Among the names Lalitā is the best. Among the mantras, Shreevidyā is the best. And in Shreevidyā , the Kādividyā is the best(Sri Vidya Pashupat Kashi Parampara is Kadi Vidya). The Sreepura is the greatest among cities; among the Shreevidyā Upāsakās, Paramashiva is the prime devotee. One is attracted to Shreevidyā only in his last birth. Those who take to this worship will have no more births. It requires an extraordinary merit to get initiated in Shreevidyā. Can anyone see objects without vision or assuage their hunger without taking food? Similarly, no one can attain Siddhi, or please the deity, without the help of Shreevidyā.
Month: February 2018
श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी बहुचराजी (Shri Bala)
भगवतीश्रीबालाकाध्यान:
अरुण किरण जालै रंजीता सावकाशा,
विधृत जपवटीका पुस्तकाभीति हस्ता ।
इतरकर वराढय़ा फुल्ल कल्हार संस्था ,
निवसतु ह्यदी बाला नित्य कल्याण शीला ।।
(छवि: श्री राजराजेश्वरी पीठ, कड़ी, उत्तर गुजरात)
माँ श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी मां भगवती का बाला सुंदरी स्वरुप है. ‘दस महा-विद्याओ’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं । वास्तव में आदि-शक्ति एक ही हैं, उन्हीं का आदि रुप ‘काली’ है और उसी रुप का विकसित स्वरुप ‘षोडशी’ है, इसी से ‘षोडशी’ को ‘रक्त-काली’ नाम से भी स्मरण किया जाता है । भगवती तारा का रुप ‘काली’ और ‘षोडशी’ के मध्य का विकसित स्वरुप है । प्रधानता दो ही रुपों की मानी जाती है और तदनुसार ‘काली-कुल′ एवं ‘श्री-कुल′ इन दो विभागों में दशों महा-विद्यायें परिगणित होती हैं ।
भगवती षोडशी के मुख्यतः तीन रुप हैं –
(१) श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी या श्री बाला त्रिपुरा,
(२) श्री षोडशी या महा-त्रिपुर सुन्दरी तथा
(३) श्री ललिता त्रिपुर-सुन्दरी या श्री श्रीविद्या ।
आठ वर्षीया स्वरुप बाला त्रिपुर सुन्दरी का, षोडश-वर्षीय स्वरुप षोडशी स्वरुप तथा ललिता त्रिपुर सुन्दरी स्वरुप युवा अवस्था को माना है ।
श्री विद्या की प्रधान देवि ललिता त्रिपुर सुन्दरी है । यह धन, ऐश्वर्य भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठातृ देवी है । अन्य विद्यायें को मोक्ष की विशेष फलदा है, तो कोई भोग की विशेष फलदा है परन्तु श्रीविद्या की उपासना से दोनों ही करतल-गत हैं ।
‘श्री बाला’ का मुख्य मन्त्र तीन अक्षरों का है और उनका पूजा-यन्त्र ‘नव-योन्यात्मक’ जिसे बाला यंत्रभी कहा गया है । अतः उन्हें ‘त्रिपुरा’ या ‘त्र्यक्षरी’ नामों से भी अभिहित करते हैं ।
‘श्री ललिता’ या ‘श्री श्रीविद्या’ का मुख्य मन्त्र पन्द्रह अक्षरों का होने से उनका नामान्तर ‘पञ्च-दशी’ भी है । इनका पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ नाम से प्रसिद्ध है । ‘श्री षोडशी’ या ‘महा-त्रिपुर-सुन्दरी’ का मुख्य मन्त्र सोलह अक्षरों का है, उसी के अनुरुप उनका नाम है । पूजा यन्त्र ‘श्रीललिता’ – जैसा ही है ।
‘श्री ललिता’ एवं श्री ‘षोडशी’ के मन्त्रों में तीन ‘कूटों’ का समावेश है, जो क्रमशः ‘वाक्-कूट’, काम-कूट’ तथा ‘शक्ति-कूट’ नामों से प्रसिद्ध हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि पञ्चदशी के कूट-त्रय ‘क’, ‘ह′ या ‘स’ से प्रारम्भ होते हैं । अतः विभिन्न ‘कादि’, ‘हादि’ और ‘सादि’ – विद्या नाम से जाने जाते हैं ।
भगवती षोडशी से सम्बन्धित पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ की विशेष ख्याति है । इस तरह का जटिल पूजा-यन्त्र अन्य किसी देवता का नहीं है । वह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्यों का बोधक है । इसी से उसे ‘यन्त्र-राज’ या ‘चक्र-राज’ भी कहते हैं ।
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“श्रीबाला त्रिपुर–सुन्दरीनामकाअर्थ“
“ त्रिपुरा शब्दकामहत्व ” :-
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बाला, बाला-त्रिपुरा, त्रिपुरा-बाला, बाला-सुंदरी, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, पिण्डी-भूता त्रिपुरा, काम-त्रिपुरा, त्रिपुर-भैरवी, वाक-त्रिपुरा, महा-लक्ष्मी-त्रिपुरा, बाला-भैरवी, श्रीललिता राजराजेश्वरी, षोडशी, श्रीललिता महा-त्रिपुरा-सुंदरी, के अन्य भेद सभी श्री श्री विद्या के नाम से पुकारे जाते है | इन सभी विद्या की उपासना ऊधर्वाम्नाय से होती है |
बाला, बाला-त्रिपुरा और बाला-त्रिपुर-सुंदरी नामों से एक ही महा विद्या को सम्बोधित किया जाता है | किसी भी नाम से उपासना की जाये, उपासना तो जगन्माता की ही की जाती है | नारदीय संहिता मे लिखा है कि -‘वेद, धर्म-शास्त्र, पुराण, पञ्चरात्र आदि शास्त्रों मे एक ‘परमेश्वरी’ का वर्णन है, नाम चाहे भिन्न भिन्न हो|
किन्तु महा शक्ति एक ही है | कहीं मन्त्रोध्दार भेद से, कहीं आसन भेद से, कहीं सम्प्रदाय भेद से, कहीं पूजा भेद से, कहीं स्वरूप भेद से, कहीं ध्यान भेद से, “त्रिपुरा’ के बहुत प्रकार है | कहीं त्रिपुरा भैरवी, कहीं त्रिपुरा ललिता, कहीं त्रिपुर सुंदरी, कहीं इन नामों से पृथक, कहीं मात्र त्रिपुरा या बाला ही कही जाती है |
त्रिपुरा अर्थात तीन पुरों की अधीश्वरी | तीन पुरियों में जाने के मार्ग भी तीन है | ” मुक्ति’ के पञ्च प्रकार १. सालोक्य २. सामीप्य ३.सारूप्य ४.सायुज्य और ५. कैवल्य है | इनमे से सालोक्य का एक मार्ग है और कैवल्य का एक | शेष तीन सायुज्य, सारुप्य, और सामीप्य का एक अलग मार्ग है | इस प्रकार कुल तीन मार्ग हुए | त्रिविध मार्ग होने से पुरियां भी तीन है | तीन पुरियों की प्राप्ति अभीष्ट होने से पर-देवता को त्रिपुरा (त्रिपुर सुंदरी ) कहा गया है |
त्रिमूर्ति १. ब्रम्हा २. विष्णु ३. महेश्वर की सृष्टि से पूर्व जो विधमान थी तथा जो वेद त्रयी १.ऋग २.यजु: और ३. साम-वेद से पूर्व विद्यमान थी एवं त्रि-लोकों १. स्वर्ग २. पृथ्वी ३. पाताल के लय होने पर भी पुन: उनको ज्यो का त्यों बना देने वाली भगवती के नाम त्रिपुरा है |
विश्व भर मे तीन-तीन वस्तुओं के जितने भी समुदाय है वे सब भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी के त्रिपुरा नाम में समाविष्ट है | अर्थात संसार में त्रि-संख्यात्मक जो कुछ है वे सभी वस्तुएं त्रिपुरा के तीन अक्षरों वाले नाम से ही उत्पन्न हुई है |
श्रीलघ्वाचार्य ने त्रि-संख्यात्मक वस्तुओं में कतिपय त्रि-वर्गात्मक वस्तुओं के नाम भी गिनायें है जैसे
तीन देवता १. ब्रह्मा २. विष्णु ३. महेश | देवता का अर्थ भी गुरु भी है |
तीन गुरु १. गुरु २.परम गुरु ३. परमेष्ठी गुरु |
तीन अग्नि १. गाहर्पत्य २. दक्षिनाग्नि ३. आहवनीय | अग्नि या ज्योति,
अत: तीन ज्योतियां १. ह्रदय-ज्योति २. ललाट-ज्योति ३. शिरो-ज्योति |
तीन शक्ति १. इच्छा शक्ति २. ज्ञान शक्ति ३. क्रिया शक्ति |
शक्ति से तीन देवियों का भी बोध होता है १. ब्रह्माणी २. वैष्णवी ३. रुद्राणी |
तीन स्वर १. उदात्त २. अनुदात्त ३. त्वरित अर्थात १. ‘अ’-कार २. ‘उ’-कार ३. बिन्दु |
तीन लोक १. स्वर्ग २. मृत्यु ३. पाताल | लोक शब्द से देहस्थ चक्र का अर्थ भी लिया जाता है ,
तीन चक्र १. आज्ञा २. शीर्ष ३. ब्रह्म-ज्ञान |
त्रि-पदी ( तीन स्थान ) १. जालन्धर-पीठ २. काम-रूप-पीठ ३. उड्डियान-पीठ |
पद शब्द से नाद शब्द का भी बोध होता है , तीन नाद १. गगनानंद २. परमानन्द ३. कमलानन्द |
त्रिपदी से तीन पदों वाली गायत्री भी ली जाती है | त्रि-पुष्कर ( तीन तीर्थ ) १. शिर २. ह्रदय ३. नाभि अथवा १. ज्येष्ठ पुष्कर २. मध्यम पुष्कर ३. कनिष्ठ पुष्कर |
त्रि-ब्रह्म ( तीन ब्रह्म ) १. इड़ा २. पिंगला ३. सुषुम्ना अर्थात १. अतीत २. अनागत ३. वर्तमान जैसे १. ह्रदय २. व्योम ३. ब्रह्म-रंध्र |
त्रयी वर्ण ( तीन वर्ण ) १. ब्राह्मण २. क्षत्रिय ३. वैश्य अथवा वर्ण शब्द से बीजाक्षरो का ग्रहण होता है १. वाग-बीज २. काम-बीज ३. शक्ति-बीज |
बाला शब्दका महत्व :-
जो अपने पुत्रों को तथा संसार को बल प्रदान करती है उसे बाला कहते है | सीधे-सादे अर्थ में यह समझना चाहियें की जो संसार के प्राणियों को बल प्रदान करती है वह “बाला” है बाला वही है जो हमारें समस्त अंगों को बल प्रदान करती है | नख से शिखा तक, रक्त से ओज तक, बुद्धि से बल तक जो प्राणी को बल प्रदान करती है वह शक्ति-मति अवश्य है , जिसके बिना प्राणी अपने को निस्सहाय समझता है |
” बाला ” अर्थात सर्व-शक्ति संपन्न, आदि माता | बाला का काम ही वृद्धि करना है | वह मानव या किसी प्राणी-विशेष को ही बल प्रदान करती हो, ऐसा नहीं- आदि-युग से ही यह जगन्माता इस संसार को बढाती चली आ रही है | आदि माता द्वारा निर्मित सृष्टि को जननी से मिला रही है | बल-वर्धिनी माता की अद्बुत शक्ति से जो परिचित हो गया, उसका जन्म तो सफल हो ही जाता है, उसके सामने त्रिभुवन की सम्पति भी तृण के सामान तुच्छ हो जाती है, क्योंकि जिस पुत्र पर माता-पिता का स्नेह हाथ फिर जाता है वह धन्य हो जाता है | “बाला’ ( बल-वर्धिनी ) का सेवक कभी निर्बल नहीं रह सकता और विश्वासी पर किसकी दया नहीं होती | बाला पहले अपने पुत्र को बल देती है और फिर बुद्धि | इन सब की प्राप्ति तभी होगी, जब संसार के लोग माता बाला की शरण में आयेंगें |
विश्वात्मिका शक्ति ” श्रीबाला ”
शिव और शक्ति- तत्व सृष्टी के आदि कारण है, वे जब ही कल्पना करते है , तभी सृष्टी होने लगती है | महा प्रलय के बाद जब “एकोहम बहु स्याम प्रजाये” की कल्पना होती है, तभी शक्ति-तत्व-शिव-तत्व से अलग होता है |
उसके पहले वे एक ही रहते है | उस एक रहने का नाम नाद है अर्थात सृष्टी की कल्पना होने के समय निष्क्रिय शिव और सक्रिय शक्ति की जो विपरीत रति होती है उसे ही नाद कहते है और इसी विपरीत रति द्वारा बिन्दु की उत्पति होती है | शक्ति जब निष्कल शिव से युक्त होती है, तब वे चिद-रूपिणी और विश्वोत्तीर्णा अर्थात विश्व के बाहर रहती है और जब वे सकल शिव के साथ होती है तब वे विश्वात्मिका होती है परा शक्ति वे है, जो चैतन्य के साथ विश्रमावस्था में रहती है | इनको ही कादी-विद्या में “महा-काली” कहा जाता है और हादी विद्या में “महा-त्रिपुर-सुंदरी.
नाद से जो बिन्दु उत्पन्न होता है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है अर्थात महा-त्रिपुर-सुंदरी नाद है और श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी बिन्दु है जो शक्ति विश्वोत्तीर्णा है, वही महा-त्रिपुर-सुंदरी है और जो विश्वात्मिका है वे ही श्रीबाला है .
दुसरे प्रकार से विचार करे तो उपनिषद के अनुसार जाग्रत, स्वप्न और सुशुप्ताभिमानी विश्व “तैजस और प्राज्ञ पुरुष है . इन त्रि-मात्राओं के दर्शन से पता चलता है कि शक्ति ही जगत-रूप में अभिव्यक्त है
वाक्य द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता | अत: यह सिद्धांत निकलता है की नाद को बिन्दु में युक्त करना चाहिए | उक्त व्याख्या से स्पष्ट है की महा-त्रिपुर-सुंदरी से श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी को युक्त समझना आवश्यक है | वास्तव में नामान्तर से दो भेद “शक्ति” के प्रतीत होते है, जो वस्तुतः एक ही है, कोई भेद नहीं है | जो नाद है वही बिन्दु है | जो महा-त्रिपुर-सुंदरी है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है |
बाला भगवती यंत्र में जो रक्त बिंदु है वही बाला है। बाला मूल विद्या है, बाला स्वभाव से सरल है, और दशमयी स्त्रोत बाला का ही इसलिए है की उसी से अर्थात बिंदु से ही भू _ पुर की और यंत्र का क्रम है, बाला का ललिता रूप और फिर षोडशी रूपआदि / सृष्टि क्रम का प्रतिपादन करता है। कहते हैं की बाला जपे सो बाला होए। बाला अर्थात बल से युक्त। बाला प्रपन्च से मुक्त है। और वास्तव में बालारूप / बिंदु ही मूल है।
श्री ललिताम्बा का बाल रूप ही श्री बाला है श्री चक्र में जो सर्वरोगहर चक्र है जिसे अष्टार बोलते है उनमे विराजित अष्ट वशवाग्वादिनी श्री बाला की सेवा करती है अष्ट सरस्वतियो से ऊपर त्रिकोण में बिंदु चक्र में बाला विराजित है ऐसे श्रीचक्र का यह भाग नव योन्यात्मक चक्र बनता है जो बाला त्रिपुरसुन्दरी का यन्त्र है । दशमहाविद्या बाला से ही प्रकाशित है बाला ही पंचदशी षोडशी महाषोडशी तक पहुचती है ।श्रीविद्या में बिना बाला सफलता नही बाला से ही पूर्णता व् सफलता है बाला ही षटचक्र संचारिणी है इस प्रकार बाला को जो श्रेष्ठता से सम्प्रदाय सुस्वर जपता है वो ज्ञान में बृहस्पति व् धन में कुबेर के समान हो जाता है।
बिना बाला के विद्या उठती नही है बाला ही विद्या की जागृति है व् कोई भी मन्त्र स्तोत्र पाठ यदि फल न दे तो बाला मन्त्र को अनुलोम विलोम में आगे पीछे लगाकर जप पाठ आदि करने से वो मन्त्र स्तोत्र पाठ भी जाग्रत हो जाते है।
“निवसतु ह्रदि बाला नित्य कल्याण शीला”
** श्रीबाला गायत्री मंत्र **
बालाशक्तयै च विद्महे त्र्यक्षर्यै च धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात् |
ऐं वाकऐश्वर्ये विद्महे क्लीं कामेश्वर्ये धीमहि तन्नः शक्ति प्रचोदयात् |
भगवती बाला त्रिपुरा सुंदरी की उपासना भोग और मोक्ष दायिनी हैं। माता भगवती बाला त्रिपुरा सुंदरी बहुचराजी मेरी कुलदेवी हैं जिससे हम अज्ञानी पर उनका विशेष स्नेह और अनुग्रह हैं। भगवती बाला त्रिपुरा सुंदरी की उपासना के लिए हमें हमारे गुरुदेवश्रीउर्वशीबेन तथा सम्पूर्ण गुरूमंडलका अनन्य आशीर्वाद प्राप्त हैं। श्रीराजराजेश्वरीपीठ (कड़ी, उत्तरगुजरात) स्वयं सिध्द श्री विद्या पीठ हैं।
Awakening Shakti
Kundalinili (Shakti) desires to meet Pure counciousness (Lord Shiva) hence move faster after few Chakras are pierced. First two – Muladhar and Swadhisthan are hardest to get pierced because it is very basic Pashu instincts of security, food, family, friends etc. Pure counciousness (Shiva state) can’t be achieved without Shakti.
मूलाधारैक निलया, ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी ।
मणिपूरान्त रुदिता, विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ॥ 38 ॥
आज्ञा चक्रान्तरालस्था, रुद्रग्रन्थि विभेदिनी ।
सहस्राराम्बुजा रूढा, सुधासाराभि वर्षिणी ॥ 39 ॥
-Lalita Sahastranamam Stotram
http://www.sanskritimagazine.com/indian-religions/hinduism/awakening-shakti/
Sound Frequencies of Mantras
As it is said keep continue your mantra jap daily…..
Anand no Garbo (The Song of Bliss)
શ્રીઆનંદગરબાનો પ્રાગટયોત્સવ
આનંદ ના ગરબાની રચના
આજે ફાગણ સુદ ત્રીજ ને બુદ્ધવાર – આનંદ ના ગરબા ની રચના તિથી……
“ આનંદ નો ગરબો “ આનંદ શબ્દ સાંભળતાની સાથે જ ચહેરા પર એક અનેરો આનંદ જ છવાઈ જાય છે. મનમાં એક અનેરો ઉત્સાહ ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. માનવીના જીવનમાં આનંદની અનુભૂતિ થવાથી શોક, દુ:ખ, ભય કે વ્યાધી જોજનો દુર ચાલ્યા જાય છે.
આ કપટી, અટપટી, સ્વાર્થી દુનિયામાં આનંદ મેળવવા માટેનો ટૂંકો માર્ગ એટલે “ આનંદ નો ગરબો “
આનંદ નો ગરબો એટલે જ્ઞાનની ગરિમા, મનનો મહિમા, ચિત્તની ચતુરાઈ અને દિલની હૃદયથી થતી પ્રસન્નતા.
આ કલિયુગ માં આનંદ ના ગરબા ને “ કલ્પવૃક્ષ “ સમાન ગણવામાં આવ્યો છે.
વાતની શરૂવાત અહીથી થાય છે કે આપણા ગુજરાત નું અમદાવાદ શહેર અમે તેમાં આવેલું નવાપુરા ગામ. એ ગામ માં એક ભટ્ટ મેવાડા બ્રાહ્મણ શ્રીહરિરામ ભટ્ટ અને ફૂલકોરબાઈ રહેતા.તેમના ઇષ્ટદેવ એકલિંગજી મહાદેવ છે. તેમણે ૧૬૯૬- આસો સુદ આઠમ ( દુર્ગાષ્ટમી ) ના રોજ બે જોડિયા બાળકો ને જન્મ આપ્યો. જેમાં એકનું નામ વલ્લભરામ અને બીજાનું નામ ધોળારામ.
બંન્ને બાળકો જયારે પાંચ વર્ષના થયા ત્યારે તેમને વિદ્યાભ્યાસ માટે પરમાનંદ બ્રહ્મચારી પાસે આશ્રમમાં ભણવા માટે મુકવામાં આવ્યા.પણ ખુબ પરિશ્રમ કરવા છતાંપણ એમણે વિદ્યાભ્યાસ નું જ્ઞાન આવ્યું જ નહિ. હા, બંન્ને ભાઈઓ નમ્ર, વિવેકી અને શ્રદ્ધાળુ હતા. વિદ્યાભ્યાસ નું જ્ઞાન ન મળવાને લીધે ગુરુજીએ બંન્ને બાળકો ને બાલા ત્રિપુરા સુંદરી માં બહુચરનો બીજ મંત્ર આપ્યો.
આ મંત્ર સાથે બંન્ને બાળકો પોતાના ઘરે ગયા. બંન્ને ભાઈઓ તેમની કાલીઘેલી વાણીમાં આખો દિવસ માં ના બીજમંત્રનું જપ કર્યા કરતા.તેઓના માતા – પિતા જાત્રાએ ગયેલ ત્યારે માં બહુચર “ બાળા “ સ્વરૂપે પ્રગટ થયા. માનું જાજરમાન તેજસ્વીરૂપ ન જોઈ શકવાના કારણે બંન્ને ભાઈઓ આંખો બંધ કરીને માં ને પૂછવા લાગ્યા કે આપ કોણ છો…? ત્યારે માં એ ભાઈઓને ઓળખ આપી કે હું તમારી માં છુ. ત્યારબાદ બંન્ને ભાઈઓને ઈચ્છિત વરદાન માગવા કહ્યું. માં ને પ્રત્યક્ષ નજરો-નજર નિહાળ્યા બાદ બંન્ને ભાઈઓના હૃદય પુલકિત થઇ ગયા. અને રોમે-રોમ આનંદિત થઇ ઉઠ્યું.
માં એ ફરીથી એમને કહ્યું કે માગો – માગો જે જોઈએ તે આપું. પરંતુ માના દર્શન માત્રથી જ આનંદ મળવાના કારણે બંન્ને ભાઈઓ માની સમક્ષ કઈ બોલી કે માંગી ના શક્યા. ત્યારે માં એ ત્રીજી વખત કહ્યું કે બેટા માગ, માંગે તે આપું. ત્યારે વલ્લભરામે માતાજીને વિનંતી કરી કે હે માં…!!! આપના દર્શન માત્રથી અમારા જીવનમાં આનંદ, આનંદ, અને માત્ર આનંદ જ છવાઈ ગયો છે અમને જે આનંદ પ્રાપ્ત થયો એવો આનંદ સૌને મળે એવું કઈક આપો. ત્યારે માં એ કહ્યું કે તમે મારા આનંદ ના ગરબા ની રચના કરો, પણ વલ્લભરામે કહ્યું કે હે માં…!!! અમે તો અભણ છીએ તો કેવી રીતે ગરબાની રચના કરી શકીએ ? ત્યારે માં એ વલ્લભરામને કહ્યું કે હું સરસ્વતી સ્વરૂપે જીભનાં અગ્રભાગ પર બિરાજમાન થઈશ એમ કહી માં એ તેમની ટચલી આંગળી વલ્લભરામની જીભના અગ્રભાગ પર મુકી ત્યારબાદ જે કઈ પણ તેમના દ્વારા રચનાઓ થઇ તે અલૌકિક અને અકાલ્પનિક છે.
આનંદ ના ગરબા ની રચના શ્રી વલ્લભરામે માત્ર ૧૨ વર્ષ , ૪ મહિના, ૨૬ દિવસની નાની કિશોર અવસ્થામાં વિક્રમ સંવત ૧૭૦૯ના ફાગણ સુદ ત્રીજ (૩) ને બુદ્ધવારે કરી. છેલ્લા ૩૬૫ વર્ષથી સતત ભક્તો ને આનંદ જ આપ્યા કરે છે. આનંદ ના ગરબા ની ૧૧૬ મી પંક્તિ માં લખવામાં આવ્યું છે કે,
“ સવંત સતદશ સાત, નવ ફાલ્ગુન સુદે માં, તિથી તૃતીયા વિખ્યાત, શુભ વાસર બુદ્ધે માં,
આનંદ ગરબા વિશેષ :-
- ૧૧૮ પદ નો ગરબો જેમાં દરેકની બે પંક્તિ હોવાથી ૨૩૬ પંક્તિઓ થાય
- ગરબા માં ૬૭૫ શબ્દો
- ગરબા માં ૩૭૨૩ અક્ષરો
- ગરબા માં ૭ વખત “ બહુચર માં “ શબ્દ
- આ ગરબા ની પ્રથમ પંક્તિ નો પ્રથમ શબ્દ “ આઈ “ છે જેનો અર્થ “ માં “ થાય અને ગરબાની છેલ્લી પંક્તિનો છેલ્લો શબ્દ પણ “ માં “ જ છે.
- ગરબા માં ૨૪૫ વખત “ માં “ શબ્દ
- આ ગરબા નું કેન્દ્રબિંદુ જ “ માં “ છે.
- આ ગરબા માં વેદ- પુરાણ , ભાગવત ગીતા, રામાયણ, મહાભારત, ઉપનિષદ જેવા મહાન ગ્રંથો નો સમાવેશ
- આ ગરબા માં ત્રણ લોક, ત્રણ શક્તિ, ચાર વેદ, ચૌદ ભુવન, ચૌદ વિદ્યા, પંચ મહાભૂત, ચાર યુગ, ત્રણ જીવ, ત્રણ વાયુ, ત્રણ ગુણ, ત્રણ દેવ, દસ અવતાર, ચૌદ રત્નો, નવ નાથ, ચોર્યાશી સિદ્ધો, પાંચ પાંડવ, અઢાર પુરાણ, ત્રણ કાળ, છ ઋતુ, છ રસ, બાર માસ, પંચામૃત, ચાર શત્રુ, સાત ધાતુ, પાંચ રંગ, આઠ પર્વત, અઢાર ભાર વનસ્પતિ, ચાર વર્ણ, ચૌદ ઇન્દ્રિયો, ચોર્યાશી લાખ જંતુઓ, નવ ખંડ, ત્રીભેટ, દસ દિશા, ચાર મંગળ, સાત સાગર, નવ ગ્રહ, દસ દિશા ના રક્ષક, પાંચ પદારથ, ત્રણ દોષ નો અદભૂત સમન્વય.
- એક જ આસન પર બેસીને ત્રણ વખત આનંદ નો ગરબો કરવાથી “ ચંડીપાઠ “ કર્યા જેટલું પુણ્ય પ્રાપ્ત થાય છે.
- આનંદના ગરબા મા સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, માગધી, અર્ધ માગધી, ગુજરાતી, હિન્દી, મરાઠી, ગામઠી,તળપદી જેવી અનેક ભાષાઓના શબ્દોનો સમાવેશ છે.
- આનંદનો ગરબો ફક્ત બહુચરમાં આંગળી નહિ પરંતુ કોઇ પણ ઇષ્ટ કે કુળદેવી આગળ કરી શકાય એટલે જ અંબાજી બહુચરાજી જેવા ગુજરાતના મંદિરો પીઠો મા આનંદના ગરબાના નિત્ય ૩ પાઠ થાય છે.એટલેજ કેહવાય છે કે આનંદ નો ગરબો એ શક્તિ ઉપાસકો નું અમૂલ્ય ઘરેણું છે.
- આનંદ નો ગરબો એ શક્તિ આરાધનાનો ગરબો છે.
આનંદનો ગરબો કરવાથી મળતું ફળ :-
- નિર્ધન ને ધન પ્રાપ્ત થાય
- રોગીઓના રોગ દુર, દુ:ખ , દર્દ દુર થાય
- શેર માટીની ખોટ પૂરી થાય
- કેન્સર, ડાયાબીટીશ જેવા ભયંકર અને મોટા રોગો દુર થાય
- આંખ, કાન, નાક, વાચા, વાણી ની તકલીફો દુર થાય
- મનોવાંછિત ફળની પ્રાપ્તિ
- ટૂંક માં એટલું કહી શકાય છે “ આનંદ નો ગરબો “ એટલે તન, મન ની પ્રસન્નતા, સુખ શાંતિ નો સમન્વય અને “ માં “ પરાશક્તિનું સાક્ષાત દર્શન.
ખાસ નોધ :-
આનંદ નો ગરબો એ શક્તિ ઉપાસકો નું અમૂલ્ય ઘરેણું છે, આજથી આપણે આ ફાગણ સુદ ત્રીજને “ આનંદ તૃતીયા “ તિથી થી મનાવીશું….
પ.પૂજય શ્રી વલ્લભ ભટ્ટ રચિત શ્રી બહુચર માઁ નો આનંદ ગરબા નો આજ ૩૬૫ મો પ્રાગટય દિન વિ. સં. ૧૭૦૯ ફાગણ સુદ ત્રીજ બુધવાર.આજ ફાગણ સુદ ૩ ને રવિવાર તારીખ ૧૮-૨-૨૦૧૮.
આપડી આજુબાજુ માં રહેતા દરેક વ્યક્તિ, દરેક સોસાયટી, મહોલ્લા, પોળ કે એરિયામાં રહેતા દરેક રહેવાસી ગરબામાં વધુમાં વધુ જોડાય , માં ની સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ગરબો કરતા થાય એવા પ્રયત્નો કરીશું. જેટલા વધુમાં વધુ મંડળો બને એવા પ્રયત્નો કરીશું.
માં બાલા ત્રિપુરા સુંદરી માં બહુચર આપની, આપના પરિવારની સર્વે મનોકામના પૂર્ણ કરે એવી માં ને પ્રાર્થના સહ સૌને મારા…….
જય અંબે…….જય બહુચર……..
🌹આનંદનો ગરબો 🌷
☘વલ્લભ ભટ્ટ☘
આજ મુંને આનંદ, વાધ્યો અતિ ઘણો મા,
ગાવા ગરબા છંદ, બહુચર માત તણો મા. ૧
અળવે આળ પંપાળ, અપેક્ષા જ આણી મા,
છો ઇચ્છા પ્રતિપાળ, દ્યો અમૃતવાણી મા. ૨
સ્વર્ગ મૃત્યુ પાતાળ, વાસ સકળ તહારો મા,
બાળ કરી સંભાળ, કર ઝાલો મ્હારો મા. ૩
તોતળા જ મુખ તન્ન, તાતો તોય કહે મા,
અર્ભક માગે અન્ન, નિજ માતા મન લ્હે મા ૪
નહીં સવ્ય અપસવ્ય, કહી કાંઇ જાણું મા,
કળી કહાવ્યા કાવ્ય, મન મિથ્યા આણું મા ૫
કુળજ કુપાત્ર કુશીલ, કર્મ અકર્મ ભર્યો મા,
મૂરખમાં અણમીલ, રસ રટવા વિચર્યો મા ૬
મૂઢ પ્રમાણે મત્ય, મન મિથ્યા માપી મા,
કોણ લહે ઉત્પત્ય, વિશ્વ રહ્યા વ્યાપી મા ૭
પ્રાક્રમ પૌઢ પ્રચંડ, પ્રબળ ન પલ પ્રીચ્છું મા,
પૂરણ પ્રગટ અખંડ, અજ્ઞ થકો ઇચ્છું મા ૮
અર્ણવ ઓછે પાત્ર, અકળ કરી આણું મા,
પામું નહીં પળમાત્ર, મન જાણું નાણું મા ૯
રસના યુગ્મ હજાર, એ રટતાં હાર્યો મા,
ઇશેં અંશ લગાર લઇ મન્મથ માર્યો મા ૧૦
માર્કંડ મુનિરાય મુખ , માહાત્યમ ભાખ્યું મા,
જૈમિની ઋષિ જેવાય, ઉર અંતર રાખ્યું મા. ૧૧
અણ ગણ ગુણ ગતિ ગોત, ખેલ ખરો ન્યારો મા,
માત જાગતી જ્યોત, ઝળહળતો પારો મા. ૧૨
જશ તૃણવત ગુણગાથ, કહું ઉંડળ ગુંડળ મા,
ભરવા બુદ્ધિ બે હાથ, ઓધામાં ઉંડળ મા. ૧૩
પાઘ નમાવી શીશ, કહું ઘેલું ગાંડુ મા,
માત ન ધરશો રીસ, છો ખોલ્લું ખાંડું મા. ૧૪
આદ્ય નિરંજન એક, અલખ અકળ રાણી મા,
તું થી અવર અનેક, વિસ્તરતાં જાણી મા. ૧૫
શક્તિ સૃજવા સ્રૂષ્ટ, સહજ સ્વભાવ સ્વલ્પ મા,
કિંચિત્ કરુણા દ્રષ્ટ, કૃત કૃત્ય કોટી કલ્પ મા. ૧૬
માતંગી મન મુક્ત, રમવા મન દીધું મા,
જોવા જુક્ત અજુગ્ત, ચૌદ ભુવન કીધું મા. ૧૭
નીર ગગન ભૂ તેજ, સહેજ કરી નીર્મ્યાં મા,
મારુત વશ જે છે જ, ભાંડ જ કરી ભરમ્યા મા. ૧૮
તત્ક્ષણ તનથી દેહ, ત્રણ કરી પેદા મા,
ભવકૃત કર્તા જેહ, સરજે પાળે છેદા મા. ૧૯
પ્રથમ કર્યા ઉચ્ચાર, વેદ ચારે વાયક મા,
ધર્મ સમસ્ત પ્રકાર, ભૂ ભણવા લાયક મા. ૨૦
પ્રગટી પંચ મહાભૂત, અવર સર્વ જે કો મા,
શક્તિ સર્વ સંયુક્ત, શક્તિ વિના નહીં કો મા. ૨૧
મૂળ મહીં મંડાણ, મહા માહેશ્વરી મા,
જુગ સચરાચર જાણ, જય વિશ્વેશ્વરી મા. ૨૨
જડ મધ્યે જડસાંઇ , પોઢયા જગજીવન મા,
બેઠાં અંતરીક્ષ આઇ, ખોળે રાખી તન મા. ૨૩
વ્યોમ વિમાનની વાટ્ય , ઠાઠ ઠઠયો આછો મા,
ઘટ ઘટ સરખો ઘાટ, કાચ બન્યો કાચો મા. ૨૪
અજ રજ ગુણ અવતાર, આકાશે જાણી મા,
ર્નિમિત હિત નરનાર, નખશિખ નારાયણી મા. ૨૫
પન્નગને પશુ પક્ષ , પૃથક પૃથક પ્રાણી મા,
જુગ જુગ માંહિ ઝંખી, રુપે રૃદ્રાણી મા. ૨૬
ચક્ષુ મધ્ય ચૈતન્ય વચ ચાસન ટીકી મા,
જણાવવા જન મન્ય, મધ્ય માત કીકી મા. ૨૭
અણૂચર તૃણચર વાયુ, ચર વારિ ચરતા મા,
ઉદર ઉદર ભરી આયુ, તું ભવની ભર્તા મા. ૨૮
રજો તમો ને સત્વ, ત્રિગુણાત્મા ત્રાતા મા,
ત્રિભુવન તારણ તત્વ, જગ્ત તણી જાતા મા. ૨૯
જ્યાં જયમ ત્યાં ત્યમ રુપ, તેં જ ધર્યું સઘળે મા,
કોટી ધુંવાડે ઘૂપ, કોઇ તુજ કો ન કળે મા. ૩૦
મેરુ શિખર મહી માંહ્ય , ધોળાગઢ પાસે મા,
બાળી બહુચર આય, આદ્ય વસે વાસો મા. ૩૧
ન લ્હે બ્રહ્મા ભેદ, ગુહ્ય ગતિ તાહરી મા,
વાણી વખાણે વેદ, શી જ મતિ માહરી મા. ૩૨
વિષ્ણુ વિમાસી મન્ય, ધન્ય જ ઉચ્ચરિયા મા,
અવર ન તુ જ થી અન્ય, બાળી બહુચરિયા મા. ૩૩
માણે મન માહેશ, માત મયા કીધે મા,
જાણે સુરપતિ શેષ, સહુ તારે લીધે મા. ૩૪
સહસ્ત્ર ફણાધર શેષ, શક્ત શબલ સાધી મા,
નામ ધર્યું નાગેશ, કીર્તિ જ તો વાધી મા. ૩૫
મચ્છ કચ્છ વારાહ, નૃસિંહ વામન થઇ મા,
એ અવતારો તારાહ , તું જ મહાત્યમ મયી મા. ૩૬
પરશુરામ શ્રીરામ રામ, બળી બળ જેહ મા,
બુદ્ધ કલ્કી નામ, દશ વિધ ધારી દેહ મા. ૩૭
મધ્ય મથુરાથી બાળ, ગોકુળ તો પહોત્યું મા,
તેં નાખી મોહજાળ, કોઇ બીજું ન્હોતું મા. ૩૮
કૃષ્ણા કૃષ્ણ અવતાર, કળી કારણ કીધું મા,
ભુક્તિ મુક્તિ દાતાર, થઇ દર્શન દીધું મા. ૩૯
વ્યંઢળને નર નાર, એ પુરુષાં પાંખોં મા,
એ આચાર સંસાર, શ્રુતિ સ્મૃતિએ ભાખું મા. ૪૦
જાણ્યે વ્યંઢળ કાય, જગ્ત કહે જુગ્ત મા,
માત મોટો મહિમાય,ન લ્હે ઇન્દ્ર યુગત મા. ૪૧
મ્હેરામણ મથ મેર, કીધ ઘોર રવૈયો સ્થિર મા,
આકર્ષણ એક તેર, વાસુકિના નેતર મા. ૪૨
સુર સંકટ હરનાર, સેવકને સન્મુખ મા,
અવિગત અગમ અપાર, આનંદ નિધિ સુખ મા. ૪૩
સનકાદિક મુનિ સાથ, સેવી વિવિધ વિધ્યે મા,
આરાધી નવનાથ, ચોર્યાસી સિદ્ધે મા. ૪૪
આઇ અયોધ્યા ઇશ, નામી શિશ વળ્યાં મા,
દશ મસ્તક ભુજ વીસ, છેદી સીત મળ્યા મા. ૪૫
નૃપ ભીમકની કુમારી તમ પૂજ્યે પામી મા,
રુક્ષ્મણી રમણ મુરારી મન ગમતો સ્વામી મા. ૪૬
રાખ્યા પાંડુ કુમાર, છાના સ્ત્રી સંગે મા,
સંવત્સર એક બાર, વામ્યા તમ આંગે મા. ૪૭
બાંધ્યો તન પ્રધ્યુમ્ન , છૂટે નહીં કો થી મા,
સમરી પૂરી સલખન , ગયો કારાગ્રુહથી મા. ૪૮
વેદ પુરાણ પ્રમાણ, શાસ્ત્ર સકલ સાક્ષી મા,
શક્તિ સૃષ્ટિ મંડાણ, સર્વ રહ્યા રાખી મા. ૪૯
જે જે જાગ્યાં જોઇ, ત્યાં ત્યાં તુ તેવી મા,
સમ વિભ્રમ મતિ ખોઇ, કહી ન શકું કેવી મા. ૫૦
ભૂત ભવિષ્ય વર્તમાન, ભગવતી તું ભવની મા,
આદ્ય મધ્ય અવસાન, આકાશે અવની મા. ૫૧
તિમિર હરણ શશીસૂર, તે તહારો ધોખો મા,
અમી અગ્નિ ભરપૂર, થઇ શોખો પોખો મા. ૫૨
ખટ ઋતુ રસ ખટ માસ, દ્વાદશ પ્રતિબન્ધે મા,
અંધકાર ઉજાસ, અનુક્રમ અનુસન્ધે મા. ૫૩
ધરથી પર ધન ધન્ય, ધ્યાન ધર્યે નાવો મા,
પાલણ પ્રજા પર્જન્ય , અણચિંતવ્યા આવો મા. ૫૪
સકલ સ્રુષ્ટી સુખદાયી, પયદધી ધૃત માંહી મા,
સમ ને સર સરસાંઇ, તું વિણ નહીં કાંઇ મા. ૫૫
સુખ દુખ બે સંસાર, તાહરા નિપજાવ્યા મા,
બુદ્ધિ બળ ની બલિહાર, ઘણું ડાહ્યાં વાહ્યાં મા. ૫૬
ક્ષુધા તૃષા નિદ્રાય, લઘુ યૌવન વૃદ્ધા મા,
શાંતિ શૌર્ય ક્ષમાય, તું સઘળે શ્રદ્ધા મા. ૫૭
કામ ક્રોધ મોહ લોભ, મદ મત્સર મમતા મા,
તૃષ્ણા સ્થિરતા ક્ષોભ, શર્મ ધૈર્ય સમતા મા. ૫૮
અર્થ ધર્મ ને કામ, મોક્ષ તું મહંમાયા મા,
વિશ્વ તણો વિશ્રામ, ઉર અંતર છાયા માં. ૫૯
ઉદય ઉદાહરણ અસ્ત, આદ્ય અનાદીની મા,
ભાષા ભૂર સમસ્ત, વાક વિવાદીની મા. ૬૦
હરખ હાસ્ય ઉપહાસ્ , કાવ્ય કવિત વિત તું મા,
ભાવ ભેદ નિજ ભાષ્ય, ભ્રાંતિ ભલી ચિત્ત તું મા. ૬૧
ગીત નૃત્ય વાદીંત્ર , તાલ તાન માને મા,
વાણી વિવિધ વિચિત્ર, ગુણ અગણિત ગાને મા. ૬૨
રતિ રસ વિવિધ વિલાસ, આશ સક્લ જગની મા,
તન મન મધ્યે વાસ, મહંમાયા મગ્ની મા. ૬૩
જાણ્યે અજાણ્યે જગ્ત , બે બાધા જાણે મા,
જીવ સકળ આસક્ત, સહુ સરખા માણે મા. ૬૪
વિવિધ ભોગ મરજાદ, જગ દાખ્યું ચાખ્યું મા,
ઘ્રુત સુરત નિઃસ્વાદ, પદ પોતે રાખ્યું મા. ૬૫
જડ, થડ, શાખા, પત્ર, પુષ્પ ફળે ફળતી મા,
પરમાણુ એક માત્ર, રસ બસ વિચરતી( “નીશી વાસર ચળતી માં” એવો પાઠ ભેદ પણ છે ) મા. ૬૬
નિપટ અટપટી વાત, નામ કહું કોનું મા,
સરજી સાતે ઘાત, માત અધિક સોનું મા. ૬૭
રત્ન, મણિ માણિક્ય, નંગ મુંગીયા મુક્તા મા,
આભા અટળ અધિક્ય , અન્ય ન સંયુક્તા મા. ૬૮
નીલ પીત, આરક્ત, શ્યામ શ્વેત સરખી મા,
ઉભય વ્યક્ત અવ્યક્ત, જગ્ત જશી નિરખી મા. ૬૯
નગ જે અધિકુળ આઠ, હિમાચલ આદ્યે મા,
પવન ગગન ઠઠી ઠાઠ, તુજ રચિતા માધ્યે મા. ૭૦
વાપી કૂપ તળાવ, તું સરિતા સિંધુ મા,
જળ તારણ જયમ નાવ, ત્યમ તારણ બંધુ મા. ૭૧
વનસ્પતિ ભાર અઢાર, ભૂ ઉપર ઊભાં મા,
કૃત્ય ક્રુત્ય તું કીરતાર , કોશ વિધાં કુંભા મા. ૭૨
જડ ચૈતન અભિધાન અંશ અંશધારી મા,
માનવ મોટે માન, એ કરણી તારી મા. ૭૩
વર્ણ ચાર નીજ કર્મ ધર્મ સહિત સ્થાપી મા,
બેને બાર અપર્મ અનુચર વર આપી મા. ૭૪
વાડવ વહ્ની નિવાસ, મુખ માતા પોતે મા,
તૃપ્તે તૃપ્તે ગ્રાસ, માત જગન જોતે મા. ૭૫
લક્ષ ચોર્યાસી જંત, સહુ ત્હારા કીધા મા,
આણ્યો અસુરનો અંત, દણ્ડ ભલા દીધા મા. ૭૬
દુષ્ટ દમ્યા કંઈ વાર, દારુણ દુઃખ દેતાં મા,
દૈત્ય કર્યાં સંહાર, ભાગ યજ્ઞ લેતાં મા. ૭૭
શુદ્ધ કરણ સંસાર, કર ત્રિશુળ લીધું મા,
ભૂમિ તણો શિરભાર, હરવા મન કીધું મા. ૭૮
બહુચર બુદ્ધિ ઉદાર, ખળ ખોળી ખાવા મા,
સંત કરણ ભવપાર, સાદ્ય કર્યે સહાવા મા. ૭૯
અધમ ઓધારણ હાર, આસનથી ઊઠી મા,
રાખણ જુગ વ્યવહાર, બધ્ય બાંધી મુઠ્ઠી મા. ૮૦
આણી મન આનંદ, મહીં માંડયાં પગલાં મા,
તેજ પુંજ રવિ ચંદ્ર , દૈ નાના ડગલાં મા. ૮૧
ભર્યાં કદમ બે ચાર, મદમાતી મદભર મા,
મનમાં કરી વિચાર, તેડાવ્યો અનુચર મા. ૮૨
કુરકટ કરી આરોહ, કરુણાકર ચાલી મા,
નખ, પંખી મય લોહ , પગ પૃથ્વી હાલી મા. ૮૩
ઊડીને આકાશ, થઈ અદ્ભુત આવ્યો મા,
અધક્ષણમાં એક શ્વાસ અવનિતળ લાવ્યો મા. ૮૪
પાપી કરણ નીપ્રાત, પૃથ્વી પડ માંહે મા,
ગોઠયું મન ગુજરાત, ભીલાંભડ માંહે મા. ૮૫
ભોળી ભવાની આય, ભોળાં સો ભાળે મા,
કીધી ધણી કૃપાય, ચુંવાળે આળે મા. ૮૬
નવખંડ ન્યાળી નેઠ, નજર વજ્જર પેઢી મા,
ત્રણ ગામ તરભેટ્ય , ઠેઠ અડી બેઠી મા. ૮૭
સેવક સારણ કાજ, સલખનપુર શેઢે મા,
ઊઠયો એક અવાજ, ડેડાણા નેડે મા. ૮૮
આવ્યો અશર્ણા શર્ણ , અતિ આનંદ ભર્યો મા,
ઉદિત મુદિત રવિકિર્ણ, દસદિશ જશ પ્રસર્યો મા. ૮૯
સકલ સમ્રુધ્ધી સુખમાત, બેઠાં ચિત સ્થિર થઈ મા,
વસુધા મધ્ય વિખ્યાત, વાત્ય વાયુ વિધ ગઈ મા. ૯૦
જાણે જગત બધ્ય જોર, જગજનુની જોખે મા,
અધિક ઉઠયો શોર, વાત કરી ગોંખે મા. ૯૧
ચાર ખૂંટ ચોખાણ, ચર્ચા એ ચાલી મા,
જનજન પ્રતિ મુખવાણ્ય , બહુચર બિરદાળી મા. ૯૨
ઉદો ઉદો જયજય કાર, કીધો નવખંડે મા,
મંગળ વર્ત્યાં ચાર, ચઉદે બ્રહ્મંડે મા. ૯૩
ગાજ્યા સાગર સાત દૂધે મેઘ વુઠયા મા,
અધમ અધર્મ ઉત્પાત, સહુ કીધા જૂઠા મા. ૯૪
હરખ્યાં સુર નર નાગ, મુખ જોઈ માતા નું મા,
અલૌકિક અનુરાગ મન મુનિ સરખાનું મા. ૯૫
નવગ્રહ નમવા કાજ, પાઘ પળી આવ્યા મા,
લુણ ઉવારણ કાજ, મણિમુક્તા લાવ્યાં મા. ૯૬
દશ દિશના દિગ્પાળ દેખી દુઃખ વામ્યા મા,
જન્મ મરણ જંજાળ, જિતી સુખ પામ્યા મા. ૯૭
ગુણ ગંધર્વ જશ ગાન, નૃત્ય કરે રંભા મા,
સુર સ્વર સુણતા કાન, ગત થઈ ગઈ થંભા મા. ૯૮
ગુણનિધિ ગરબો જેહ, બહુચર આપ તણો મા,
ધારે ધરી તે દેહ, સફળ ફરે ફેરો મા. ૯૯
પામે પદારથ પાંચ, શ્રવણે સાંભળતા મા,
ના’વે ઉન્હી આંચ, દાવાનળ બળતા મા. ૧૦૦
સહસ્ર ન ભેદે અંગ, આદ્ય શક્તિ શાખે મા,
નિત્ય નિત્ય નવલે રંગ, શમ દમ મર્મ પાખે મા. ૧૦૧
જળ જે અકળ અઘાત, ઉતારે બેડે મા,
ક્ષણ ક્ષણ નિશદિન પ્રાત: , ભવસંકટ ફેડે મા. ૧૦૨
ભૂત પ્રેત જંભુક વ્યંતર ડાકીની મા,
ના વે આડી અચૂક, સમર્યે શાકીણી મા. ૧૦૩
ચકણ કરણ ગતિ ભંગ ખુંગ પુંગ વાળે મા,
ગુંગ મુંગ મુખ અબધ વ્યાધિ બધી ટાળે મા. ૧૦૪
શેણ વિહોણા નેણ નેહે તું આપે, મા,
પુત્ર વિહોણા કહેણ દૈ મેણા કાપે મા. ૧૦૫
કળી કલ્પતરુ ઝાડ, જે જાણે તૂં ને મા,
ભક્ત લડાવે લાડ, પાડ વિના કેને મા. ૧૦૬
પ્રગટ પુરુષ પુરુષાઈ, તું આલે પળમાં મા,
ઠાલાં ઘેર ઠકુરાઈ, દ્યો દલ હલબલમાં મા. ૧૦૭
નિર્ધનને ધન પાત્ર, કર્તા તૂં છે મા,
રોગ, દોષ દુઃખ માત્ર, હર્તા શું છે મા ? ૧૦૮
હય, ગજ, રથ સુખપાલ, આલ્ય વિના અજરે મા,
બીરદે બહુચર માલ, ન્યાલ કરે નજરે મા. ૧૦૯
ધર્મ ધજા ધન ધાન્ય , ન ટળે ધામ થકી મા,
મહિપતિ મુખ દે માન્ય , માં ના નામ થકી મા. ૧૧૦
નરનારી ધરી દેહ, જે હેતે ગાશે મા,
કુમતિ કર્મ કૃત ખેહ, થઈ ઊડી જાશે મા. ૧૧૧
ભગવતી ગીત ચરિત્ર, જે સુણશે કાને મા,
થઈ કુળ સહિત પવિત્ર, ચડશે વૈમાને મા. ૧૧૨
તું થી નથી કો વસ્ત જેથી તું ને તર્પું મા,
પૂરણ પ્રગટ પ્રસશ્ત, શી ઉપમા અર્પું મા. ૧૧૩
વારંવાર પ્રણામ, કર જોડી કીજે મા,
નિર્મળ નિશ્વળ નામ, જગજનનીનું લીજે મા. ૧૧૪
નમ: ૐ નમ: ૐ જગમાત, નામ સહસ્ત્ર તાહરે મા,
માત તાત ને ભ્રાત તું સર્વે માહરે મા. ૧૧૫
સંવત શત દશ સાત, નવ ફાલ્ગન સુદે મા,
તિથિ તૃતીયા વિખ્યાત, શુભ વાસર બુધે મા. ૧૧૬
રાજનગર નિજ ધામ, પુર નવીન મધ્યે મા,
આઈ આદ્ય વિશ્રામ, જાણે જગ બધ્યે મા. ૧૧૭
કરી દુર્લભ સુલર્ભ, રહું છું છેવાડો મા,
કર જોડી વલ્લભ, કહે ભટ્ટ મેવાડો.૧૧૮
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Gayatri Mantra Indonesian Version
Gayatri Mantra depicted as a song in a Indonesian film.
It is not chanted like a mantra which we normally are accustomed to.
Beautifully sung, good picturisation and soothing too.
Lalita Sahasranama (1000 Names of Divine Mother)
श्री ललिता सहस्त्रनाम का विशेष महत्व है,श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ से इष्टदेवी प्रसन्न हो जाती है और उपासक की कामना को पूर्ण करती है,यदि उपासक नित्य पाठ न कर सके तो पूण्य दिवसों पर संक्रांति पर दीक्षा दिवस पर,पूर्णिमा पर,शुक्रवार को अपने जन्मदिवस पर,t
दक्षिणायन ,उत्तरायण के समय ,नवमी चतुर्दशी आदि को अवश्य पाठ करें।पूर्णिमा के दिन श्री चन्द्र बिम्ब में श्री जी का ध्यान कर पंचोपचार पूजा के उपरान्त पाठ करने से साधक के समस्त रोग नष्ट हो जाते है,और वह दीर्घ आयु होता है, हर पूर्णिमा को यह प्रयोग करने से ये प्रयोग सिद्ध हो जाता है।ज्वर से दुखित मनुष्य के सर पर हाथ रखकर पाठ करने से दुखित मनुष्य का ज्वर दूर हो जाता है, सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित भस्म को धारण करने से सभी रोग नष्ट हो जाते है,इसी प्रकार सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित जल से अभिषेक करने से दुखी मनुष्यो की पीड़ा शांत हो जाती है अथार्त किसी पर कोई ग्रह या भूत,प्रेत चिपट गया हो तो अभिमंत्रित जल के अभिषेक से वे समस्त पीड़ाकारक तत्व दूर भाग जाते है, सुधासागर के मध्य में श्री ललिताम्बा का ध्यान कर पंचोपचार पूजन करके पाठ सुनाने से सर्प आदि की विष पीड़ा भी शांत हो जाती है,वन्ध्या (बाँझ)स्त्री को सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित माखन खिलाने से वह शीघ्र गर्भ धारण करती है,नित्य पाठ करने वाले साधक को देखकर जनता मुग्ध हो जाती है। पाठ करने वाले साधक के शत्रुओं को पक्षीराज भगवान शरभेश्वर नष्ट कर देते है, साधक के विरुद्ध अभिचार करने वाले शत्रु को माँ प्रत्यंगिरा खा जाती है,और साधक को क्रूर दृष्टि से देखने वाले वैरी को मार्तंड भैरव अँधा कर देते है।जो सहस्त्रनाम का पाठ करने वाले साधक की चोरी करता है उसे क्षेत्रपाल भगवान मार देते है।यदि कोई विद्वान विद्वता के घमंड में आकर सहस्त्रनाम के साधक से शास्त्रार्थ करता है तो माँ नकुलीश्वरी उसका वाकस्तम्भन कर देती है,साधक के शत्रु चाहे वो राजा ही क्यों न हो माँ दण्डिनी उसे नष्ट कर देती है।छः मास पर्यंत पाठ करने से साधक के घर में लक्ष्मी स्थिर हो जाती है।एक मास पर्यंत तीन बार पाठ करने से सरस्वती साधक की जिभ्या पर विराजने लगती है।निस्तन्द्र होकर एक पक्ष पर्यंत सहस्त्रनाम का पाठ करने से साधक में वशीकरण शक्ति आ जाती है।सहस्त्रनाम के साधक की दृष्टि पड़ने से पापियों के पाप नष्ट हो जाते है।
अन्न,वस्त्र,धन,धान्य,दान आदि सत्पात्र को ही देना चाहिए।सत्पात्र की परिभाषा-जो श्रीविद्या मंत्रराज को जानता है,नित्य सहस्त्रनाम का पाठ करता है जो प्रतिदिन श्रीचक्रार्चन करता है ,वह संसार में सत्पात्र है।
जो न मंत्रराज को जानता है न सहस्त्रनाम का पाठ करता है वो पशु के समान है उसको दान देना निरर्थक होता है।जो माँ की कृपा अपने ऊपर चाहता है उसे सत्पात्र को ही दान देना चाहिए। जो उपासक श्रीचक्रराज में श्री विद्या माँ का पूजन कर सहस्त्रनाम से पदम्,कमल,गुलाब,तुलसी की मंजरी,चम्पक ,जाती,मल्लिका,कनेर,कुंद, केबड़ा,केशर उत्प्ल, पातल,बिलपत्र,माध्वी,केतिकी ,और अन्य सुंगंधित पुष्पो से माँ का अर्चन करता है उसके पूण्य को भगवान शिव भी नही कह सकते।
जो पूर्णिमा के दिन श्रीचक्रराज में माँ श्रीविद्या का सहस्त्रनाम से अर्चन करता है वो स्वयं श्री ललिताम्बा स्वरूप हो जाता है।महानवमी के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से अर्चन करने से मुक्ति हस्तगत होती है।
शुक्रवार के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से माँ का अर्चन करने वाला अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण कर सब प्रकार के सौभाग्य युक्त पुत्र और पौत्रों से सुशोभित होकर विविध सुखों को भोगता हुआ मुक्ती को प्राप्त होता है। निष्काम पाठ करने से ब्रह्मज्ञान पैदा होता है जिससे साधक आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाता है।सहस्त्रनाम का पाठ करने से धनकामी धन को विद्यार्थी विद्या को यशकामी यश को प्राप्त करता है,धर्मानुष्ठान से रहित पापो की बहुलता से युक्त इस कलियुग में श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ किये बिना जो साधक माँ की कृपा चाहता है वो मुर्ख है,वो बिना नेत्रों से रूप को देखना चाहता है।जो पराम्बा का भक्त बनना चाहता उसे नित्यमेव श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करना चाहिएललिता आत्मा की उल्लासपूर्ण, क्रियाशील और प्रकाशमय अभिव्यक्ति है। मुक्त चेतना जिसमे कोई राग द्वेष नहीं, जो आत्मस्थित है वो स्वतः ही उल्लासपूर्ण, उत्साह से भरी, खिली हुई होती है। ये ललितकाश है।`
ललिता सहस्रनाम में हम देवी माँ के एक हजार नाम जपते हैं। नाम का एक अपना महत्त्व होता है। यदि हम चन्दन के पेड़ को याद करते हैं तो हम उसके इत्र की स्मृति को साथ ले जाते हैं। सहस्रनाम में देवी के प्रत्येक नाम से देवी का कोई गुण या विशेषता बताई जाती है।
ललिता सहस्रनाम के जप से क्या लाभ होता है हमारे जीवन के विभिन्न पड़ावों में बालपन से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था और इसी तरह .. हमारी आवश्यकताएं और इच्छाएं बदलती रहती है। इस सब के साथ हमारी चेतना की अवस्था में भी महती बदलाव होते हैं। जब हम प्रत्येक नाम का जप करते हैं, तब वे गुण हमारी चेतना में जागृत होते हैं और जीवन में आवश्यकतानुसार प्रकट होते हैं।
देवी माँ के नाम के जप से हम अपने भीतर विभिन्न गुणों को जागृत करके उन गुणों को अपने चारों ओर के संसार में प्रकट होते देख और समझ पाने की शक्ति भी पाते हैं। हम सभी अपने प्राचीन ऋषियों के आभारी है जिन्होंने दिव्यता का आराधन उसके संपूर्ण वैविध्य गुणों के साथ किया जिसने हमारे लिए जीवन को पूर्णता से जीने का मार्ग प्रशस्त किया।सहस्रनाम का जप अपने में ही एक पूजा विधि है। ये मन को शुद्ध करके चेतना का उत्थान करता है। इस जप से हमारा चंचल मन शांत होता है। भले ही आधे घंटे के लिए ही सही मन ईश्वर से एक रूप और उनके गुणों के प्रति एकाग्र होता है और भटकना रुक जाता है। ये विश्राम का सामान्य रूप है।
ललितासहस्रनाम में भाषा का सौंदर्य अद्भुत है। भाषा बहुत मोहक है और सामान्य और गहरे अर्थ दोनों ही चित्ताकर्षक हैं। उदहारण के लिए कमलनयन का अर्थ सुन्दर और पवित्र दृष्टि है। कमल कीचड़ में खिलता है। फिर भी ये सुन्दर और पवित्र रहता है। कमलनयन व्यक्ति इस संसार में रहता है और सभी परिस्थितियों में इसकी सुंदरता और पवित्रता को देखता है।
ललिता, पाठक को सहस्रनाम में वर्णित विभिन्न गुणों से पहचान कराकर उनके दोनों प्रकार के (गूढ़ और सामान्य) अर्थों की झलक भी देने के उद्देश्य को पूरा करती है। किसी विशिष्ट गुण के विभिन्न सन्दर्भ को बहुत सुंदर तरीके से पिरोया गया है। जो साथ ही एक ही गुण के विभिन आयाम प्रस्तुत कर देती है।
हमें ये जानना चाहिए कि काम इस धरा पर एक बहुत ही सुन्दर और महान लक्ष्य के लिए आये हैं। जब श्रद्धा और जाग्रति के साथ पाठ किया जाता है, ललिता हमारी चेतना में शुध्दि लाकर हमें सकारात्मकता, क्रियाशीलता और उल्लास का भंडार बना देती है। इसलिए आइये आनंद मय हों और संसार के लिए उल्लास रूप हो जाये।
मुख्यतः श्री विद्या मंत्र दीक्षित व्यक्ति इस सहस्रनाम करने के अधिकारी हैं लेकिन योग्य श्री विद्या गुरु के आदेश पर मंत्र दीक्षित ना हो वे भी कर सकते हैं।
॥ हरिः ॐ ॥
अस्य श्री ललिता सहस्रनाम स्तोत्र मालामन्त्रस्य, वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवता, श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजं, शक्ति कूटेति शक्तिः,कामराजेति कीलकं, मम धर्मार्थ काम मोक्ष चतुर्विध फलपुरुषार्थ सिद्ध्यर्थे ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः॥
॥ ऋष्यादि न्यास ॥(षडांग)
वशिन्यादि वाग्देवता ऋषिभ्यो नमः शिरशे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श) ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवताभ्यो नमः ह्रदये (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)
श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजाय नमः गुह्ये (वाम हस्ते स्पर्श, हस्त प्रक्षालयम)
शक्ति कूटेति शक्तये नमः पाध्यो (द्वयम हस्ते स्पर्श)
कामराजेति कीलकाय नमः नाभौ(दक्षिणा हस्ते स्पर्श)
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः नमः सर्वाँगे (द्वयम हस्ते स्पर्श)
॥ कर न्यास॥
कूटत्रयेण द्विरावृत्या करषडंगौ विधाय
॥ ध्यानं ॥
सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-
त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।
पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं
सौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥
॥ लमित्यादि पञ्च्हपूजां विभावयेत् ॥
लं पृथिवी तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै गन्धं परिकल्पयामि
हम् आकाश तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै पुष्पं परिकल्पयामि
यं वायु तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै धूपं परिकल्पयामि
रं वह्नि तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै दीपं परिकल्पयामि
वम् अमृत तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै अमृत नैवेद्यं परिकल्पयामि
सं सर्व तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै ताम्बूलादि सर्वोपचारान् परिकल्पयामि
गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुर्स्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
॥ हरिः ॐ ॥
श्री माता, श्री महाराज्ञी, श्रीमत्-सिंहासनेश्वरी ।
चिदग्नि कुण्डसम्भूता, देवकार्यसमुद्यता ॥ 1 ॥
उद्यद्भानु सहस्राभा, चतुर्बाहु समन्विता ।
रागस्वरूप पाशाढ्या, क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला ॥ 2 ॥
मनोरूपेक्षुकोदण्डा, पञ्चतन्मात्र सायका ।
निजारुण प्रभापूर मज्जद्-ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 3 ॥
चम्पकाशोक पुन्नाग सौगन्धिक लसत्कचा
कुरुविन्द मणिश्रेणी कनत्कोटीर मण्डिता ॥ 4 ॥
अष्टमी चन्द्र विभ्राज दलिकस्थल शोभिता ।
मुखचन्द्र कलङ्काभ मृगनाभि विशेषका ॥ 5 ॥
वदनस्मर माङ्गल्य गृहतोरण चिल्लिका ।
वक्त्रलक्ष्मी परीवाह चलन्मीनाभ लोचना ॥ 6 ॥
नवचम्पक पुष्पाभ नासादण्ड विराजिता ।
ताराकान्ति तिरस्कारि नासाभरण भासुरा ॥ 7 ॥
कदम्ब मञ्जरीक्लुप्त कर्णपूर मनोहरा ।
ताटङ्क युगलीभूत तपनोडुप मण्डला ॥ 8 ॥
पद्मराग शिलादर्श परिभावि कपोलभूः ।
नवविद्रुम बिम्बश्रीः न्यक्कारि रदनच्छदा ॥ 9 ॥
शुद्ध विद्याङ्कुराकार द्विजपङ्क्ति द्वयोज्ज्वला ।
कर्पूरवीटि कामोद समाकर्ष द्दिगन्तरा ॥ 10 ॥
निजसल्लाप माधुर्य विनिर्भर्-त्सित कच्छपी ।
मन्दस्मित प्रभापूर मज्जत्-कामेश मानसा ॥ 11 ॥
अनाकलित सादृश्य चुबुक श्री विराजिता ।
कामेशबद्ध माङ्गल्य सूत्रशोभित कन्थरा ॥ 12 ॥
कनकाङ्गद केयूर कमनीय भुजान्विता ।
रत्नग्रैवेय चिन्ताक लोलमुक्ता फलान्विता ॥ 13 ॥
कामेश्वर प्रेमरत्न मणि प्रतिपणस्तनी।
नाभ्यालवाल रोमालि लताफल कुचद्वयी ॥ 14 ॥
लक्ष्यरोमलता धारता समुन्नेय मध्यमा ।
स्तनभार दलन्-मध्य पट्टबन्ध वलित्रया ॥ 15 ॥
अरुणारुण कौसुम्भ वस्त्र भास्वत्-कटीतटी ।
रत्नकिङ्किणि कारम्य रशनादाम भूषिता ॥ 16 ॥
कामेश ज्ञात सौभाग्य मार्दवोरु द्वयान्विता ।
माणिक्य मकुटाकार जानुद्वय विराजिता ॥ 17 ॥
इन्द्रगोप परिक्षिप्त स्मर तूणाभ जङ्घिका ।
गूढगुल्भा कूर्मपृष्ठ जयिष्णु प्रपदान्विता ॥ 18 ॥
नखदीधिति संछन्न नमज्जन तमोगुणा ।
पदद्वय प्रभाजाल पराकृत सरोरुहा ॥ 19 ॥
शिञ्जान मणिमञ्जीर मण्डित श्री पदाम्बुजा ।
मराली मन्दगमना, महालावण्य शेवधिः ॥ 20 ॥
सर्वारुणानवद्याङ्गी सर्वाभरण भूषिता ।
शिवकामेश्वराङ्कस्था, शिवा, स्वाधीन वल्लभा ॥ 21 ॥
सुमेरु मध्यशृङ्गस्था, श्रीमन्नगर नायिका ।
चिन्तामणि गृहान्तस्था, पञ्चब्रह्मासनस्थिता ॥ 22 ॥
महापद्माटवी संस्था, कदम्ब वनवासिनी ।
सुधासागर मध्यस्था, कामाक्षी कामदायिनी ॥ 23 ॥
देवर्षि गणसङ्घात स्तूयमानात्म वैभवा ।
भण्डासुर वधोद्युक्त शक्तिसेना समन्विता ॥ 24 ॥
सम्पत्करी समारूढ सिन्धुर व्रजसेविता ।
अश्वारूढाधिष्ठिताश्व कोटिकोटि भिरावृता ॥ 25 ॥
चक्रराज रथारूढ सर्वायुध परिष्कृता ।
गेयचक्र रथारूढ मन्त्रिणी परिसेविता ॥ 26 ॥
किरिचक्र रथारूढ दण्डनाथा पुरस्कृता ।
ज्वालामालिनि काक्षिप्त वह्निप्राकार मध्यगा ॥ 27 ॥
भण्डसैन्य वधोद्युक्त शक्ति विक्रमहर्षिता ।
नित्या पराक्रमाटोप निरीक्षण समुत्सुका ॥ 28 ॥
भण्डपुत्र वधोद्युक्त बालाविक्रम नन्दिता ।
मन्त्रिण्यम्बा विरचित विषङ्ग वधतोषिता ॥ 29 ॥
विशुक्र प्राणहरण वाराही वीर्यनन्दिता ।
कामेश्वर मुखालोक कल्पित श्री गणेश्वरा ॥ 30 ॥
महागणेश निर्भिन्न विघ्नयन्त्र प्रहर्षिता ।
भण्डासुरेन्द्र निर्मुक्त शस्त्र प्रत्यस्त्र वर्षिणी ॥ 31 ॥
कराङ्गुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृतिः ।
महापाशुपतास्त्राग्नि निर्दग्धासुर सैनिका ॥ 32 ॥
कामेश्वरास्त्र निर्दग्ध सभण्डासुर शून्यका ।
ब्रह्मोपेन्द्र महेन्द्रादि देवसंस्तुत वैभवा ॥ 33 ॥
हरनेत्राग्नि सन्दग्ध काम सञ्जीवनौषधिः ।
श्रीमद्वाग्भव कूटैक स्वरूप मुखपङ्कजा ॥ 34 ॥
कण्ठाधः कटिपर्यन्त मध्यकूट स्वरूपिणी ।
शक्तिकूटैक तापन्न कट्यथोभाग धारिणी ॥ 35 ॥
मूलमन्त्रात्मिका, मूलकूट त्रय कलेबरा ।
कुलामृतैक रसिका, कुलसङ्केत पालिनी ॥ 36 ॥
कुलाङ्गना, कुलान्तःस्था, कौलिनी, कुलयोगिनी ।
अकुला, समयान्तःस्था, समयाचार तत्परा ॥ 37 ॥
मूलाधारैक निलया, ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी ।
मणिपूरान्त रुदिता, विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ॥ 38 ॥
आज्ञा चक्रान्तरालस्था, रुद्रग्रन्थि विभेदिनी ।
सहस्राराम्बुजा रूढा, सुधासाराभि वर्षिणी ॥ 39 ॥
तटिल्लता समरुचिः, षट्-चक्रोपरि संस्थिता ।
महाशक्तिः, कुण्डलिनी, बिसतन्तु तनीयसी ॥ 40 ॥
भवानी, भावनागम्या, भवारण्य कुठारिका ।
भद्रप्रिया, भद्रमूर्ति, र्भक्तसौभाग्य दायिनी ॥ 41 ॥
भक्तिप्रिया, भक्तिगम्या, भक्तिवश्या, भयापहा ।
शाम्भवी, शारदाराध्या, शर्वाणी, शर्मदायिनी ॥ 42 ॥
शाङ्करी, श्रीकरी, साध्वी, शरच्चन्द्रनिभानना ।
शातोदरी, शान्तिमती, निराधारा, निरञ्जना ॥ 43 ॥
निर्लेपा, निर्मला, नित्या, निराकारा, निराकुला ।
निर्गुणा, निष्कला, शान्ता, निष्कामा, निरुपप्लवा ॥ 44 ॥
नित्यमुक्ता, निर्विकारा, निष्प्रपञ्चा, निराश्रया ।
नित्यशुद्धा, नित्यबुद्धा, निरवद्या, निरन्तरा ॥ 45 ॥
निष्कारणा, निष्कलङ्का, निरुपाधि, र्निरीश्वरा ।
नीरागा, रागमथनी, निर्मदा, मदनाशिनी ॥ 46 ॥
निश्चिन्ता, निरहङ्कारा, निर्मोहा, मोहनाशिनी ।
निर्ममा, ममताहन्त्री, निष्पापा, पापनाशिनी ॥ 47 ॥
निष्क्रोधा, क्रोधशमनी, निर्लोभा, लोभनाशिनी ।
निःसंशया, संशयघ्नी, निर्भवा, भवनाशिनी ॥ 48 ॥
निर्विकल्पा, निराबाधा, निर्भेदा, भेदनाशिनी ।
निर्नाशा, मृत्युमथनी, निष्क्रिया, निष्परिग्रहा ॥ 49 ॥
निस्तुला, नीलचिकुरा, निरपाया, निरत्यया ।
दुर्लभा, दुर्गमा, दुर्गा, दुःखहन्त्री, सुखप्रदा ॥ 50 ॥
दुष्टदूरा, दुराचार शमनी, दोषवर्जिता ।
सर्वज्ञा, सान्द्रकरुणा, समानाधिकवर्जिता ॥ 51 ॥
सर्वशक्तिमयी, सर्वमङ्गला, सद्गतिप्रदा ।
सर्वेश्वरी, सर्वमयी, सर्वमन्त्र स्वरूपिणी ॥ 52 ॥
सर्वयन्त्रात्मिका, सर्वतन्त्ररूपा, मनोन्मनी ।
माहेश्वरी, महादेवी, महालक्ष्मी, र्मृडप्रिया ॥ 53 ॥
महारूपा, महापूज्या, महापातक नाशिनी ।
महामाया, महासत्त्वा, महाशक्ति र्महारतिः ॥ 54 ॥
महाभोगा, महैश्वर्या, महावीर्या, महाबला ।
महाबुद्धि, र्महासिद्धि, र्महायोगेश्वरेश्वरी ॥ 55 ॥
महातन्त्रा, महामन्त्रा, महायन्त्रा, महासना ।
महायाग क्रमाराध्या, महाभैरव पूजिता ॥ 56 ॥
महेश्वर महाकल्प महाताण्डव साक्षिणी ।
महाकामेश महिषी, महात्रिपुर सुन्दरी ॥ 57 ॥
चतुःषष्ट्युपचाराढ्या, चतुष्षष्टि कलामयी ।
महा चतुष्षष्टि कोटि योगिनी गणसेविता ॥ 58 ॥
मनुविद्या, चन्द्रविद्या, चन्द्रमण्डलमध्यगा ।
चारुरूपा, चारुहासा, चारुचन्द्र कलाधरा ॥ 59 ॥
चराचर जगन्नाथा, चक्रराज निकेतना ।
पार्वती, पद्मनयना, पद्मराग समप्रभा ॥ 60 ॥
पञ्चप्रेतासनासीना, पञ्चब्रह्म स्वरूपिणी ।
चिन्मयी, परमानन्दा, विज्ञान घनरूपिणी ॥ 61 ॥
ध्यानध्यातृ ध्येयरूपा, धर्माधर्म विवर्जिता ।
विश्वरूपा, जागरिणी, स्वपन्ती, तैजसात्मिका ॥ 62 ॥
सुप्ता, प्राज्ञात्मिका, तुर्या, सर्वावस्था विवर्जिता ।
सृष्टिकर्त्री, ब्रह्मरूपा, गोप्त्री, गोविन्दरूपिणी ॥ 63 ॥
संहारिणी, रुद्ररूपा, तिरोधानकरीश्वरी ।
सदाशिवानुग्रहदा, पञ्चकृत्य परायणा ॥ 64 ॥
भानुमण्डल मध्यस्था, भैरवी, भगमालिनी ।
पद्मासना, भगवती, पद्मनाभ सहोदरी ॥ 65 ॥
उन्मेष निमिषोत्पन्न विपन्न भुवनावलिः ।
सहस्रशीर्षवदना, सहस्राक्षी, सहस्रपात् ॥ 66 ॥
आब्रह्म कीटजननी, वर्णाश्रम विधायिनी ।
निजाज्ञारूपनिगमा, पुण्यापुण्य फलप्रदा ॥ 67 ॥
श्रुति सीमन्त सिन्धूरीकृत पादाब्जधूलिका ।
सकलागम सन्दोह शुक्तिसम्पुट मौक्तिका ॥ 68 ॥
पुरुषार्थप्रदा, पूर्णा, भोगिनी, भुवनेश्वरी ।
अम्बिका, नादि निधना, हरिब्रह्मेन्द्र सेविता ॥ 69 ॥
नारायणी, नादरूपा, नामरूप विवर्जिता ।
ह्रीङ्कारी, ह्रीमती, हृद्या, हेयोपादेय वर्जिता ॥ 70 ॥
राजराजार्चिता, राज्ञी, रम्या, राजीवलोचना ।
रञ्जनी, रमणी, रस्या, रणत्किङ्किणि मेखला ॥ 71 ॥
रमा, राकेन्दुवदना, रतिरूपा, रतिप्रिया ।
रक्षाकरी, राक्षसघ्नी, रामा, रमणलम्पटा ॥ 72 ॥
काम्या, कामकलारूपा, कदम्ब कुसुमप्रिया ।
कल्याणी, जगतीकन्दा, करुणारस सागरा ॥ 73 ॥
कलावती, कलालापा, कान्ता, कादम्बरीप्रिया ।
वरदा, वामनयना, वारुणीमदविह्वला ॥ 74 ॥
विश्वाधिका, वेदवेद्या, विन्ध्याचल निवासिनी ।
विधात्री, वेदजननी, विष्णुमाया, विलासिनी ॥ 75 ॥
क्षेत्रस्वरूपा, क्षेत्रेशी, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पालिनी ।
क्षयवृद्धि विनिर्मुक्ता, क्षेत्रपाल समर्चिता ॥ 76 ॥
विजया, विमला, वन्द्या, वन्दारु जनवत्सला ।
वाग्वादिनी, वामकेशी, वह्निमण्डल वासिनी ॥ 77 ॥
भक्तिमत्-कल्पलतिका, पशुपाश विमोचनी ।
संहृताशेष पाषण्डा, सदाचार प्रवर्तिका ॥ 78 ॥
तापत्रयाग्नि सन्तप्त समाह्लादन चन्द्रिका ।
तरुणी, तापसाराध्या, तनुमध्या, तमोपहा ॥ 79 ॥
चिति, स्तत्पदलक्ष्यार्था, चिदेक रसरूपिणी ।
स्वात्मानन्दलवीभूत ब्रह्माद्यानन्द सन्ततिः ॥ 80 ॥
परा, प्रत्यक्चिती रूपा, पश्यन्ती, परदेवता ।
मध्यमा, वैखरीरूपा, भक्तमानस हंसिका ॥ 81 ॥
कामेश्वर प्राणनाडी, कृतज्ञा, कामपूजिता ।
शृङ्गार रससम्पूर्णा, जया, जालन्धरस्थिता ॥ 82 ॥
ओड्याण पीठनिलया, बिन्दुमण्डल वासिनी ।
रहोयाग क्रमाराध्या, रहस्तर्पण तर्पिता ॥ 83 ॥
सद्यः प्रसादिनी, विश्वसाक्षिणी, साक्षिवर्जिता ।
षडङ्गदेवता युक्ता, षाड्गुण्य परिपूरिता ॥ 84 ॥
नित्यक्लिन्ना, निरुपमा, निर्वाण सुखदायिनी ।
नित्या, षोडशिकारूपा, श्रीकण्ठार्ध शरीरिणी ॥ 85 ॥
प्रभावती, प्रभारूपा, प्रसिद्धा, परमेश्वरी ।
मूलप्रकृति रव्यक्ता, व्यक्ताव्यक्त स्वरूपिणी ॥ 86 ॥
व्यापिनी, विविधाकारा, विद्याविद्या स्वरूपिणी ।
महाकामेश नयना, कुमुदाह्लाद कौमुदी ॥ 87 ॥
भक्तहार्द तमोभेद भानुमद्-भानुसन्ततिः ।
शिवदूती, शिवाराध्या, शिवमूर्ति, श्शिवङ्करी ॥ 88 ॥
शिवप्रिया, शिवपरा, शिष्टेष्टा, शिष्टपूजिता ।
अप्रमेया, स्वप्रकाशा, मनोवाचाम गोचरा ॥ 89 ॥
चिच्छक्ति, श्चेतनारूपा, जडशक्ति, र्जडात्मिका ।
गायत्री, व्याहृति, स्सन्ध्या, द्विजबृन्द निषेविता ॥ 90 ॥
तत्त्वासना, तत्त्वमयी, पञ्चकोशान्तरस्थिता ।
निस्सीममहिमा, नित्ययौवना, मदशालिनी ॥ 91 ॥
मदघूर्णित रक्ताक्षी, मदपाटल गण्डभूः ।
चन्दन द्रवदिग्धाङ्गी, चाम्पेय कुसुम प्रिया ॥ 92 ॥
कुशला, कोमलाकारा, कुरुकुल्ला, कुलेश्वरी ।
कुलकुण्डालया, कौल मार्गतत्पर सेविता ॥ 93 ॥
कुमार गणनाथाम्बा, तुष्टिः, पुष्टि, र्मति, र्धृतिः ।
शान्तिः, स्वस्तिमती, कान्ति, र्नन्दिनी, विघ्ननाशिनी ॥ 94 ॥
तेजोवती, त्रिनयना, लोलाक्षी कामरूपिणी ।
मालिनी, हंसिनी, माता, मलयाचल वासिनी ॥ 95 ॥
सुमुखी, नलिनी, सुभ्रूः, शोभना, सुरनायिका ।
कालकण्ठी, कान्तिमती, क्षोभिणी, सूक्ष्मरूपिणी ॥ 96 ॥
वज्रेश्वरी, वामदेवी, वयोஉवस्था विवर्जिता ।
सिद्धेश्वरी, सिद्धविद्या, सिद्धमाता, यशस्विनी ॥ 97 ॥
विशुद्धि चक्रनिलया,रक्तवर्णा, त्रिलोचना ।
खट्वाङ्गादि प्रहरणा, वदनैक समन्विता ॥ 98 ॥
पायसान्नप्रिया, त्वक्स्था, पशुलोक भयङ्करी ।
अमृतादि महाशक्ति संवृता, डाकिनीश्वरी ॥ 99 ॥
अनाहताब्ज निलया, श्यामाभा, वदनद्वया ।
दंष्ट्रोज्ज्वला,क्षमालाधिधरा, रुधिर संस्थिता ॥ 100 ॥
कालरात्र्यादि शक्त्योघवृता, स्निग्धौदनप्रिया ।
महावीरेन्द्र वरदा, राकिण्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 101 ॥
मणिपूराब्ज निलया, वदनत्रय संयुता ।
वज्राधिकायुधोपेता, डामर्यादिभि रावृता ॥ 102 ॥
रक्तवर्णा, मांसनिष्ठा, गुडान्न प्रीतमानसा ।
समस्त भक्तसुखदा, लाकिन्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 103 ॥
स्वाधिष्ठानाम्बु जगता, चतुर्वक्त्र मनोहरा ।
शूलाद्यायुध सम्पन्ना, पीतवर्णा,तिगर्विता ॥ 104 ॥
मेदोनिष्ठा, मधुप्रीता, बन्दिन्यादि समन्विता ।
दध्यन्नासक्त हृदया, काकिनी रूपधारिणी ॥ 105 ॥
मूला धाराम्बुजारूढा, पञ्चवक्त्रा,स्थिसंस्थिता ।
अङ्कुशादि प्रहरणा, वरदादि निषेविता ॥ 106 ॥
मुद्गौदनासक्त चित्ता, साकिन्यम्बास्वरूपिणी ।
आज्ञा चक्राब्जनिलया, शुक्लवर्णा, षडानना ॥ 107 ॥
मज्जासंस्था, हंसवती मुख्यशक्ति समन्विता ।
हरिद्रान्नैक रसिका, हाकिनी रूपधारिणी ॥ 108 ॥
सहस्रदल पद्मस्था, सर्ववर्णोप शोभिता ।
सर्वायुधधरा, शुक्ल संस्थिता, सर्वतोमुखी ॥ 109 ॥
सर्वौदन प्रीतचित्ता, याकिन्यम्बा स्वरूपिणी ।
स्वाहा, स्वधा,मति, र्मेधा, श्रुतिः, स्मृति, रनुत्तमा ॥ 110 ॥
पुण्यकीर्तिः, पुण्यलभ्या, पुण्यश्रवण कीर्तना ।
पुलोमजार्चिता, बन्धमोचनी, बन्धुरालका ॥ 111 ॥
विमर्शरूपिणी, विद्या, वियदादि जगत्प्रसूः ।
सर्वव्याधि प्रशमनी, सर्वमृत्यु निवारिणी ॥ 112 ॥
अग्रगण्या,चिन्त्यरूपा, कलिकल्मष नाशिनी ।
कात्यायिनी, कालहन्त्री, कमलाक्ष निषेविता ॥ 113 ॥
ताम्बूल पूरित मुखी, दाडिमी कुसुमप्रभा ।
मृगाक्षी, मोहिनी, मुख्या, मृडानी, मित्ररूपिणी ॥ 114 ॥
नित्यतृप्ता, भक्तनिधि, र्नियन्त्री, निखिलेश्वरी ।
मैत्र्यादि वासनालभ्या, महाप्रलय साक्षिणी ॥ 115 ॥
पराशक्तिः, परानिष्ठा, प्रज्ञान घनरूपिणी ।
माध्वीपानालसा, मत्ता, मातृका वर्ण रूपिणी ॥ 116 ॥
महाकैलास निलया, मृणाल मृदुदोर्लता ।
महनीया, दयामूर्ती, र्महासाम्राज्यशालिनी ॥ 117 ॥
आत्मविद्या, महाविद्या, श्रीविद्या, कामसेविता ।
श्रीषोडशाक्षरी विद्या, त्रिकूटा, कामकोटिका ॥ 118 ॥
कटाक्षकिङ्करी भूत कमला कोटिसेविता ।
शिरःस्थिता, चन्द्रनिभा, फालस्थेन्द्र धनुःप्रभा ॥ 119 ॥
हृदयस्था, रविप्रख्या, त्रिकोणान्तर दीपिका ।
दाक्षायणी, दैत्यहन्त्री, दक्षयज्ञ विनाशिनी ॥ 120 ॥
दरान्दोलित दीर्घाक्षी, दरहासोज्ज्वलन्मुखी ।
गुरुमूर्ति, र्गुणनिधि, र्गोमाता, गुहजन्मभूः ॥ 121 ॥
देवेशी, दण्डनीतिस्था, दहराकाश रूपिणी ।
प्रतिपन्मुख्य राकान्त तिथिमण्डल पूजिता ॥ 122 ॥
कलात्मिका, कलानाथा, काव्यालाप विनोदिनी ।
सचामर रमावाणी सव्यदक्षिण सेविता ॥ 123 ॥
आदिशक्ति, रमेयात्मा, परमा, पावनाकृतिः ।
अनेककोटि ब्रह्माण्ड जननी, दिव्यविग्रहा ॥ 124 ॥
क्लीङ्कारी, केवला, गुह्या, कैवल्य पददायिनी ।
त्रिपुरा, त्रिजगद्वन्द्या, त्रिमूर्ति, स्त्रिदशेश्वरी ॥ 125 ॥
त्र्यक्षरी, दिव्यगन्धाढ्या, सिन्धूर तिलकाञ्चिता ।
उमा, शैलेन्द्रतनया, गौरी, गन्धर्व सेविता ॥ 126 ॥
विश्वगर्भा, स्वर्णगर्भा,உवरदा वागधीश्वरी ।
ध्यानगम्या, परिच्छेद्या, ज्ञानदा, ज्ञानविग्रहा ॥ 127 ॥
सर्ववेदान्त संवेद्या, सत्यानन्द स्वरूपिणी ।
लोपामुद्रार्चिता, लीलाक्लुप्त ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 128 ॥
अदृश्या, दृश्यरहिता, विज्ञात्री, वेद्यवर्जिता ।
योगिनी, योगदा, योग्या, योगानन्दा, युगन्धरा ॥ 129 ॥
इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति स्वरूपिणी ।
सर्वधारा, सुप्रतिष्ठा, सदसद्-रूपधारिणी ॥ 130 ॥
अष्टमूर्ति, रजाजैत्री, लोकयात्रा विधायिनी ।
एकाकिनी, भूमरूपा, निर्द्वैता, द्वैतवर्जिता ॥ 131 ॥
अन्नदा, वसुदा, वृद्धा, ब्रह्मात्मैक्य स्वरूपिणी ।
बृहती, ब्राह्मणी, ब्राह्मी, ब्रह्मानन्दा, बलिप्रिया ॥ 132 ॥
भाषारूपा, बृहत्सेना, भावाभाव विवर्जिता ।
सुखाराध्या, शुभकरी, शोभना सुलभागतिः ॥ 133 ॥
राजराजेश्वरी, राज्यदायिनी, राज्यवल्लभा ।
राजत्-कृपा, राजपीठ निवेशित निजाश्रिताः ॥ 134 ॥
राज्यलक्ष्मीः, कोशनाथा, चतुरङ्ग बलेश्वरी ।
साम्राज्यदायिनी, सत्यसन्धा, सागरमेखला ॥ 135 ॥
दीक्षिता, दैत्यशमनी, सर्वलोक वशङ्करी ।
सर्वार्थदात्री, सावित्री, सच्चिदानन्द रूपिणी ॥ 136 ॥
देशकाला परिच्छिन्ना, सर्वगा, सर्वमोहिनी ।
सरस्वती, शास्त्रमयी, गुहाम्बा, गुह्यरूपिणी ॥ 137 ॥
सर्वोपाधि विनिर्मुक्ता, सदाशिव पतिव्रता ।
सम्प्रदायेश्वरी, साध्वी, गुरुमण्डल रूपिणी ॥ 138 ॥
कुलोत्तीर्णा, भगाराध्या, माया, मधुमती, मही ।
गणाम्बा, गुह्यकाराध्या, कोमलाङ्गी, गुरुप्रिया ॥ 139 ॥
स्वतन्त्रा, सर्वतन्त्रेशी, दक्षिणामूर्ति रूपिणी ।
सनकादि समाराध्या, शिवज्ञान प्रदायिनी ॥ 140 ॥
चित्कला, नन्दकलिका, प्रेमरूपा, प्रियङ्करी ।
नामपारायण प्रीता, नन्दिविद्या, नटेश्वरी ॥ 141 ॥
मिथ्या जगदधिष्ठाना मुक्तिदा, मुक्तिरूपिणी ।
लास्यप्रिया, लयकरी, लज्जा, रम्भादि वन्दिता ॥ 142 ॥
भवदाव सुधावृष्टिः, पापारण्य दवानला ।
दौर्भाग्यतूल वातूला, जराध्वान्त रविप्रभा ॥ 143 ॥
भाग्याब्धिचन्द्रिका, भक्तचित्तकेकि घनाघना ।
रोगपर्वत दम्भोलि, र्मृत्युदारु कुठारिका ॥ 144 ॥
महेश्वरी, महाकाली, महाग्रासा, महाஉशना ।
अपर्णा, चण्डिका, चण्ड मुण्डासुर निषूदिनी ॥ 145 ॥
क्षराक्षरात्मिका, सर्वलोकेशी, विश्वधारिणी ।
त्रिवर्गदात्री, सुभगा, त्र्यम्बका, त्रिगुणात्मिका ॥ 146 ॥
स्वर्गापवर्गदा, शुद्धा, जपापुष्प निभाकृतिः ।
ओजोवती, द्युतिधरा, यज्ञरूपा, प्रियव्रता ॥ 147 ॥
दुराराध्या, दुरादर्षा, पाटली कुसुमप्रिया ।
महती, मेरुनिलया, मन्दार कुसुमप्रिया ॥ 148 ॥
वीराराध्या, विराड्रूपा, विरजा, विश्वतोमुखी ।
प्रत्यग्रूपा, पराकाशा, प्राणदा, प्राणरूपिणी ॥ 149 ॥
मार्ताण्ड भैरवाराध्या, मन्त्रिणी न्यस्तराज्यधूः ।
त्रिपुरेशी, जयत्सेना, निस्त्रैगुण्या, परापरा ॥ 150 ॥
सत्यज्ञानाஉनन्दरूपा, सामरस्य परायणा ।
कपर्दिनी, कलामाला, कामधुक्,कामरूपिणी ॥ 151 ॥
कलानिधिः, काव्यकला, रसज्ञा, रसशेवधिः ।
पुष्टा, पुरातना, पूज्या, पुष्करा, पुष्करेक्षणा ॥ 152 ॥
परञ्ज्योतिः, परन्धाम, परमाणुः, परात्परा ।
पाशहस्ता, पाशहन्त्री, परमन्त्र विभेदिनी ॥ 153 ॥
मूर्ता, मूर्ता, नित्यतृप्ता, मुनि मानस हंसिका ।
सत्यव्रता, सत्यरूपा, सर्वान्तर्यामिनी, सती ॥ 154 ॥
ब्रह्माणी, ब्रह्मजननी, बहुरूपा, बुधार्चिता ।
प्रसवित्री, प्रचण्डाज्ञा, प्रतिष्ठा, प्रकटाकृतिः ॥ 155 ॥
प्राणेश्वरी, प्राणदात्री, पञ्चाशत्-पीठरूपिणी ।
विशृङ्खला, विविक्तस्था, वीरमाता, वियत्प्रसूः ॥ 156 ॥
मुकुन्दा, मुक्ति निलया, मूलविग्रह रूपिणी ।
भावज्ञा, भवरोगघ्नी भवचक्र प्रवर्तिनी ॥ 157 ॥
छन्दस्सारा, शास्त्रसारा, मन्त्रसारा, तलोदरी ।
उदारकीर्ति, रुद्दामवैभवा, वर्णरूपिणी ॥ 158 ॥
जन्ममृत्यु जरातप्त जन विश्रान्ति दायिनी ।
सर्वोपनिष दुद्घुष्टा, शान्त्यतीत कलात्मिका ॥ 159 ॥
गम्भीरा, गगनान्तःस्था, गर्विता, गानलोलुपा ।
कल्पनारहिता, काष्ठा, कान्ता, कान्तार्ध विग्रहा ॥ 160 ॥
कार्यकारण निर्मुक्ता, कामकेलि तरङ्गिता ।
कनत्-कनकताटङ्का, लीलाविग्रह धारिणी ॥ 161 ॥
अजाक्षय विनिर्मुक्ता, मुग्धा क्षिप्रप्रसादिनी ।
अन्तर्मुख समाराध्या, बहिर्मुख सुदुर्लभा ॥ 162 ॥
त्रयी, त्रिवर्ग निलया, त्रिस्था, त्रिपुरमालिनी ।
निरामया, निरालम्बा, स्वात्मारामा, सुधासृतिः ॥ 163 ॥
संसारपङ्क निर्मग्न समुद्धरण पण्डिता ।
यज्ञप्रिया, यज्ञकर्त्री, यजमान स्वरूपिणी ॥ 164 ॥
धर्माधारा, धनाध्यक्षा, धनधान्य विवर्धिनी ।
विप्रप्रिया, विप्ररूपा, विश्वभ्रमण कारिणी ॥ 165 ॥
विश्वग्रासा, विद्रुमाभा, वैष्णवी, विष्णुरूपिणी ।
अयोनि, र्योनिनिलया, कूटस्था, कुलरूपिणी ॥ 166 ॥
वीरगोष्ठीप्रिया, वीरा, नैष्कर्म्या, नादरूपिणी ।
विज्ञान कलना, कल्या विदग्धा, बैन्दवासना ॥ 167 ॥
तत्त्वाधिका, तत्त्वमयी, तत्त्वमर्थ स्वरूपिणी ।
सामगानप्रिया, सौम्या, सदाशिव कुटुम्बिनी ॥ 168 ॥
सव्यापसव्य मार्गस्था, सर्वापद्वि निवारिणी ।
स्वस्था, स्वभावमधुरा, धीरा, धीर समर्चिता ॥ 169 ॥
चैतन्यार्घ्य समाराध्या, चैतन्य कुसुमप्रिया ।
सदोदिता, सदातुष्टा, तरुणादित्य पाटला ॥ 170 ॥
दक्षिणा, दक्षिणाराध्या, दरस्मेर मुखाम्बुजा ।
कौलिनी केवला, नर्घ्या कैवल्य पददायिनी ॥ 171 ॥
स्तोत्रप्रिया, स्तुतिमती, श्रुतिसंस्तुत वैभवा ।
मनस्विनी, मानवती, महेशी, मङ्गलाकृतिः ॥ 172 ॥
विश्वमाता, जगद्धात्री, विशालाक्षी, विरागिणी।
प्रगल्भा, परमोदारा, परामोदा, मनोमयी ॥ 173 ॥
व्योमकेशी, विमानस्था, वज्रिणी, वामकेश्वरी ।
पञ्चयज्ञप्रिया, पञ्चप्रेत मञ्चाधिशायिनी ॥ 174 ॥
पञ्चमी, पञ्चभूतेशी, पञ्च सङ्ख्योपचारिणी ।
शाश्वती, शाश्वतैश्वर्या, शर्मदा, शम्भुमोहिनी ॥ 175 ॥
धरा, धरसुता, धन्या, धर्मिणी, धर्मवर्धिनी ।
लोकातीता, गुणातीता, सर्वातीता, शमात्मिका ॥ 176 ॥
बन्धूक कुसुम प्रख्या, बाला, लीलाविनोदिनी ।
सुमङ्गली, सुखकरी, सुवेषाड्या, सुवासिनी ॥ 177 ॥
सुवासिन्यर्चनप्रीता, शोभना, शुद्ध मानसा ।
बिन्दु तर्पण सन्तुष्टा, पूर्वजा, त्रिपुराम्बिका ॥ 178 ॥
दशमुद्रा समाराध्या, त्रिपुरा श्रीवशङ्करी ।
ज्ञानमुद्रा, ज्ञानगम्या, ज्ञानज्ञेय स्वरूपिणी ॥ 179 ॥
योनिमुद्रा, त्रिखण्डेशी, त्रिगुणाम्बा, त्रिकोणगा ।
अनघाद्भुत चारित्रा, वांछितार्थ प्रदायिनी ॥ 180 ॥
अभ्यासाति शयज्ञाता, षडध्वातीत रूपिणी ।
अव्याज करुणामूर्ति, रज्ञानध्वान्त दीपिका ॥ 181 ॥
आबालगोप विदिता, सर्वानुल्लङ्घ्य शासना ।
श्री चक्रराजनिलया, श्रीमत्त्रिपुर सुन्दरी ॥ 182 ॥
श्री शिवा, शिवशक्त्यैक्य रूपिणी, ललिताम्बिका ।
एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः ॥ 183 ॥
॥ इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे, उत्तरखण्डे, श्री हयग्रीवागस्त्य संवादे, श्रीललितारहस्यनाम श्री ललिता रहस्यनाम साहस्रस्तोत्र कथनं नाम द्वितीयोध्यायः ॥
सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।
पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतींसौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥
ललिता सहस्त्रनाम का पाठ श्री विद्या गुरु की आज्ञा या श्री कुल में दीक्षा लेने के बाद ही करना चाहिए अन्यथा योगिनीओ के शाप का भोगी बन सकते हैं ।
Kundalini Explained
कुंडलिनी सब योगोंमैं सबसे शक्तिशाली और उतना ही सबसे दुर्धर्ष योग हैं, गुरु आज्ञा और मार्गदर्शन के बिना प्रयत्न ना करे।
आध्यात्मिक शरीर (सात चक्र मंत्र और प्रभाव )
ललिता सहस्रनाम के अनुसार सात चक्र की अधिष्ठात्रि देवीयों के नाम और वर्णन निम्न दिए हैं
(१) विशुद्धि चक्र – डाकिनी देवी
विशुद्धि चक्रनिलया,रक्तवर्णा, त्रिलोचना ।
खट्वाङ्गादि प्रहरणा, वदनैक समन्विता ॥
पायसान्नप्रिया, त्वक्स्था, पशुलोक भयङ्करी ।
अमृतादि महाशक्ति संवृता, डाकिनीश्वरी ॥
(२) अनाहत चक्र – राकिनी देवी
अनाहताब्ज निलया, श्यामाभा, वदनद्वया ।
दंष्ट्रोज्ज्वला,क्षमालाधिधरा, रुधिर संस्थिता ॥
कालरात्र्यादि शक्त्योघवृता, स्निग्धौदनप्रिया ।
महावीरेन्द्र वरदा, राकिण्यम्बा स्वरूपिणी ॥
(३) मणिपुर चक्र – लाकिनी देवी
मणिपूराब्ज निलया, वदनत्रय संयुता ।
वज्राधिकायुधोपेता, डामर्यादिभि रावृता ॥
रक्तवर्णा, मांसनिष्ठा, गुडान्न प्रीतमानसा ।
समस्त भक्तसुखदा, लाकिन्यम्बा स्वरूपिणी ॥
(४) स्वाधिष्ठान चक्र – क़ाकिनी देवी
स्वाधिष्ठानाम्बु जगता, चतुर्वक्त्र मनोहरा ।
शूलाद्यायुध सम्पन्ना, पीतवर्णा,तिगर्विता ॥
मेदोनिष्ठा, मधुप्रीता, बन्दिन्यादि समन्विता ।
दध्यन्नासक्त हृदया, काकिनी रूपधारिणी ॥
(५) मूलाधार चक्र – साकिनी देवी
मूला धाराम्बुजारूढा, पञ्चवक्त्रा,स्थिसंस्थिता ।
अङ्कुशादि प्रहरणा, वरदादि निषेविता ॥
मुद्गौदनासक्त चित्ता, साकिन्यम्बास्वरूपिणी ।
(६) आज्ञा चक्र – हाकिनी देवी
आज्ञा चक्राब्जनिलया, शुक्लवर्णा, षडानना ॥
मज्जासंस्था, हंसवती मुख्यशक्ति समन्विता ।
हरिद्रान्नैक रसिका, हाकिनी रूपधारिणी ॥
(७) सहस्त्रार चक्र – याकिनि देवी
सहस्रदल पद्मस्था, सर्ववर्णोप शोभिता ।
सर्वायुधधरा, शुक्ल संस्थिता, सर्वतोमुखी ।।
सर्वौदन प्रीतचित्ता, याकिन्यम्बा स्वरूपिणी ।
इन चक्रो की अधिष्ठात्रि देवीओ को ललिता सहस्त्रनाम के अनुसार ही समझना चाहिये निम्न चित्रोमैं उनका क्रम यथार्थ नहीं हैं।
1. आधार चक्र:
यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह “आधार चक्र” रक्तवर्णी है।
९९.९(99.9)% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।
मंत्र : “लं”
चक्र जगाने की विधि: मनुष्य तब तक पशुवत् है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है। इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है, यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।
प्रभाव :
इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाते है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।
2. स्वाधिष्ठान चक्र :
यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है। जिसकी छ पंखुरियां हैं। यह चक्र कौसुम्भः, नारङगवर्णः का है।
अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है, तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।
मंत्र : “वं”
कैसे जाग्रत करें :
जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती। लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं, वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। आप जानते हैं, नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते। प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो, तभी सिद्धियाँ आपका द्वार खटखटाएंगी।
3. मणिपुर चक्र :
नाभि के मूल में स्थित पित वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत “मणिपुर” नामक तीसरा चक्र है। यह चक्र स्वर्णिम (पित)वर्णी है।
जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है।
जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है, उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।
मंत्र : “रं”
कैसे जाग्रत करें :
आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।
प्रभाव :
इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-क्लेश दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।
4. अनाहत चक्र :
हृदय स्थल में स्थित हरितवर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश अक्षरों से सुशोभित चक्र ही “अनाहत चक्र” है।
अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियर आदि हो सकते हैं।
मंत्र : “यं”
कैसे जाग्रत करें :
हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और “सुषुम्ना” इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है। प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार आदि समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समक्ष ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगत व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्व प्रिय बन जाता है।
5. विशुद्ध चक्र :
कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां “विशुद्ध चक्र” है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। यह चक्र नीलवर्णी है।
सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे।
मंत्र : “हं”
कैसे जाग्रत करें :
कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव :
इसके जाग्रत होने पर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है। वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र :
भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटि में)
यह चक्र शौणवर्णी है।
में “आज्ञा-चक्र” है और जो दो पंखुरियों वाला है।
सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है, तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमागका बन जाता है। लेकिन वह सब कुछ जानने के बावज़ूद मौन रहता है। इसे “बौद्धिक सिद्धि” कहते हैं।
मंत्र : “ऊं”
कैसे जाग्रत करें :
भृकुटि के मध्य में ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव :
यहां अपार शक्तियाँ और सिद्धियाँ निवास करती हैं। इस “आज्ञा चक्र” का जागरण होने से ये सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।
7. सहस्रार चक्र :
“सहस्रार” की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात् जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।
कैसे जाग्रत करें :
“मूलाधार” से होते हुए ही “सहस्रार” तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह श्वेतवर्णका “चक्र” जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।
प्रभाव :
शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही “मोक्ष” का द्वार है।
कुंडलिनी सब योगोंमैं सबसे शक्तिशाली और उतना ही सबसे दुर्धर्ष योग हैं, गुरु आज्ञा और मार्गदर्शन के बिना प्रयत्न ना करे।
जगज्जननी भट्टारिका महात्रिपुरसुन्दरी (Lalita Tripur Sundari) का ध्यान रहस्य
जगज्जननी भट्टारिका महात्रिपुरसुन्दरी का ध्यान श्लोक , जो श्रीदत्तात्रेय महागुरु के मुखारविन्द से प्रस्फुटित हुआ है । यह ध्यान श्लोक अनेक आगमिक रहस्यों से पूर्ण है ।
अरुणां करुणातरंग्ड़िताक्षीं
धृतपाशांकुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव विभावये भवानीम्।।
अर्थात् मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ। उनके शरीर का रंग लाल है, नेत्रों में करुणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं ।
अरुण – लाल रंग
मयूख – किरण , चरण की कान्ति
अणिमादि- अष्ट सिद्धियां
करुणा – दया
तरंगित – लहरदार, उन्मेष
अक्ष – आँख , मातृका ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक ज्ञान शक्ति।
पाश, अंकुश, बाण और धनुष
श्रीललिताम्बा के षोडशी रूप का वर्णन है।
शाम्भवी शुक्लरूपा च #श्रीविद्या_रक्तरूपगा।
श्यामला श्यामरूपाख्या. एताश्चगुणशक्तय:।। श्रीविद्या ललिताम्बा का शरीर रूप #अरुणाभ अर्थात् लाल रंग – रक्त रूपगा है और लाक्षा के रंग जैसा है । तुलना करें। कादि मत में कहा गया :
#त्वत्देहोत्थिततेजोभि: किरणैरणिमादिभि:।
आदृतां त्वां महति भावयेस्त्वत्समो भवेदिति।।
हे देवि! तुम्हारी देह से प्रष्फुटित तेजमय किरणों , समस्त अष्ट सिद्धियों का जो रूप है, भावना द्वारा भक्त तुम्हारे समान ही हो जाता है।
अक्ष:– मातृका , जो श्रीदेवी के दोनों नेत्र हैं। मीनाक्षी हैं।
#आदिमुखा कादिकरा टादिपदा पादिपार्श्वयुड्मध्या।
यादि हृदया संविद्रूपा सरस्वती जयति ।।( महामहेश्वर अभिनवगुप्त)
स्वर वर्ण मुख, कवर्ग हाथ, टवर्ग पैर, पवर्ग जंघा, यवर्ग हृदय ऐसी संवित रूप वाली सरस्वती की जय हो ।संवित् – 365 दिनमान से अतीत अब श्रीभगवद्पादाचार्य शंकराचार्य महाराज सौन्दर्यलहरी में कह रहे हैं:
स्वदेहोद्भूताभिर्घृणिभिरणिमाद्याभिरभित:
निषेव्ये नित्ये त्वामहमिति सदा भावयति य:।
किमाश्चर्यं तस्यत्रिनयनसमृद्धिं तृणयत:
महासंवर्ताग्निर्विरचयति नीराजनविधिम्।।( सौन्दर्य लहरी 30)
अर्थात् हे नित्ये! आश्पके शरीरावयवभूत चरणों से उत्पन्न रश्मियों एवं अणिमादि अष्टसिद्धियों से घिरी हुई आपका जो साधक “ अहं” इस अभेद भावना से ध्यान करता है, सूर्य चन्द्राग्नि रूप समृद्धि वाले अथवा इड़ा, पिंग्ड़ला, सुषुम्ना के उपायों से प्राप्त होने वाले, सदाशिव की समृद्धि को तुच्छ समझने वाले उस साधक की आरती प्रलयकालीन संवर्ताग्नि भी करे तो इसमें कौन सा आश्चर्य है ।
भाव यह है कि “ अहं” परामर्श दृढ़ होने पर तादात्म्य सिद्ध जब हो जाता है ऐसे साधक की आरती प्रलयाग्नि भी उतारती है, इसमें आश्चर्य की क्या बात है!
श्रीललिताम्बा सोलह नित्याओं के रूप में प्रत्येक मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा और अमावस्या तक आराधित होती हैं । ( खड्गमाला और नित्याएं )
मयूख: चरणों से निकलने वाली किरणें
पृथ्वी से 56, जल से 52, अग्नि से 62, वायु से 54, आकाश से 72, और मन से 67 मयूखों की संख्या है।कुल 363 मयूख ।
अग्नि में 108, सूर्य में 116 और चंद्र में 136 कलाएं हैं – कुल 360 कलाएं – एक सम्पूर्ण वृत्त गोल ।
इन सबके ऊपर श्रीदेवी के दिव्य चरण हैं ।
इसका संदर्भ श्रीभाष्कर राय मखीन ने वरिवस्या रहस्य के ध्यान और न्यास के प्रसंग मे किया है । ध्यान- अरुणा करुणा—-, छंद- पंक्ति आदि अपने भाष्य में लिखा है ।(श्लोक 161)।
यह ध्यान श्लोक अति रहस्यमय है और गहन है ।