्रेत चिपट गया हो तो अभिमंत्रित जल के अभिषेक से वे समस्त पीड़ाकारक तत्व दूर भाग जाते है, सुधासागर के मध्य में श्री ललिताम्बा का ध्यान कर पंचोपचार पूजन करके पाठ सुनाने से सर्प आदि की विष पीड़ा भी शांत हो जाती है,वन्ध्या (बाँझ)स्त्री को सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित माखन खिलाने से वह शीघ्र गर्भ धारण करती है,नित्य पाठ करने वाले साधक को देखकर जनता मुग्ध हो जाती है। पाठ करने वाले साधक के शत्रुओं को पक्षीराज भगवान शरभेश्वर नष्ट कर देते है, साधक के विरुद्ध अभिचार करने वाले शत्रु को माँ प्रत्यंगिरा खा जाती है,और साधक को क्रूर दृष्टि से देखने वाले वैरी को मार्तंड भैरव अँधा कर देते है।जो सहस्त्रनाम का पाठ करने वाले साधक की चोरी करता है उसे क्षेत्रपाल भगवान मार देते है।यदि कोई विद्वान विद्वता के घमंड में आकर सहस्त्रनाम के साधक से शास्त्रार्थ करता है तो माँ नकुलीश्वरी उसका वाकस्तम्भन कर देती है,साधक के शत्रु चाहे वो राजा ही क्यों न हो माँ दण्डिनी उसे नष्ट कर देती है।छः मास पर्यंत पाठ करने से साधक के घर में लक्ष्मी स्थिर हो जाती है।एक मास पर्यंत तीन बार पाठ करने से सरस्वती साधक की जिभ्या पर विराजने लगती है।निस्तन्द्र होकर एक पक्ष पर्यंत सहस्त्रनाम का पाठ करने से साधक में वशीकरण शक्ति आ जाती है।सहस्त्रनाम के साधक की दृष्टि पड़ने से पापियों के पाप नष्ट हो जाते है।

अन्न,वस्त्र,धन,धान्य,दान आदि सत्पात्र को ही देना चाहिए।सत्पात्र की परिभाषा-जो श्रीविद्या मंत्रराज को जानता है,नित्य सहस्त्रनाम का पाठ करता है जो प्रतिदिन श्रीचक्रार्चन करता है ,वह संसार में सत्पात्र है।

जो न मंत्रराज को जानता है न सहस्त्रनाम का पाठ करता है वो पशु के समान है उसको दान देना निरर्थक होता है।जो माँ की कृपा अपने ऊपर चाहता है उसे सत्पात्र को ही दान देना चाहिए। जो उपासक श्रीचक्रराज में श्री विद्या माँ का पूजन कर सहस्त्रनाम से पदम्,कमल,गुलाब,तुलसी की मंजरी,चम्पक ,जाती,मल्लिका,कनेर,कुंद, केबड़ा,केशर उत्प्ल, पातल,बिलपत्र,माध्वी,केतिकी ,और अन्य सुंगंधित पुष्पो से माँ का अर्चन करता है उसके पूण्य को भगवान शिव भी नही कह सकते।

जो पूर्णिमा के दिन श्रीचक्रराज में माँ श्रीविद्या का सहस्त्रनाम से अर्चन करता है वो स्वयं श्री ललिताम्बा स्वरूप हो जाता है।महानवमी के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से अर्चन करने से मुक्ति हस्तगत होती है।

शुक्रवार के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से माँ का अर्चन करने वाला अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण कर सब प्रकार के सौभाग्य युक्त पुत्र और पौत्रों से सुशोभित होकर विविध सुखों को भोगता हुआ मुक्ती को प्राप्त होता है। निष्काम पाठ करने से ब्रह्मज्ञान पैदा होता है जिससे साधक आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाता है।सहस्त्रनाम का पाठ करने से धनकामी धन को विद्यार्थी विद्या को यशकामी यश को प्राप्त करता है,धर्मानुष्ठान से रहित पापो की बहुलता से युक्त इस कलियुग में श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ किये बिना जो साधक माँ की कृपा चाहता है वो मुर्ख है,वो बिना नेत्रों से रूप को देखना चाहता है।जो पराम्बा का भक्त बनना चाहता उसे नित्यमेव श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करना चाहिएललिता आत्मा की उल्लासपूर्ण, क्रियाशील और प्रकाशमय अभिव्यक्ति है। मुक्त चेतना जिसमे कोई राग द्वेष नहीं, जो आत्मस्थित है वो स्वतः ही उल्लासपूर्ण, उत्साह से भरी, खिली हुई होती है। ये ललितकाश है।`

ललिता सहस्रनाम में हम देवी माँ के एक हजार नाम जपते हैं। नाम का एक अपना महत्त्व होता है। यदि हम चन्दन के पेड़ को याद करते हैं तो हम उसके इत्र की स्मृति को साथ ले जाते हैं। सहस्रनाम में देवी के प्रत्येक नाम से देवी का कोई गुण या विशेषता बताई जाती है।

ललिता सहस्रनाम के जप से क्या लाभ होता है हमारे जीवन के विभिन्न पड़ावों में बालपन से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था और इसी तरह .. हमारी आवश्यकताएं और इच्छाएं बदलती रहती है। इस सब के साथ हमारी चेतना की अवस्था में भी महती बदलाव होते हैं। जब हम प्रत्येक नाम का जप करते हैं, तब वे गुण हमारी चेतना में जागृत होते हैं और जीवन में आवश्यकतानुसार प्रकट होते हैं।

देवी माँ के नाम के जप से हम अपने भीतर विभिन्न गुणों को जागृत करके उन गुणों को अपने चारों ओर के संसार में प्रकट होते देख और समझ पाने की शक्ति भी पाते हैं। हम सभी अपने प्राचीन ऋषियों के आभारी है जिन्होंने दिव्यता का आराधन उसके संपूर्ण वैविध्य गुणों के साथ किया जिसने हमारे लिए जीवन को पूर्णता से जीने का मार्ग प्रशस्त किया।सहस्रनाम का जप अपने में ही एक पूजा विधि है। ये मन को शुद्ध करके चेतना का उत्थान करता है। इस जप से हमारा चंचल मन शांत होता है। भले ही आधे घंटे के लिए ही सही मन ईश्वर से एक रूप और उनके गुणों के प्रति एकाग्र होता है और भटकना रुक जाता है। ये विश्राम का सामान्य रूप है।

ललितासहस्रनाम में भाषा का सौंदर्य अद्भुत है। भाषा बहुत मोहक है और सामान्य और गहरे अर्थ दोनों ही चित्ताकर्षक हैं। उदहारण के लिए कमलनयन का अर्थ सुन्दर और पवित्र दृष्टि है। कमल कीचड़ में खिलता है। फिर भी ये सुन्दर और पवित्र रहता है। कमलनयन व्यक्ति इस संसार में रहता है और सभी परिस्थितियों में इसकी सुंदरता और पवित्रता को देखता है।

ललिता, पाठक को सहस्रनाम में वर्णित विभिन्न गुणों से पहचान कराकर उनके दोनों प्रकार के (गूढ़ और सामान्य) अर्थों की झलक भी देने के उद्देश्य को पूरा करती है। किसी विशिष्ट गुण के विभिन्न सन्दर्भ को बहुत सुंदर तरीके से पिरोया गया है। जो साथ ही एक ही गुण के विभिन आयाम प्रस्तुत कर देती है।

हमें ये जानना चाहिए कि काम इस धरा पर एक बहुत ही सुन्दर और महान लक्ष्य के लिए आये हैं। जब श्रद्धा और जाग्रति के साथ पाठ किया जाता है, ललिता हमारी चेतना में शुध्दि लाकर हमें सकारात्मकता, क्रियाशीलता और उल्लास का भंडार बना देती है। इसलिए आइये आनंद मय हों और संसार के लिए उल्लास रूप हो जाये।
मुख्यतः श्री विद्या मंत्र दीक्षित व्यक्ति इस सहस्रनाम करने के अधिकारी हैं लेकिन योग्य श्री विद्या गुरु के आदेश पर मंत्र दीक्षित ना हो वे भी कर सकते हैं।

॥ हरिः ॐ ॥

अस्य श्री ललिता सहस्रनाम स्तोत्र मालामन्त्रस्य, वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवता, श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजं, शक्ति कूटेति शक्तिः,कामराजेति कीलकं, मम धर्मार्थ काम मोक्ष चतुर्विध फलपुरुषार्थ सिद्ध्यर्थे ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः

॥ ऋष्यादि न्यास ॥(षडांग)

वशिन्यादि वाग्देवता ऋषिभ्यो नमः शिरशे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श) ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवताभ्यो नमः ह्रदये (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजाय नमः गुह्ये (वाम हस्ते स्पर्श, हस्त प्रक्षालयम)

शक्ति कूटेति शक्तये नमः पाध्यो (द्वयम हस्ते स्पर्श)

कामराजेति कीलकाय नमः नाभौ(दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः नमः सर्वाँगे (द्वयम हस्ते स्पर्श)

॥ कर न्यास॥

कूटत्रयेण द्विरावृत्या करषडंगौ विधाय

॥ ध्यानं ॥

 सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-

त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं

सौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥

 ॥ लमित्यादि पञ्च्हपूजां विभावयेत् ॥

लं पृथिवी तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै गन्धं परिकल्पयामि

हम् आकाश तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै पुष्पं परिकल्पयामि

यं वायु तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै धूपं परिकल्पयामि

रं वह्नि तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै दीपं परिकल्पयामि

वम् अमृत तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै अमृत नैवेद्यं परिकल्पयामि

सं सर्व तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै ताम्बूलादि सर्वोपचारान् परिकल्पयामि

गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्‍स्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

॥ हरिः ॐ ॥

श्री माता, श्री महाराज्ञी, श्रीमत्-सिंहासनेश्वरी ।

चिदग्नि कुण्डसम्भूता, देवकार्यसमुद्यता ॥ 1 ॥

उद्यद्भानु सहस्राभा, चतुर्बाहु समन्विता ।

रागस्वरूप पाशाढ्या, क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला ॥ 2 ॥

मनोरूपेक्षुकोदण्डा, पञ्चतन्मात्र सायका ।

निजारुण प्रभापूर मज्जद्-ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 3 ॥

चम्पकाशोक पुन्नाग सौगन्धिक लसत्कचा

कुरुविन्द मणिश्रेणी कनत्कोटीर मण्डिता ॥ 4 ॥

अष्टमी चन्द्र विभ्राज दलिकस्थल शोभिता ।

मुखचन्द्र कलङ्काभ मृगनाभि विशेषका ॥ 5 ॥

वदनस्मर माङ्गल्य गृहतोरण चिल्लिका ।

वक्त्रलक्ष्मी परीवाह चलन्मीनाभ लोचना ॥ 6 ॥

नवचम्पक पुष्पाभ नासादण्ड विराजिता ।

ताराकान्ति तिरस्कारि नासाभरण भासुरा ॥ 7 ॥

कदम्ब मञ्जरीक्लुप्त कर्णपूर मनोहरा ।

ताटङ्क युगलीभूत तपनोडुप मण्डला ॥ 8 ॥

पद्मराग शिलादर्श परिभावि कपोलभूः ।

नवविद्रुम बिम्बश्रीः न्यक्कारि रदनच्छदा ॥ 9 ॥

शुद्ध विद्याङ्कुराकार द्विजपङ्क्ति द्वयोज्ज्वला ।

कर्पूरवीटि कामोद समाकर्ष द्दिगन्तरा ॥ 10 ॥

निजसल्लाप माधुर्य विनिर्भर्-त्सित कच्छपी ।

मन्दस्मित प्रभापूर मज्जत्-कामेश मानसा ॥ 11 ॥

अनाकलित सादृश्य चुबुक श्री विराजिता ।

कामेशबद्ध माङ्गल्य सूत्रशोभित कन्थरा ॥ 12 ॥

कनकाङ्गद केयूर कमनीय भुजान्विता ।

रत्नग्रैवेय चिन्ताक लोलमुक्ता फलान्विता ॥ 13 ॥

कामेश्वर प्रेमरत्न मणि प्रतिपणस्तनी।

नाभ्यालवाल रोमालि लताफल कुचद्वयी ॥ 14 ॥

लक्ष्यरोमलता धारता समुन्नेय मध्यमा ।

स्तनभार दलन्-मध्य पट्टबन्ध वलित्रया ॥ 15 ॥

अरुणारुण कौसुम्भ वस्त्र भास्वत्-कटीतटी ।

रत्नकिङ्किणि कारम्य रशनादाम भूषिता ॥ 16 ॥

कामेश ज्ञात सौभाग्य मार्दवोरु द्वयान्विता ।

माणिक्य मकुटाकार जानुद्वय विराजिता ॥ 17 ॥

इन्द्रगोप परिक्षिप्त स्मर तूणाभ जङ्घिका ।

गूढगुल्भा कूर्मपृष्ठ जयिष्णु प्रपदान्विता ॥ 18 ॥

नखदीधिति संछन्न नमज्जन तमोगुणा ।

पदद्वय प्रभाजाल पराकृत सरोरुहा ॥ 19 ॥

शिञ्जान मणिमञ्जीर मण्डित श्री पदाम्बुजा ।

मराली मन्दगमना, महालावण्य शेवधिः ॥ 20 ॥

सर्वारुणा‌नवद्याङ्गी सर्वाभरण भूषिता ।

शिवकामेश्वराङ्कस्था, शिवा, स्वाधीन वल्लभा ॥ 21 ॥

Shri Sodashi with lord Kameshwara

सुमेरु मध्यशृङ्गस्था, श्रीमन्नगर नायिका ।

चिन्तामणि गृहान्तस्था, पञ्चब्रह्मासनस्थिता ॥ 22 ॥

महापद्माटवी संस्था, कदम्ब वनवासिनी ।

सुधासागर मध्यस्था, कामाक्षी कामदायिनी ॥ 23 ॥

देवर्षि गणसङ्घात स्तूयमानात्म वैभवा ।

भण्डासुर वधोद्युक्त शक्तिसेना समन्विता ॥ 24 ॥

सम्पत्करी समारूढ सिन्धुर व्रजसेविता ।

अश्वारूढाधिष्ठिताश्व कोटिकोटि भिरावृता ॥ 25 ॥

चक्रराज रथारूढ सर्वायुध परिष्कृता ।

गेयचक्र रथारूढ मन्त्रिणी परिसेविता ॥ 26 ॥

किरिचक्र रथारूढ दण्डनाथा पुरस्कृता ।

ज्वालामालिनि काक्षिप्त वह्निप्राकार मध्यगा ॥ 27 ॥

भण्डसैन्य वधोद्युक्त शक्ति विक्रमहर्षिता ।

नित्या पराक्रमाटोप निरीक्षण समुत्सुका ॥ 28 ॥

भण्डपुत्र वधोद्युक्त बालाविक्रम नन्दिता ।

मन्त्रिण्यम्बा विरचित विषङ्ग वधतोषिता ॥ 29 ॥

विशुक्र प्राणहरण वाराही वीर्यनन्दिता ।

कामेश्वर मुखालोक कल्पित श्री गणेश्वरा ॥ 30 ॥

महागणेश निर्भिन्न विघ्नयन्त्र प्रहर्षिता ।

भण्डासुरेन्द्र निर्मुक्त शस्त्र प्रत्यस्त्र वर्षिणी ॥ 31 ॥

कराङ्गुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृतिः ।

महापाशुपतास्त्राग्नि निर्दग्धासुर सैनिका ॥ 32 ॥

कामेश्वरास्त्र निर्दग्ध सभण्डासुर शून्यका ।

ब्रह्मोपेन्द्र महेन्द्रादि देवसंस्तुत वैभवा ॥ 33 ॥

हरनेत्राग्नि सन्दग्ध काम सञ्जीवनौषधिः ।

श्रीमद्वाग्भव कूटैक स्वरूप मुखपङ्कजा ॥ 34 ॥

कण्ठाधः कटिपर्यन्त मध्यकूट स्वरूपिणी ।

शक्तिकूटैक तापन्न कट्यथोभाग धारिणी ॥ 35 ॥

मूलमन्त्रात्मिका, मूलकूट त्रय कलेबरा ।

कुलामृतैक रसिका, कुलसङ्केत पालिनी ॥ 36 ॥

कुलाङ्गना, कुलान्तःस्था, कौलिनी, कुलयोगिनी ।

अकुला, समयान्तःस्था, समयाचार तत्परा ॥ 37 ॥

मूलाधारैक निलया, ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी ।

मणिपूरान्त रुदिता, विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ॥ 38 ॥

आज्ञा चक्रान्तरालस्था, रुद्रग्रन्थि विभेदिनी ।

सहस्राराम्बुजा रूढा, सुधासाराभि वर्षिणी ॥ 39 ॥

तटिल्लता समरुचिः, षट्-चक्रोपरि संस्थिता ।

महाशक्तिः, कुण्डलिनी, बिसतन्तु तनीयसी ॥ 40 ॥

भवानी, भावनागम्या, भवारण्य कुठारिका ।

भद्रप्रिया, भद्रमूर्ति, र्भक्तसौभाग्य दायिनी ॥ 41 ॥

भक्तिप्रिया, भक्तिगम्या, भक्तिवश्या, भयापहा ।

शाम्भवी, शारदाराध्या, शर्वाणी, शर्मदायिनी ॥ 42 ॥

शाङ्करी, श्रीकरी, साध्वी, शरच्चन्द्रनिभानना ।

शातोदरी, शान्तिमती, निराधारा, निरञ्जना ॥ 43 ॥

निर्लेपा, निर्मला, नित्या, निराकारा, निराकुला ।

निर्गुणा, निष्कला, शान्ता, निष्कामा, निरुपप्लवा ॥ 44 ॥

नित्यमुक्ता, निर्विकारा, निष्प्रपञ्चा, निराश्रया ।

नित्यशुद्धा, नित्यबुद्धा, निरवद्या, निरन्तरा ॥ 45 ॥

निष्कारणा, निष्कलङ्का, निरुपाधि, र्निरीश्वरा ।

नीरागा, रागमथनी, निर्मदा, मदनाशिनी ॥ 46 ॥

निश्चिन्ता, निरहङ्कारा, निर्मोहा, मोहनाशिनी ।

निर्ममा, ममताहन्त्री, निष्पापा, पापनाशिनी ॥ 47 ॥

निष्क्रोधा, क्रोधशमनी, निर्लोभा, लोभनाशिनी ।

निःसंशया, संशयघ्नी, निर्भवा, भवनाशिनी ॥ 48 ॥

निर्विकल्पा, निराबाधा, निर्भेदा, भेदनाशिनी ।

निर्नाशा, मृत्युमथनी, निष्क्रिया, निष्परिग्रहा ॥ 49 ॥

निस्तुला, नीलचिकुरा, निरपाया, निरत्यया ।

दुर्लभा, दुर्गमा, दुर्गा, दुःखहन्त्री, सुखप्रदा ॥ 50 ॥

दुष्टदूरा, दुराचार शमनी, दोषवर्जिता ।

सर्वज्ञा, सान्द्रकरुणा, समानाधिकवर्जिता ॥ 51 ॥

सर्वशक्तिमयी, सर्वमङ्गला, सद्गतिप्रदा ।

सर्वेश्वरी, सर्वमयी, सर्वमन्त्र स्वरूपिणी ॥ 52 ॥

सर्वयन्त्रात्मिका, सर्वतन्त्ररूपा, मनोन्मनी ।

माहेश्वरी, महादेवी, महालक्ष्मी, र्मृडप्रिया ॥ 53 ॥

महारूपा, महापूज्या, महापातक नाशिनी ।

महामाया, महासत्त्वा, महाशक्ति र्महारतिः ॥ 54 ॥

महाभोगा, महैश्वर्या, महावीर्या, महाबला ।

महाबुद्धि, र्महासिद्धि, र्महायोगेश्वरेश्वरी ॥ 55 ॥

महातन्त्रा, महामन्त्रा, महायन्त्रा, महासना ।

महायाग क्रमाराध्या, महाभैरव पूजिता ॥ 56 ॥

महेश्वर महाकल्प महाताण्डव साक्षिणी ।

महाकामेश महिषी, महात्रिपुर सुन्दरी ॥ 57 ॥

चतुःषष्ट्युपचाराढ्या, चतुष्षष्टि कलामयी ।

महा चतुष्षष्टि कोटि योगिनी गणसेविता ॥ 58 ॥

मनुविद्या, चन्द्रविद्या, चन्द्रमण्डलमध्यगा ।

चारुरूपा, चारुहासा, चारुचन्द्र कलाधरा ॥ 59 ॥

चराचर जगन्नाथा, चक्रराज निकेतना ।

पार्वती, पद्मनयना, पद्मराग समप्रभा ॥ 60 ॥

पञ्चप्रेतासनासीना, पञ्चब्रह्म स्वरूपिणी ।

चिन्मयी, परमानन्दा, विज्ञान घनरूपिणी ॥ 61 ॥

ध्यानध्यातृ ध्येयरूपा, धर्माधर्म विवर्जिता ।

विश्वरूपा, जागरिणी, स्वपन्ती, तैजसात्मिका ॥ 62 ॥

सुप्ता, प्राज्ञात्मिका, तुर्या, सर्वावस्था विवर्जिता ।

सृष्टिकर्त्री, ब्रह्मरूपा, गोप्त्री, गोविन्दरूपिणी ॥ 63 ॥

संहारिणी, रुद्ररूपा, तिरोधानकरीश्वरी ।

सदाशिवानुग्रहदा, पञ्चकृत्य परायणा ॥ 64 ॥

भानुमण्डल मध्यस्था, भैरवी, भगमालिनी ।

पद्मासना, भगवती, पद्मनाभ सहोदरी ॥ 65 ॥

उन्मेष निमिषोत्पन्न विपन्न भुवनावलिः ।

सहस्रशीर्षवदना, सहस्राक्षी, सहस्रपात् ॥ 66 ॥

आब्रह्म कीटजननी, वर्णाश्रम विधायिनी ।

निजाज्ञारूपनिगमा, पुण्यापुण्य फलप्रदा ॥ 67 ॥

श्रुति सीमन्त सिन्धूरीकृत पादाब्जधूलिका ।

सकलागम सन्दोह शुक्तिसम्पुट मौक्तिका ॥ 68 ॥

पुरुषार्थप्रदा, पूर्णा, भोगिनी, भुवनेश्वरी ।

अम्बिका,‌ नादि निधना, हरिब्रह्मेन्द्र सेविता ॥ 69 ॥

नारायणी, नादरूपा, नामरूप विवर्जिता ।

ह्रीङ्कारी, ह्रीमती, हृद्या, हेयोपादेय वर्जिता ॥ 70 ॥

राजराजार्चिता, राज्ञी, रम्या, राजीवलोचना ।

रञ्जनी, रमणी, रस्या, रणत्किङ्किणि मेखला ॥ 71 ॥

रमा, राकेन्दुवदना, रतिरूपा, रतिप्रिया ।

रक्षाकरी, राक्षसघ्नी, रामा, रमणलम्पटा ॥ 72 ॥

काम्या, कामकलारूपा, कदम्ब कुसुमप्रिया ।

कल्याणी, जगतीकन्दा, करुणारस सागरा ॥ 73 ॥

कलावती, कलालापा, कान्ता, कादम्बरीप्रिया ।

वरदा, वामनयना, वारुणीमदविह्वला ॥ 74 ॥

विश्वाधिका, वेदवेद्या, विन्ध्याचल निवासिनी ।

विधात्री, वेदजननी, विष्णुमाया, विलासिनी ॥ 75 ॥

क्षेत्रस्वरूपा, क्षेत्रेशी, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पालिनी ।

क्षयवृद्धि विनिर्मुक्ता, क्षेत्रपाल समर्चिता ॥ 76 ॥

विजया, विमला, वन्द्या, वन्दारु जनवत्सला ।

वाग्वादिनी, वामकेशी, वह्निमण्डल वासिनी ॥ 77 ॥

भक्तिमत्-कल्पलतिका, पशुपाश विमोचनी ।

संहृताशेष पाषण्डा, सदाचार प्रवर्तिका ॥ 78 ॥

तापत्रयाग्नि सन्तप्त समाह्लादन चन्द्रिका ।

तरुणी, तापसाराध्या, तनुमध्या, तमो‌पहा ॥ 79 ॥

चिति, स्तत्पदलक्ष्यार्था, चिदेक रसरूपिणी ।

स्वात्मानन्दलवीभूत ब्रह्माद्यानन्द सन्ततिः ॥ 80 ॥

परा, प्रत्यक्चिती रूपा, पश्यन्ती, परदेवता ।

मध्यमा, वैखरीरूपा, भक्तमानस हंसिका ॥ 81 ॥

कामेश्वर प्राणनाडी, कृतज्ञा, कामपूजिता ।

शृङ्गार रससम्पूर्णा, जया, जालन्धरस्थिता ॥ 82 ॥

ओड्याण पीठनिलया, बिन्दुमण्डल वासिनी ।

रहोयाग क्रमाराध्या, रहस्तर्पण तर्पिता ॥ 83 ॥

सद्यः प्रसादिनी, विश्वसाक्षिणी, साक्षिवर्जिता ।

षडङ्गदेवता युक्ता, षाड्गुण्य परिपूरिता ॥ 84 ॥

नित्यक्लिन्ना, निरुपमा, निर्वाण सुखदायिनी ।

नित्या, षोडशिकारूपा, श्रीकण्ठार्ध शरीरिणी ॥ 85 ॥

प्रभावती, प्रभारूपा, प्रसिद्धा, परमेश्वरी ।

मूलप्रकृति रव्यक्ता, व्यक्ता‌व्यक्त स्वरूपिणी ॥ 86 ॥

व्यापिनी, विविधाकारा, विद्या‌विद्या स्वरूपिणी ।

महाकामेश नयना, कुमुदाह्लाद कौमुदी ॥ 87 ॥

भक्तहार्द तमोभेद भानुमद्-भानुसन्ततिः ।

शिवदूती, शिवाराध्या, शिवमूर्ति, श्शिवङ्करी ॥ 88 ॥

शिवप्रिया, शिवपरा, शिष्टेष्टा, शिष्टपूजिता ।

अप्रमेया, स्वप्रकाशा, मनोवाचाम गोचरा ॥ 89 ॥

चिच्छक्ति, श्चेतनारूपा, जडशक्ति, र्जडात्मिका ।

गायत्री, व्याहृति, स्सन्ध्या, द्विजबृन्द निषेविता ॥ 90 ॥

तत्त्वासना, तत्त्वमयी, पञ्चकोशान्तरस्थिता ।

निस्सीममहिमा, नित्ययौवना, मदशालिनी ॥ 91 ॥

मदघूर्णित रक्ताक्षी, मदपाटल गण्डभूः ।

चन्दन द्रवदिग्धाङ्गी, चाम्पेय कुसुम प्रिया ॥ 92 ॥

कुशला, कोमलाकारा, कुरुकुल्ला, कुलेश्वरी ।

कुलकुण्डालया, कौल मार्गतत्पर सेविता ॥ 93 ॥

कुमार गणनाथाम्बा, तुष्टिः, पुष्टि, र्मति, र्धृतिः ।

शान्तिः, स्वस्तिमती, कान्ति, र्नन्दिनी, विघ्ननाशिनी ॥ 94 ॥

तेजोवती, त्रिनयना, लोलाक्षी कामरूपिणी ।

मालिनी, हंसिनी, माता, मलयाचल वासिनी ॥ 95 ॥

सुमुखी, नलिनी, सुभ्रूः, शोभना, सुरनायिका ।

कालकण्ठी, कान्तिमती, क्षोभिणी, सूक्ष्मरूपिणी ॥ 96 ॥

वज्रेश्वरी, वामदेवी, वयो‌உवस्था विवर्जिता ।

सिद्धेश्वरी, सिद्धविद्या, सिद्धमाता, यशस्विनी ॥ 97 ॥

विशुद्धि चक्रनिलया,‌रक्तवर्णा, त्रिलोचना ।

खट्वाङ्गादि प्रहरणा, वदनैक समन्विता ॥ 98 ॥

पायसान्नप्रिया, त्वक्‍स्था, पशुलोक भयङ्करी ।

अमृतादि महाशक्ति संवृता, डाकिनीश्वरी ॥ 99 ॥

अनाहताब्ज निलया, श्यामाभा, वदनद्वया ।

दंष्ट्रोज्ज्वला,‌क्षमालाधिधरा, रुधिर संस्थिता ॥ 100 ॥

कालरात्र्यादि शक्त्योघवृता, स्निग्धौदनप्रिया ।

महावीरेन्द्र वरदा, राकिण्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 101 ॥

मणिपूराब्ज निलया, वदनत्रय संयुता ।

वज्राधिकायुधोपेता, डामर्यादिभि रावृता ॥ 102 ॥

रक्तवर्णा, मांसनिष्ठा, गुडान्न प्रीतमानसा ।

समस्त भक्तसुखदा, लाकिन्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 103 ॥

स्वाधिष्ठानाम्बु जगता, चतुर्वक्त्र मनोहरा ।

शूलाद्यायुध सम्पन्ना, पीतवर्णा,‌तिगर्विता ॥ 104 ॥

मेदोनिष्ठा, मधुप्रीता, बन्दिन्यादि समन्विता ।

दध्यन्नासक्त हृदया, काकिनी रूपधारिणी ॥ 105 ॥

मूला धाराम्बुजारूढा, पञ्चवक्त्रा,‌स्थिसंस्थिता ।

अङ्कुशादि प्रहरणा, वरदादि निषेविता ॥ 106 ॥

मुद्गौदनासक्त चित्ता, साकिन्यम्बास्वरूपिणी ।

आज्ञा चक्राब्जनिलया, शुक्लवर्णा, षडानना ॥ 107 ॥

मज्जासंस्था, हंसवती मुख्यशक्ति समन्विता ।

हरिद्रान्नैक रसिका, हाकिनी रूपधारिणी ॥ 108 ॥

सहस्रदल पद्मस्था, सर्ववर्णोप शोभिता ।

सर्वायुधधरा, शुक्ल संस्थिता, सर्वतोमुखी ॥ 109 ॥

सर्वौदन प्रीतचित्ता, याकिन्यम्बा स्वरूपिणी ।

स्वाहा, स्वधा,‌मति, र्मेधा, श्रुतिः, स्मृति, रनुत्तमा ॥ 110 ॥

पुण्यकीर्तिः, पुण्यलभ्या, पुण्यश्रवण कीर्तना ।

पुलोमजार्चिता, बन्धमोचनी, बन्धुरालका ॥ 111 ॥

विमर्शरूपिणी, विद्या, वियदादि जगत्प्रसूः ।

सर्वव्याधि प्रशमनी, सर्वमृत्यु निवारिणी ॥ 112 ॥

अग्रगण्या,‌चिन्त्यरूपा, कलिकल्मष नाशिनी ।

कात्यायिनी, कालहन्त्री, कमलाक्ष निषेविता ॥ 113 ॥

ताम्बूल पूरित मुखी, दाडिमी कुसुमप्रभा ।

मृगाक्षी, मोहिनी, मुख्या, मृडानी, मित्ररूपिणी ॥ 114 ॥

नित्यतृप्ता, भक्तनिधि, र्नियन्त्री, निखिलेश्वरी ।

मैत्र्यादि वासनालभ्या, महाप्रलय साक्षिणी ॥ 115 ॥

पराशक्तिः, परानिष्ठा, प्रज्ञान घनरूपिणी ।

माध्वीपानालसा, मत्ता, मातृका वर्ण रूपिणी ॥ 116 ॥

महाकैलास निलया, मृणाल मृदुदोर्लता ।

महनीया, दयामूर्ती, र्महासाम्राज्यशालिनी ॥ 117 ॥

आत्मविद्या, महाविद्या, श्रीविद्या, कामसेविता ।

श्रीषोडशाक्षरी विद्या, त्रिकूटा, कामकोटिका ॥ 118 ॥

कटाक्षकिङ्करी भूत कमला कोटिसेविता ।

शिरःस्थिता, चन्द्रनिभा, फालस्थेन्द्र धनुःप्रभा ॥ 119 ॥

हृदयस्था, रविप्रख्या, त्रिकोणान्तर दीपिका ।

दाक्षायणी, दैत्यहन्त्री, दक्षयज्ञ विनाशिनी ॥ 120 ॥

दरान्दोलित दीर्घाक्षी, दरहासोज्ज्वलन्मुखी ।

गुरुमूर्ति, र्गुणनिधि, र्गोमाता, गुहजन्मभूः ॥ 121 ॥

देवेशी, दण्डनीतिस्था, दहराकाश रूपिणी ।

प्रतिपन्मुख्य राकान्त तिथिमण्डल पूजिता ॥ 122 ॥

कलात्मिका, कलानाथा, काव्यालाप विनोदिनी ।

सचामर रमावाणी सव्यदक्षिण सेविता ॥ 123 ॥

आदिशक्ति, रमेयात्मा, परमा, पावनाकृतिः ।

अनेककोटि ब्रह्माण्ड जननी, दिव्यविग्रहा ॥ 124 ॥

क्लीङ्कारी, केवला, गुह्या, कैवल्य पददायिनी ।

त्रिपुरा, त्रिजगद्वन्द्या, त्रिमूर्ति, स्त्रिदशेश्वरी ॥ 125 ॥

त्र्यक्षरी, दिव्यगन्धाढ्या, सिन्धूर तिलकाञ्चिता ।

उमा, शैलेन्द्रतनया, गौरी, गन्धर्व सेविता ॥ 126 ॥

विश्वगर्भा, स्वर्णगर्भा,‌உवरदा वागधीश्वरी ।

ध्यानगम्या,‌ परिच्छेद्या, ज्ञानदा, ज्ञानविग्रहा ॥ 127 ॥

सर्ववेदान्त संवेद्या, सत्यानन्द स्वरूपिणी ।

लोपामुद्रार्चिता, लीलाक्लुप्त ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 128 ॥

अदृश्या, दृश्यरहिता, विज्ञात्री, वेद्यवर्जिता ।

योगिनी, योगदा, योग्या, योगानन्दा, युगन्धरा ॥ 129 ॥

इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति स्वरूपिणी ।

सर्वधारा, सुप्रतिष्ठा, सदसद्-रूपधारिणी ॥ 130 ॥

अष्टमूर्ति, रजाजैत्री, लोकयात्रा विधायिनी ।

एकाकिनी, भूमरूपा, निर्द्वैता, द्वैतवर्जिता ॥ 131 ॥

अन्नदा, वसुदा, वृद्धा, ब्रह्मात्मैक्य स्वरूपिणी ।

बृहती, ब्राह्मणी, ब्राह्मी, ब्रह्मानन्दा, बलिप्रिया ॥ 132 ॥

भाषारूपा, बृहत्सेना, भावाभाव विवर्जिता ।

सुखाराध्या, शुभकरी, शोभना सुलभागतिः ॥ 133 ॥

राजराजेश्वरी, राज्यदायिनी, राज्यवल्लभा ।

राजत्-कृपा, राजपीठ निवेशित निजाश्रिताः ॥ 134 ॥

राज्यलक्ष्मीः, कोशनाथा, चतुरङ्ग बलेश्वरी ।

साम्राज्यदायिनी, सत्यसन्धा, सागरमेखला ॥ 135 ॥

दीक्षिता, दैत्यशमनी, सर्वलोक वशङ्करी ।

सर्वार्थदात्री, सावित्री, सच्चिदानन्द रूपिणी ॥ 136 ॥

देशकाला‌ परिच्छिन्ना, सर्वगा, सर्वमोहिनी ।

सरस्वती, शास्त्रमयी, गुहाम्बा, गुह्यरूपिणी ॥ 137 ॥

सर्वोपाधि विनिर्मुक्ता, सदाशिव पतिव्रता ।

सम्प्रदायेश्वरी, साध्वी, गुरुमण्डल रूपिणी ॥ 138 ॥

कुलोत्तीर्णा, भगाराध्या, माया, मधुमती, मही ।

गणाम्बा, गुह्यकाराध्या, कोमलाङ्गी, गुरुप्रिया ॥ 139 ॥

स्वतन्त्रा, सर्वतन्त्रेशी, दक्षिणामूर्ति रूपिणी ।

सनकादि समाराध्या, शिवज्ञान प्रदायिनी ॥ 140 ॥

चित्कला,‌ नन्दकलिका, प्रेमरूपा, प्रियङ्करी ।

नामपारायण प्रीता, नन्दिविद्या, नटेश्वरी ॥ 141 ॥

मिथ्या जगदधिष्ठाना मुक्तिदा, मुक्तिरूपिणी ।

लास्यप्रिया, लयकरी, लज्जा, रम्भादि वन्दिता ॥ 142 ॥

भवदाव सुधावृष्टिः, पापारण्य दवानला ।

दौर्भाग्यतूल वातूला, जराध्वान्त रविप्रभा ॥ 143 ॥

भाग्याब्धिचन्द्रिका, भक्तचित्तकेकि घनाघना ।

रोगपर्वत दम्भोलि, र्मृत्युदारु कुठारिका ॥ 144 ॥

महेश्वरी, महाकाली, महाग्रासा, महा‌உशना ।

अपर्णा, चण्डिका, चण्ड मुण्डा‌सुर निषूदिनी ॥ 145 ॥

क्षराक्षरात्मिका, सर्वलोकेशी, विश्वधारिणी ।

त्रिवर्गदात्री, सुभगा, त्र्यम्बका, त्रिगुणात्मिका ॥ 146 ॥

स्वर्गापवर्गदा, शुद्धा, जपापुष्प निभाकृतिः ।

ओजोवती, द्युतिधरा, यज्ञरूपा, प्रियव्रता ॥ 147 ॥

दुराराध्या, दुरादर्षा, पाटली कुसुमप्रिया ।

महती, मेरुनिलया, मन्दार कुसुमप्रिया ॥ 148 ॥

वीराराध्या, विराड्रूपा, विरजा, विश्वतोमुखी ।

प्रत्यग्रूपा, पराकाशा, प्राणदा, प्राणरूपिणी ॥ 149 ॥

मार्ताण्ड भैरवाराध्या, मन्त्रिणी न्यस्तराज्यधूः ।

त्रिपुरेशी, जयत्सेना, निस्त्रैगुण्या, परापरा ॥ 150 ॥

सत्यज्ञाना‌உनन्दरूपा, सामरस्य परायणा ।

कपर्दिनी, कलामाला, कामधुक्,कामरूपिणी ॥ 151 ॥

कलानिधिः, काव्यकला, रसज्ञा, रसशेवधिः ।

पुष्टा, पुरातना, पूज्या, पुष्करा, पुष्करेक्षणा ॥ 152 ॥

परञ्ज्योतिः, परन्धाम, परमाणुः, परात्परा ।

पाशहस्ता, पाशहन्त्री, परमन्त्र विभेदिनी ॥ 153 ॥

मूर्ता,‌ मूर्ता,‌ नित्यतृप्ता, मुनि मानस हंसिका ।

सत्यव्रता, सत्यरूपा, सर्वान्तर्यामिनी, सती ॥ 154 ॥

ब्रह्माणी, ब्रह्मजननी, बहुरूपा, बुधार्चिता ।

प्रसवित्री, प्रचण्डा‌ज्ञा, प्रतिष्ठा, प्रकटाकृतिः ॥ 155 ॥

प्राणेश्वरी, प्राणदात्री, पञ्चाशत्-पीठरूपिणी ।

विशृङ्खला, विविक्तस्था, वीरमाता, वियत्प्रसूः ॥ 156 ॥

मुकुन्दा, मुक्ति निलया, मूलविग्रह रूपिणी ।

भावज्ञा, भवरोगघ्नी भवचक्र प्रवर्तिनी ॥ 157 ॥

छन्दस्सारा, शास्त्रसारा, मन्त्रसारा, तलोदरी ।

उदारकीर्ति, रुद्दामवैभवा, वर्णरूपिणी ॥ 158 ॥

जन्ममृत्यु जरातप्त जन विश्रान्ति दायिनी ।

सर्वोपनिष दुद्घुष्टा, शान्त्यतीत कलात्मिका ॥ 159 ॥

गम्भीरा, गगनान्तःस्था, गर्विता, गानलोलुपा ।

कल्पनारहिता, काष्ठा, कान्ता, कान्तार्ध विग्रहा ॥ 160 ॥

कार्यकारण निर्मुक्ता, कामकेलि तरङ्गिता ।

कनत्-कनकताटङ्का, लीलाविग्रह धारिणी ॥ 161 ॥

अजाक्षय विनिर्मुक्ता, मुग्धा क्षिप्रप्रसादिनी ।

अन्तर्मुख समाराध्या, बहिर्मुख सुदुर्लभा ॥ 162 ॥

त्रयी, त्रिवर्ग निलया, त्रिस्था, त्रिपुरमालिनी ।

निरामया, निरालम्बा, स्वात्मारामा, सुधासृतिः ॥ 163 ॥

संसारपङ्क निर्मग्न समुद्धरण पण्डिता ।

यज्ञप्रिया, यज्ञकर्त्री, यजमान स्वरूपिणी ॥ 164 ॥

धर्माधारा, धनाध्यक्षा, धनधान्य विवर्धिनी ।

विप्रप्रिया, विप्ररूपा, विश्वभ्रमण कारिणी ॥ 165 ॥

विश्वग्रासा, विद्रुमाभा, वैष्णवी, विष्णुरूपिणी ।

अयोनि, र्योनिनिलया, कूटस्था, कुलरूपिणी ॥ 166 ॥

वीरगोष्ठीप्रिया, वीरा, नैष्कर्म्या, नादरूपिणी ।

विज्ञान कलना, कल्या विदग्धा, बैन्दवासना ॥ 167 ॥

तत्त्वाधिका, तत्त्वमयी, तत्त्वमर्थ स्वरूपिणी ।

सामगानप्रिया, सौम्या, सदाशिव कुटुम्बिनी ॥ 168 ॥

सव्यापसव्य मार्गस्था, सर्वापद्वि निवारिणी ।

स्वस्था, स्वभावमधुरा, धीरा, धीर समर्चिता ॥ 169 ॥

चैतन्यार्घ्य समाराध्या, चैतन्य कुसुमप्रिया ।

सदोदिता, सदातुष्टा, तरुणादित्य पाटला ॥ 170 ॥

दक्षिणा, दक्षिणाराध्या, दरस्मेर मुखाम्बुजा ।

कौलिनी केवला,‌ नर्घ्या कैवल्य पददायिनी ॥ 171 ॥

स्तोत्रप्रिया, स्तुतिमती, श्रुतिसंस्तुत वैभवा ।

मनस्विनी, मानवती, महेशी, मङ्गलाकृतिः ॥ 172 ॥

विश्वमाता, जगद्धात्री, विशालाक्षी, विरागिणी।

प्रगल्भा, परमोदारा, परामोदा, मनोमयी ॥ 173 ॥

व्योमकेशी, विमानस्था, वज्रिणी, वामकेश्वरी ।

पञ्चयज्ञप्रिया, पञ्चप्रेत मञ्चाधिशायिनी ॥ 174 ॥

पञ्चमी, पञ्चभूतेशी, पञ्च सङ्ख्योपचारिणी ।

शाश्वती, शाश्वतैश्वर्या, शर्मदा, शम्भुमोहिनी ॥ 175 ॥

धरा, धरसुता, धन्या, धर्मिणी, धर्मवर्धिनी ।

लोकातीता, गुणातीता, सर्वातीता, शमात्मिका ॥ 176 ॥

बन्धूक कुसुम प्रख्या, बाला, लीलाविनोदिनी ।

सुमङ्गली, सुखकरी, सुवेषाड्या, सुवासिनी ॥ 177 ॥

सुवासिन्यर्चनप्रीता, शोभना, शुद्ध मानसा ।

बिन्दु तर्पण सन्तुष्टा, पूर्वजा, त्रिपुराम्बिका ॥ 178 ॥

दशमुद्रा समाराध्या, त्रिपुरा श्रीवशङ्करी ।

ज्ञानमुद्रा, ज्ञानगम्या, ज्ञानज्ञेय स्वरूपिणी ॥ 179 ॥

योनिमुद्रा, त्रिखण्डेशी, त्रिगुणाम्बा, त्रिकोणगा ।

अनघाद्भुत चारित्रा, वांछितार्थ प्रदायिनी ॥ 180 ॥

अभ्यासाति शयज्ञाता, षडध्वातीत रूपिणी ।

अव्याज करुणामूर्ति, रज्ञानध्वान्त दीपिका ॥ 181 ॥

आबालगोप विदिता, सर्वानुल्लङ्घ्य शासना ।

श्री चक्रराजनिलया, श्रीमत्त्रिपुर सुन्दरी ॥ 182 ॥

श्री शिवा, शिवशक्त्यैक्य रूपिणी, ललिताम्बिका ।

एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः ॥ 183 ॥

॥ इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे, उत्तरखण्डे, श्री हयग्रीवागस्त्य संवादे, श्रीललितारहस्यनाम श्री ललिता रहस्यनाम साहस्रस्तोत्र कथनं नाम द्वितीयो‌ध्यायः ॥

सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतींसौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥

ललिता सहस्त्रनाम का पाठ श्री विद्या गुरु की आज्ञा या श्री कुल में दीक्षा लेने के बाद ही करना चाहिए अन्यथा योगिनीओ के शाप का भोगी बन सकते हैं ।