शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा उनके नाम एवं महात्म्य भाग
श्रीमद्देवीभागवत स्कंध ७ अध्याय ३०
संकलन – हिरेन त्रिवेदी,’क्षेत्रज्ञ’

छगलण्डे प्रचण्डा तु चण्डिकामरकण्टके।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती॥७३
देवमाता सरस्वत्यां पारावारा तटे स्मृता।
महालये महाभागा पयोष्ण्यां पिङ्गलेश्वरी॥७४
वे देवी छगलण्डमें ‘प्रचण्डा’, अमरकण्टकमें | ‘चण्डिका’, सोमेश्वरमें ‘वरारोहा’, प्रभासक्षेत्रमें | ‘पुष्करावती’, सरस्वतीतीर्थमें ‘देवमाता’, समुद्रतटपर ‘पारावारा’, महालयमें ‘महाभागा’ और पयोष्णीमें ‘पिंगलेश्वरी’ नामसे प्रसिद्ध हुईं ।। ७३-७४ ॥

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी।।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५
माता सिद्धवने लक्ष्मीरनका भरताश्रमे।।
जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते॥७६
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिविश्वेश्वरे तथा॥७७
कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे।।
शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा॥७८
वे कृतशौचक्षेत्रमें ‘सिंहिका’, कार्तिकक्षेत्रमें | ‘अतिशांकरी’, उत्पलावर्तकमें लोला’, सोनभद्रनदके संगमपर ‘सुभद्रा’, सिद्धवनमें माता ‘लक्ष्मी’, भरताश्रमतीर्थमें ‘अनंगा’, जालन्धरपर्वतपर ‘विश्वमुखी’, किष्किन्धापर्वतपर ‘तारा’, देवदारुवनमें पुष्टि’, काश्मीरमण्डलमें मेधा’, हिमाद्रिपर देवी ‘भीमा’, विश्वेश्वरक्षेत्रमें ‘तुष्टि’, कपालमोचनतीर्थमें ‘शुद्धि’, कामावरोहणतीर्थमें | ‘माता’, शंखोद्धारतीर्थमें ‘धारा’ और पिण्डारकतीर्थमें | ‘धृति’ नामसे विख्यात हैं। ७५-७८॥

कला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवधारिणी।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा॥७९
औषधिश्चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी॥८०
अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ॥८१
देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातृणां वैष्णवी मता॥ ८२
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम्॥८३
चन्द्रभागानदीके तटपर ‘कला’, अच्छोदक्षेत्रमें | ‘शिवधारिणी’, वेणानदीके किनारे ‘अमृता’, बदरीवनमें ‘उर्वशी’, उत्तरकुरुप्रदेशमें ‘औषधि’, कुशद्वीपमें ‘कुशोदका’, हेमकूटपर्वतपर ‘मन्मथा’, कुमुदवनमें ‘सत्यवादिनी’, अश्वत्थतीर्थमें ‘वन्दनीया’, वैश्रवणालयक्षेत्रमें ‘निधि’, वेदवदनतीर्थमें ‘गायत्री’, भगवान् शिवके सांनिध्यमें ‘पार्वती’, देवलोकमें ‘इन्द्राणी’, ब्रह्माके मुखोंमें ‘सरस्वती’, सूर्यके बिम्बमें ‘प्रभा’ तथा मातृकाओंमें ‘वैष्णवी’ नामसे कही गयी हैं। | सतियोंमें ‘अरुन्धती’, अप्सराओंमें ‘तिलोत्तमा’ और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें ‘ब्रह्मकला’ नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं ॥७९-८३॥

इमान्यष्ट शतानि स्युः पीठानि जनमेजय।
तत्संख्याकास्तदीशान्यो देव्यश्च परिकीर्तिताः॥८४
सतीदेव्यङ्गभूतानि पीठानि कथितानि च।
अन्यान्यपि प्रसङ्गेन यानि मुख्यानि भूतले॥८५
हे जनमेजय! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और – उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं। भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया; साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर – दिया॥ ८४-८५ ॥

यः स्मरेच्छृणुयाद्वापि नामाष्टशतमुत्तमम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तो देवीलोकं परं व्रजेत्॥८६
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका | स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे | मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है॥८६॥

एतेषु सर्वपीठेषु गच्छेद्यात्राविधानतः ।
सन्तर्पयेच्च पित्रादीञ्छ्राद्धादीनि विधाय च॥८७
कुर्याच्च महतीं पूजां भगवत्या विधानतः।
क्षमापयेज्जगद्धात्री जगदम्बां मुहुर्मुहुः॥८८
कृतकृत्यं स्वमात्मानं जानीयाजनमेजय।
भक्ष्यभोज्यादिभिः सर्वान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः॥८९
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक | भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये। हे जनमेजय! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये। हे राजन्! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं – आदिको खिलाने चाहिये ॥ ८७-८९॥

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  • जय माँ भगवती 🚩💐🙏🏾

चतुषाम्नाय चतुष्पीठ

चतुषाम्नाय चतुष्पीठ

१ » पूर्वाम्नाय – गोवर्धनमठ – विमलापीठ

प्रथमआचार्य » श्रीपद्मपादजी
सम्प्रदाय » भोगवार
क्षेत्र » पुरुषोत्तम
देवता » श्रीजगन्नाथ
मठ की देवी » विमला
तीर्थ » महौदधि
महावाक्य » ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’
वेद » ऋग्वेद
गोत्र » कश्यप
संन्यासी » वन तथा अरण्य
ब्रह्मचारी » प्रकाश
वर्तमानशंकराचार्य » श्री निश्चलानन्दसरस्वतीजी (१४५ वें शंकराचार्य)

२ » पश्चिमाम्नाय – शारदामठ – भद्रकालीपीठ

प्रथमआचार्य » श्रीहस्तामलक
सम्प्रदाय » कीटवार
क्षेत्र » द्वारका
देवता » सिद्धेश्वर
मठ की देवी » भद्रकाली
तीर्थ » गोमति
महावाक्य » ‘तत्त्वमसि’
वेद » सामवेद
गोत्र » अविगत
संन्यासी » तीर्थ और आश्रम
ब्रह्मचारी » स्वरूप
वर्तमानशंकराचार्य » श्री स्वरूपानन्दसरस्वतीजी (७८ वें शंकराचार्य)

३ » उतराम्नाय – ज्योतिर्मठ – पूर्णागिरिपीठ

प्रथमआचार्य » श्री तोटकाचार्य
सम्प्रदाय » आनन्दवार
क्षेत्र » बदरिकाश्रम
देवता » श्री मन्नारायण
मठ की देवी – पूर्णागिरि
तीर्थ » अलकनन्दा
महावाक्य » ‘अयमात्मा ब्रह्म’
वेद » अथर्ववेद
गोत्र » भृगु
संन्यासी » गिरि, पर्वत तथा सागर
ब्रह्मचारी » आनन्द
वर्तमानशंकराचार्य » श्री स्वरूपानन्दसरस्वती जी

४ » दक्षिणाम्नाय – शृङ्गेरीमठ – कामाक्षीपीठ

प्रथमआचार्य » श्री सुरेश्वर
सम्प्रदाय » भूरिवार
क्षेत्र » रामेश्वर
देवता » श्रीवाराह
मठ की देवी » कामाक्षी
तीर्थ » तुंङ्गभद्रा
महावाक्य » ‘अहं ब्रह्मास्मि’
वेद » यजूर्वेद
गोत्र » भूर्भुवः
संन्यासी » सरस्वती, भारती एवं पुरी
ब्रह्मचारी » चैतन्य
वर्तमानशंकराचार्य » श्री भारती तीर्थ जी (३६ वें शंकराचार्य)

साभार – ब्रह्मचारी अरविन्दप्रकाशः

✍️..विराट भट्ट पुराणोपासक

Lalita Sahasranama (1000 Names of Divine Mother)

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श्री ललिता सहस्त्रनाम का विशेष महत्व है,श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ से इष्टदेवी प्रसन्न हो जाती है और उपासक की कामना को पूर्ण करती है,यदि उपासक नित्य पाठ न कर सके तो पूण्य दिवसों पर संक्रांति पर दीक्षा दिवस पर,पूर्णिमा पर,शुक्रवार को अपने जन्मदिवस पर,t

दक्षिणायन ,उत्तरायण के समय ,नवमी चतुर्दशी आदि को अवश्य पाठ करें।पूर्णिमा के दिन श्री चन्द्र बिम्ब में श्री जी का ध्यान कर पंचोपचार पूजा के उपरान्त पाठ करने से साधक के समस्त रोग नष्ट हो जाते है,और वह दीर्घ आयु होता है, हर पूर्णिमा को यह प्रयोग करने से ये प्रयोग सिद्ध हो जाता है।ज्वर से दुखित मनुष्य के सर पर हाथ रखकर पाठ करने से दुखित मनुष्य का ज्वर दूर हो जाता है, सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित भस्म को धारण करने से सभी रोग नष्ट हो जाते है,इसी प्रकार सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित जल से अभिषेक करने से दुखी मनुष्यो की पीड़ा शांत हो जाती है अथार्त किसी पर कोई ग्रह या भूत,प्रेत चिपट गया हो तो अभिमंत्रित जल के अभिषेक से वे समस्त पीड़ाकारक तत्व दूर भाग जाते है, सुधासागर के मध्य में श्री ललिताम्बा का ध्यान कर पंचोपचार पूजन करके पाठ सुनाने से सर्प आदि की विष पीड़ा भी शांत हो जाती है,वन्ध्या (बाँझ)स्त्री को सहस्त्रनाम से अभिमंत्रित माखन खिलाने से वह शीघ्र गर्भ धारण करती है,नित्य पाठ करने वाले साधक को देखकर जनता मुग्ध हो जाती है। पाठ करने वाले साधक के शत्रुओं को पक्षीराज भगवान शरभेश्वर नष्ट कर देते है, साधक के विरुद्ध अभिचार करने वाले शत्रु को माँ प्रत्यंगिरा खा जाती है,और साधक को क्रूर दृष्टि से देखने वाले वैरी को मार्तंड भैरव अँधा कर देते है।जो सहस्त्रनाम का पाठ करने वाले साधक की चोरी करता है उसे क्षेत्रपाल भगवान मार देते है।यदि कोई विद्वान विद्वता के घमंड में आकर सहस्त्रनाम के साधक से शास्त्रार्थ करता है तो माँ नकुलीश्वरी उसका वाकस्तम्भन कर देती है,साधक के शत्रु चाहे वो राजा ही क्यों न हो माँ दण्डिनी उसे नष्ट कर देती है।छः मास पर्यंत पाठ करने से साधक के घर में लक्ष्मी स्थिर हो जाती है।एक मास पर्यंत तीन बार पाठ करने से सरस्वती साधक की जिभ्या पर विराजने लगती है।निस्तन्द्र होकर एक पक्ष पर्यंत सहस्त्रनाम का पाठ करने से साधक में वशीकरण शक्ति आ जाती है।सहस्त्रनाम के साधक की दृष्टि पड़ने से पापियों के पाप नष्ट हो जाते है।

अन्न,वस्त्र,धन,धान्य,दान आदि सत्पात्र को ही देना चाहिए।सत्पात्र की परिभाषा-जो श्रीविद्या मंत्रराज को जानता है,नित्य सहस्त्रनाम का पाठ करता है जो प्रतिदिन श्रीचक्रार्चन करता है ,वह संसार में सत्पात्र है।

जो न मंत्रराज को जानता है न सहस्त्रनाम का पाठ करता है वो पशु के समान है उसको दान देना निरर्थक होता है।जो माँ की कृपा अपने ऊपर चाहता है उसे सत्पात्र को ही दान देना चाहिए। जो उपासक श्रीचक्रराज में श्री विद्या माँ का पूजन कर सहस्त्रनाम से पदम्,कमल,गुलाब,तुलसी की मंजरी,चम्पक ,जाती,मल्लिका,कनेर,कुंद, केबड़ा,केशर उत्प्ल, पातल,बिलपत्र,माध्वी,केतिकी ,और अन्य सुंगंधित पुष्पो से माँ का अर्चन करता है उसके पूण्य को भगवान शिव भी नही कह सकते।

जो पूर्णिमा के दिन श्रीचक्रराज में माँ श्रीविद्या का सहस्त्रनाम से अर्चन करता है वो स्वयं श्री ललिताम्बा स्वरूप हो जाता है।महानवमी के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से अर्चन करने से मुक्ति हस्तगत होती है।

शुक्रवार के दिन श्रीचक्रराज में सहस्त्रनाम से माँ का अर्चन करने वाला अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण कर सब प्रकार के सौभाग्य युक्त पुत्र और पौत्रों से सुशोभित होकर विविध सुखों को भोगता हुआ मुक्ती को प्राप्त होता है। निष्काम पाठ करने से ब्रह्मज्ञान पैदा होता है जिससे साधक आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाता है।सहस्त्रनाम का पाठ करने से धनकामी धन को विद्यार्थी विद्या को यशकामी यश को प्राप्त करता है,धर्मानुष्ठान से रहित पापो की बहुलता से युक्त इस कलियुग में श्री ललिता सहस्त्रनाम के पाठ किये बिना जो साधक माँ की कृपा चाहता है वो मुर्ख है,वो बिना नेत्रों से रूप को देखना चाहता है।जो पराम्बा का भक्त बनना चाहता उसे नित्यमेव श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करना चाहिएललिता आत्मा की उल्लासपूर्ण, क्रियाशील और प्रकाशमय अभिव्यक्ति है। मुक्त चेतना जिसमे कोई राग द्वेष नहीं, जो आत्मस्थित है वो स्वतः ही उल्लासपूर्ण, उत्साह से भरी, खिली हुई होती है। ये ललितकाश है।`

ललिता सहस्रनाम में हम देवी माँ के एक हजार नाम जपते हैं। नाम का एक अपना महत्त्व होता है। यदि हम चन्दन के पेड़ को याद करते हैं तो हम उसके इत्र की स्मृति को साथ ले जाते हैं। सहस्रनाम में देवी के प्रत्येक नाम से देवी का कोई गुण या विशेषता बताई जाती है।

ललिता सहस्रनाम के जप से क्या लाभ होता है हमारे जीवन के विभिन्न पड़ावों में बालपन से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था और इसी तरह .. हमारी आवश्यकताएं और इच्छाएं बदलती रहती है। इस सब के साथ हमारी चेतना की अवस्था में भी महती बदलाव होते हैं। जब हम प्रत्येक नाम का जप करते हैं, तब वे गुण हमारी चेतना में जागृत होते हैं और जीवन में आवश्यकतानुसार प्रकट होते हैं।

देवी माँ के नाम के जप से हम अपने भीतर विभिन्न गुणों को जागृत करके उन गुणों को अपने चारों ओर के संसार में प्रकट होते देख और समझ पाने की शक्ति भी पाते हैं। हम सभी अपने प्राचीन ऋषियों के आभारी है जिन्होंने दिव्यता का आराधन उसके संपूर्ण वैविध्य गुणों के साथ किया जिसने हमारे लिए जीवन को पूर्णता से जीने का मार्ग प्रशस्त किया।सहस्रनाम का जप अपने में ही एक पूजा विधि है। ये मन को शुद्ध करके चेतना का उत्थान करता है। इस जप से हमारा चंचल मन शांत होता है। भले ही आधे घंटे के लिए ही सही मन ईश्वर से एक रूप और उनके गुणों के प्रति एकाग्र होता है और भटकना रुक जाता है। ये विश्राम का सामान्य रूप है।

ललितासहस्रनाम में भाषा का सौंदर्य अद्भुत है। भाषा बहुत मोहक है और सामान्य और गहरे अर्थ दोनों ही चित्ताकर्षक हैं। उदहारण के लिए कमलनयन का अर्थ सुन्दर और पवित्र दृष्टि है। कमल कीचड़ में खिलता है। फिर भी ये सुन्दर और पवित्र रहता है। कमलनयन व्यक्ति इस संसार में रहता है और सभी परिस्थितियों में इसकी सुंदरता और पवित्रता को देखता है।

ललिता, पाठक को सहस्रनाम में वर्णित विभिन्न गुणों से पहचान कराकर उनके दोनों प्रकार के (गूढ़ और सामान्य) अर्थों की झलक भी देने के उद्देश्य को पूरा करती है। किसी विशिष्ट गुण के विभिन्न सन्दर्भ को बहुत सुंदर तरीके से पिरोया गया है। जो साथ ही एक ही गुण के विभिन आयाम प्रस्तुत कर देती है।

हमें ये जानना चाहिए कि काम इस धरा पर एक बहुत ही सुन्दर और महान लक्ष्य के लिए आये हैं। जब श्रद्धा और जाग्रति के साथ पाठ किया जाता है, ललिता हमारी चेतना में शुध्दि लाकर हमें सकारात्मकता, क्रियाशीलता और उल्लास का भंडार बना देती है। इसलिए आइये आनंद मय हों और संसार के लिए उल्लास रूप हो जाये।
मुख्यतः श्री विद्या मंत्र दीक्षित व्यक्ति इस सहस्रनाम करने के अधिकारी हैं लेकिन योग्य श्री विद्या गुरु के आदेश पर मंत्र दीक्षित ना हो वे भी कर सकते हैं।

॥ हरिः ॐ ॥

अस्य श्री ललिता सहस्रनाम स्तोत्र मालामन्त्रस्य, वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवता, श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजं, शक्ति कूटेति शक्तिः,कामराजेति कीलकं, मम धर्मार्थ काम मोक्ष चतुर्विध फलपुरुषार्थ सिद्ध्यर्थे ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः

॥ ऋष्यादि न्यास ॥(षडांग)

वशिन्यादि वाग्देवता ऋषिभ्यो नमः शिरशे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे (दक्षिणा हस्ते स्पर्श) ललिता पराभट्टारिका महा त्रिपुर सुन्दरी देवताभ्यो नमः ह्रदये (दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

श्रीमद्वाग़्भवकूटेति बीजाय नमः गुह्ये (वाम हस्ते स्पर्श, हस्त प्रक्षालयम)

शक्ति कूटेति शक्तये नमः पाध्यो (द्वयम हस्ते स्पर्श)

कामराजेति कीलकाय नमः नाभौ(दक्षिणा हस्ते स्पर्श)

श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिका प्रित्यर्थे सहस्र नाम जपे विनियोगः नमः सर्वाँगे (द्वयम हस्ते स्पर्श)

॥ कर न्यास॥

कूटत्रयेण द्विरावृत्या करषडंगौ विधाय

॥ ध्यानं ॥

 सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-

त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं

सौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥

 ॥ लमित्यादि पञ्च्हपूजां विभावयेत् ॥

लं पृथिवी तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै गन्धं परिकल्पयामि

हम् आकाश तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै पुष्पं परिकल्पयामि

यं वायु तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै धूपं परिकल्पयामि

रं वह्नि तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै दीपं परिकल्पयामि

वम् अमृत तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै अमृत नैवेद्यं परिकल्पयामि

सं सर्व तत्त्वात्मिकायै श्री ललितादेव्यै ताम्बूलादि सर्वोपचारान् परिकल्पयामि

गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्‍स्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

॥ हरिः ॐ ॥

श्री माता, श्री महाराज्ञी, श्रीमत्-सिंहासनेश्वरी ।

चिदग्नि कुण्डसम्भूता, देवकार्यसमुद्यता ॥ 1 ॥

उद्यद्भानु सहस्राभा, चतुर्बाहु समन्विता ।

रागस्वरूप पाशाढ्या, क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला ॥ 2 ॥

मनोरूपेक्षुकोदण्डा, पञ्चतन्मात्र सायका ।

निजारुण प्रभापूर मज्जद्-ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 3 ॥

चम्पकाशोक पुन्नाग सौगन्धिक लसत्कचा

कुरुविन्द मणिश्रेणी कनत्कोटीर मण्डिता ॥ 4 ॥

अष्टमी चन्द्र विभ्राज दलिकस्थल शोभिता ।

मुखचन्द्र कलङ्काभ मृगनाभि विशेषका ॥ 5 ॥

वदनस्मर माङ्गल्य गृहतोरण चिल्लिका ।

वक्त्रलक्ष्मी परीवाह चलन्मीनाभ लोचना ॥ 6 ॥

नवचम्पक पुष्पाभ नासादण्ड विराजिता ।

ताराकान्ति तिरस्कारि नासाभरण भासुरा ॥ 7 ॥

कदम्ब मञ्जरीक्लुप्त कर्णपूर मनोहरा ।

ताटङ्क युगलीभूत तपनोडुप मण्डला ॥ 8 ॥

पद्मराग शिलादर्श परिभावि कपोलभूः ।

नवविद्रुम बिम्बश्रीः न्यक्कारि रदनच्छदा ॥ 9 ॥

शुद्ध विद्याङ्कुराकार द्विजपङ्क्ति द्वयोज्ज्वला ।

कर्पूरवीटि कामोद समाकर्ष द्दिगन्तरा ॥ 10 ॥

निजसल्लाप माधुर्य विनिर्भर्-त्सित कच्छपी ।

मन्दस्मित प्रभापूर मज्जत्-कामेश मानसा ॥ 11 ॥

अनाकलित सादृश्य चुबुक श्री विराजिता ।

कामेशबद्ध माङ्गल्य सूत्रशोभित कन्थरा ॥ 12 ॥

कनकाङ्गद केयूर कमनीय भुजान्विता ।

रत्नग्रैवेय चिन्ताक लोलमुक्ता फलान्विता ॥ 13 ॥

कामेश्वर प्रेमरत्न मणि प्रतिपणस्तनी।

नाभ्यालवाल रोमालि लताफल कुचद्वयी ॥ 14 ॥

लक्ष्यरोमलता धारता समुन्नेय मध्यमा ।

स्तनभार दलन्-मध्य पट्टबन्ध वलित्रया ॥ 15 ॥

अरुणारुण कौसुम्भ वस्त्र भास्वत्-कटीतटी ।

रत्नकिङ्किणि कारम्य रशनादाम भूषिता ॥ 16 ॥

कामेश ज्ञात सौभाग्य मार्दवोरु द्वयान्विता ।

माणिक्य मकुटाकार जानुद्वय विराजिता ॥ 17 ॥

इन्द्रगोप परिक्षिप्त स्मर तूणाभ जङ्घिका ।

गूढगुल्भा कूर्मपृष्ठ जयिष्णु प्रपदान्विता ॥ 18 ॥

नखदीधिति संछन्न नमज्जन तमोगुणा ।

पदद्वय प्रभाजाल पराकृत सरोरुहा ॥ 19 ॥

शिञ्जान मणिमञ्जीर मण्डित श्री पदाम्बुजा ।

मराली मन्दगमना, महालावण्य शेवधिः ॥ 20 ॥

सर्वारुणा‌नवद्याङ्गी सर्वाभरण भूषिता ।

शिवकामेश्वराङ्कस्था, शिवा, स्वाधीन वल्लभा ॥ 21 ॥

Shri Sodashi with lord Kameshwara

सुमेरु मध्यशृङ्गस्था, श्रीमन्नगर नायिका ।

चिन्तामणि गृहान्तस्था, पञ्चब्रह्मासनस्थिता ॥ 22 ॥

महापद्माटवी संस्था, कदम्ब वनवासिनी ।

सुधासागर मध्यस्था, कामाक्षी कामदायिनी ॥ 23 ॥

देवर्षि गणसङ्घात स्तूयमानात्म वैभवा ।

भण्डासुर वधोद्युक्त शक्तिसेना समन्विता ॥ 24 ॥

सम्पत्करी समारूढ सिन्धुर व्रजसेविता ।

अश्वारूढाधिष्ठिताश्व कोटिकोटि भिरावृता ॥ 25 ॥

चक्रराज रथारूढ सर्वायुध परिष्कृता ।

गेयचक्र रथारूढ मन्त्रिणी परिसेविता ॥ 26 ॥

किरिचक्र रथारूढ दण्डनाथा पुरस्कृता ।

ज्वालामालिनि काक्षिप्त वह्निप्राकार मध्यगा ॥ 27 ॥

भण्डसैन्य वधोद्युक्त शक्ति विक्रमहर्षिता ।

नित्या पराक्रमाटोप निरीक्षण समुत्सुका ॥ 28 ॥

भण्डपुत्र वधोद्युक्त बालाविक्रम नन्दिता ।

मन्त्रिण्यम्बा विरचित विषङ्ग वधतोषिता ॥ 29 ॥

विशुक्र प्राणहरण वाराही वीर्यनन्दिता ।

कामेश्वर मुखालोक कल्पित श्री गणेश्वरा ॥ 30 ॥

महागणेश निर्भिन्न विघ्नयन्त्र प्रहर्षिता ।

भण्डासुरेन्द्र निर्मुक्त शस्त्र प्रत्यस्त्र वर्षिणी ॥ 31 ॥

कराङ्गुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृतिः ।

महापाशुपतास्त्राग्नि निर्दग्धासुर सैनिका ॥ 32 ॥

कामेश्वरास्त्र निर्दग्ध सभण्डासुर शून्यका ।

ब्रह्मोपेन्द्र महेन्द्रादि देवसंस्तुत वैभवा ॥ 33 ॥

हरनेत्राग्नि सन्दग्ध काम सञ्जीवनौषधिः ।

श्रीमद्वाग्भव कूटैक स्वरूप मुखपङ्कजा ॥ 34 ॥

कण्ठाधः कटिपर्यन्त मध्यकूट स्वरूपिणी ।

शक्तिकूटैक तापन्न कट्यथोभाग धारिणी ॥ 35 ॥

मूलमन्त्रात्मिका, मूलकूट त्रय कलेबरा ।

कुलामृतैक रसिका, कुलसङ्केत पालिनी ॥ 36 ॥

कुलाङ्गना, कुलान्तःस्था, कौलिनी, कुलयोगिनी ।

अकुला, समयान्तःस्था, समयाचार तत्परा ॥ 37 ॥

मूलाधारैक निलया, ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी ।

मणिपूरान्त रुदिता, विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ॥ 38 ॥

आज्ञा चक्रान्तरालस्था, रुद्रग्रन्थि विभेदिनी ।

सहस्राराम्बुजा रूढा, सुधासाराभि वर्षिणी ॥ 39 ॥

तटिल्लता समरुचिः, षट्-चक्रोपरि संस्थिता ।

महाशक्तिः, कुण्डलिनी, बिसतन्तु तनीयसी ॥ 40 ॥

भवानी, भावनागम्या, भवारण्य कुठारिका ।

भद्रप्रिया, भद्रमूर्ति, र्भक्तसौभाग्य दायिनी ॥ 41 ॥

भक्तिप्रिया, भक्तिगम्या, भक्तिवश्या, भयापहा ।

शाम्भवी, शारदाराध्या, शर्वाणी, शर्मदायिनी ॥ 42 ॥

शाङ्करी, श्रीकरी, साध्वी, शरच्चन्द्रनिभानना ।

शातोदरी, शान्तिमती, निराधारा, निरञ्जना ॥ 43 ॥

निर्लेपा, निर्मला, नित्या, निराकारा, निराकुला ।

निर्गुणा, निष्कला, शान्ता, निष्कामा, निरुपप्लवा ॥ 44 ॥

नित्यमुक्ता, निर्विकारा, निष्प्रपञ्चा, निराश्रया ।

नित्यशुद्धा, नित्यबुद्धा, निरवद्या, निरन्तरा ॥ 45 ॥

निष्कारणा, निष्कलङ्का, निरुपाधि, र्निरीश्वरा ।

नीरागा, रागमथनी, निर्मदा, मदनाशिनी ॥ 46 ॥

निश्चिन्ता, निरहङ्कारा, निर्मोहा, मोहनाशिनी ।

निर्ममा, ममताहन्त्री, निष्पापा, पापनाशिनी ॥ 47 ॥

निष्क्रोधा, क्रोधशमनी, निर्लोभा, लोभनाशिनी ।

निःसंशया, संशयघ्नी, निर्भवा, भवनाशिनी ॥ 48 ॥

निर्विकल्पा, निराबाधा, निर्भेदा, भेदनाशिनी ।

निर्नाशा, मृत्युमथनी, निष्क्रिया, निष्परिग्रहा ॥ 49 ॥

निस्तुला, नीलचिकुरा, निरपाया, निरत्यया ।

दुर्लभा, दुर्गमा, दुर्गा, दुःखहन्त्री, सुखप्रदा ॥ 50 ॥

दुष्टदूरा, दुराचार शमनी, दोषवर्जिता ।

सर्वज्ञा, सान्द्रकरुणा, समानाधिकवर्जिता ॥ 51 ॥

सर्वशक्तिमयी, सर्वमङ्गला, सद्गतिप्रदा ।

सर्वेश्वरी, सर्वमयी, सर्वमन्त्र स्वरूपिणी ॥ 52 ॥

सर्वयन्त्रात्मिका, सर्वतन्त्ररूपा, मनोन्मनी ।

माहेश्वरी, महादेवी, महालक्ष्मी, र्मृडप्रिया ॥ 53 ॥

महारूपा, महापूज्या, महापातक नाशिनी ।

महामाया, महासत्त्वा, महाशक्ति र्महारतिः ॥ 54 ॥

महाभोगा, महैश्वर्या, महावीर्या, महाबला ।

महाबुद्धि, र्महासिद्धि, र्महायोगेश्वरेश्वरी ॥ 55 ॥

महातन्त्रा, महामन्त्रा, महायन्त्रा, महासना ।

महायाग क्रमाराध्या, महाभैरव पूजिता ॥ 56 ॥

महेश्वर महाकल्प महाताण्डव साक्षिणी ।

महाकामेश महिषी, महात्रिपुर सुन्दरी ॥ 57 ॥

चतुःषष्ट्युपचाराढ्या, चतुष्षष्टि कलामयी ।

महा चतुष्षष्टि कोटि योगिनी गणसेविता ॥ 58 ॥

मनुविद्या, चन्द्रविद्या, चन्द्रमण्डलमध्यगा ।

चारुरूपा, चारुहासा, चारुचन्द्र कलाधरा ॥ 59 ॥

चराचर जगन्नाथा, चक्रराज निकेतना ।

पार्वती, पद्मनयना, पद्मराग समप्रभा ॥ 60 ॥

पञ्चप्रेतासनासीना, पञ्चब्रह्म स्वरूपिणी ।

चिन्मयी, परमानन्दा, विज्ञान घनरूपिणी ॥ 61 ॥

ध्यानध्यातृ ध्येयरूपा, धर्माधर्म विवर्जिता ।

विश्वरूपा, जागरिणी, स्वपन्ती, तैजसात्मिका ॥ 62 ॥

सुप्ता, प्राज्ञात्मिका, तुर्या, सर्वावस्था विवर्जिता ।

सृष्टिकर्त्री, ब्रह्मरूपा, गोप्त्री, गोविन्दरूपिणी ॥ 63 ॥

संहारिणी, रुद्ररूपा, तिरोधानकरीश्वरी ।

सदाशिवानुग्रहदा, पञ्चकृत्य परायणा ॥ 64 ॥

भानुमण्डल मध्यस्था, भैरवी, भगमालिनी ।

पद्मासना, भगवती, पद्मनाभ सहोदरी ॥ 65 ॥

उन्मेष निमिषोत्पन्न विपन्न भुवनावलिः ।

सहस्रशीर्षवदना, सहस्राक्षी, सहस्रपात् ॥ 66 ॥

आब्रह्म कीटजननी, वर्णाश्रम विधायिनी ।

निजाज्ञारूपनिगमा, पुण्यापुण्य फलप्रदा ॥ 67 ॥

श्रुति सीमन्त सिन्धूरीकृत पादाब्जधूलिका ।

सकलागम सन्दोह शुक्तिसम्पुट मौक्तिका ॥ 68 ॥

पुरुषार्थप्रदा, पूर्णा, भोगिनी, भुवनेश्वरी ।

अम्बिका,‌ नादि निधना, हरिब्रह्मेन्द्र सेविता ॥ 69 ॥

नारायणी, नादरूपा, नामरूप विवर्जिता ।

ह्रीङ्कारी, ह्रीमती, हृद्या, हेयोपादेय वर्जिता ॥ 70 ॥

राजराजार्चिता, राज्ञी, रम्या, राजीवलोचना ।

रञ्जनी, रमणी, रस्या, रणत्किङ्किणि मेखला ॥ 71 ॥

रमा, राकेन्दुवदना, रतिरूपा, रतिप्रिया ।

रक्षाकरी, राक्षसघ्नी, रामा, रमणलम्पटा ॥ 72 ॥

काम्या, कामकलारूपा, कदम्ब कुसुमप्रिया ।

कल्याणी, जगतीकन्दा, करुणारस सागरा ॥ 73 ॥

कलावती, कलालापा, कान्ता, कादम्बरीप्रिया ।

वरदा, वामनयना, वारुणीमदविह्वला ॥ 74 ॥

विश्वाधिका, वेदवेद्या, विन्ध्याचल निवासिनी ।

विधात्री, वेदजननी, विष्णुमाया, विलासिनी ॥ 75 ॥

क्षेत्रस्वरूपा, क्षेत्रेशी, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पालिनी ।

क्षयवृद्धि विनिर्मुक्ता, क्षेत्रपाल समर्चिता ॥ 76 ॥

विजया, विमला, वन्द्या, वन्दारु जनवत्सला ।

वाग्वादिनी, वामकेशी, वह्निमण्डल वासिनी ॥ 77 ॥

भक्तिमत्-कल्पलतिका, पशुपाश विमोचनी ।

संहृताशेष पाषण्डा, सदाचार प्रवर्तिका ॥ 78 ॥

तापत्रयाग्नि सन्तप्त समाह्लादन चन्द्रिका ।

तरुणी, तापसाराध्या, तनुमध्या, तमो‌पहा ॥ 79 ॥

चिति, स्तत्पदलक्ष्यार्था, चिदेक रसरूपिणी ।

स्वात्मानन्दलवीभूत ब्रह्माद्यानन्द सन्ततिः ॥ 80 ॥

परा, प्रत्यक्चिती रूपा, पश्यन्ती, परदेवता ।

मध्यमा, वैखरीरूपा, भक्तमानस हंसिका ॥ 81 ॥

कामेश्वर प्राणनाडी, कृतज्ञा, कामपूजिता ।

शृङ्गार रससम्पूर्णा, जया, जालन्धरस्थिता ॥ 82 ॥

ओड्याण पीठनिलया, बिन्दुमण्डल वासिनी ।

रहोयाग क्रमाराध्या, रहस्तर्पण तर्पिता ॥ 83 ॥

सद्यः प्रसादिनी, विश्वसाक्षिणी, साक्षिवर्जिता ।

षडङ्गदेवता युक्ता, षाड्गुण्य परिपूरिता ॥ 84 ॥

नित्यक्लिन्ना, निरुपमा, निर्वाण सुखदायिनी ।

नित्या, षोडशिकारूपा, श्रीकण्ठार्ध शरीरिणी ॥ 85 ॥

प्रभावती, प्रभारूपा, प्रसिद्धा, परमेश्वरी ।

मूलप्रकृति रव्यक्ता, व्यक्ता‌व्यक्त स्वरूपिणी ॥ 86 ॥

व्यापिनी, विविधाकारा, विद्या‌विद्या स्वरूपिणी ।

महाकामेश नयना, कुमुदाह्लाद कौमुदी ॥ 87 ॥

भक्तहार्द तमोभेद भानुमद्-भानुसन्ततिः ।

शिवदूती, शिवाराध्या, शिवमूर्ति, श्शिवङ्करी ॥ 88 ॥

शिवप्रिया, शिवपरा, शिष्टेष्टा, शिष्टपूजिता ।

अप्रमेया, स्वप्रकाशा, मनोवाचाम गोचरा ॥ 89 ॥

चिच्छक्ति, श्चेतनारूपा, जडशक्ति, र्जडात्मिका ।

गायत्री, व्याहृति, स्सन्ध्या, द्विजबृन्द निषेविता ॥ 90 ॥

तत्त्वासना, तत्त्वमयी, पञ्चकोशान्तरस्थिता ।

निस्सीममहिमा, नित्ययौवना, मदशालिनी ॥ 91 ॥

मदघूर्णित रक्ताक्षी, मदपाटल गण्डभूः ।

चन्दन द्रवदिग्धाङ्गी, चाम्पेय कुसुम प्रिया ॥ 92 ॥

कुशला, कोमलाकारा, कुरुकुल्ला, कुलेश्वरी ।

कुलकुण्डालया, कौल मार्गतत्पर सेविता ॥ 93 ॥

कुमार गणनाथाम्बा, तुष्टिः, पुष्टि, र्मति, र्धृतिः ।

शान्तिः, स्वस्तिमती, कान्ति, र्नन्दिनी, विघ्ननाशिनी ॥ 94 ॥

तेजोवती, त्रिनयना, लोलाक्षी कामरूपिणी ।

मालिनी, हंसिनी, माता, मलयाचल वासिनी ॥ 95 ॥

सुमुखी, नलिनी, सुभ्रूः, शोभना, सुरनायिका ।

कालकण्ठी, कान्तिमती, क्षोभिणी, सूक्ष्मरूपिणी ॥ 96 ॥

वज्रेश्वरी, वामदेवी, वयो‌உवस्था विवर्जिता ।

सिद्धेश्वरी, सिद्धविद्या, सिद्धमाता, यशस्विनी ॥ 97 ॥

विशुद्धि चक्रनिलया,‌रक्तवर्णा, त्रिलोचना ।

खट्वाङ्गादि प्रहरणा, वदनैक समन्विता ॥ 98 ॥

पायसान्नप्रिया, त्वक्‍स्था, पशुलोक भयङ्करी ।

अमृतादि महाशक्ति संवृता, डाकिनीश्वरी ॥ 99 ॥

अनाहताब्ज निलया, श्यामाभा, वदनद्वया ।

दंष्ट्रोज्ज्वला,‌क्षमालाधिधरा, रुधिर संस्थिता ॥ 100 ॥

कालरात्र्यादि शक्त्योघवृता, स्निग्धौदनप्रिया ।

महावीरेन्द्र वरदा, राकिण्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 101 ॥

मणिपूराब्ज निलया, वदनत्रय संयुता ।

वज्राधिकायुधोपेता, डामर्यादिभि रावृता ॥ 102 ॥

रक्तवर्णा, मांसनिष्ठा, गुडान्न प्रीतमानसा ।

समस्त भक्तसुखदा, लाकिन्यम्बा स्वरूपिणी ॥ 103 ॥

स्वाधिष्ठानाम्बु जगता, चतुर्वक्त्र मनोहरा ।

शूलाद्यायुध सम्पन्ना, पीतवर्णा,‌तिगर्विता ॥ 104 ॥

मेदोनिष्ठा, मधुप्रीता, बन्दिन्यादि समन्विता ।

दध्यन्नासक्त हृदया, काकिनी रूपधारिणी ॥ 105 ॥

मूला धाराम्बुजारूढा, पञ्चवक्त्रा,‌स्थिसंस्थिता ।

अङ्कुशादि प्रहरणा, वरदादि निषेविता ॥ 106 ॥

मुद्गौदनासक्त चित्ता, साकिन्यम्बास्वरूपिणी ।

आज्ञा चक्राब्जनिलया, शुक्लवर्णा, षडानना ॥ 107 ॥

मज्जासंस्था, हंसवती मुख्यशक्ति समन्विता ।

हरिद्रान्नैक रसिका, हाकिनी रूपधारिणी ॥ 108 ॥

सहस्रदल पद्मस्था, सर्ववर्णोप शोभिता ।

सर्वायुधधरा, शुक्ल संस्थिता, सर्वतोमुखी ॥ 109 ॥

सर्वौदन प्रीतचित्ता, याकिन्यम्बा स्वरूपिणी ।

स्वाहा, स्वधा,‌मति, र्मेधा, श्रुतिः, स्मृति, रनुत्तमा ॥ 110 ॥

पुण्यकीर्तिः, पुण्यलभ्या, पुण्यश्रवण कीर्तना ।

पुलोमजार्चिता, बन्धमोचनी, बन्धुरालका ॥ 111 ॥

विमर्शरूपिणी, विद्या, वियदादि जगत्प्रसूः ।

सर्वव्याधि प्रशमनी, सर्वमृत्यु निवारिणी ॥ 112 ॥

अग्रगण्या,‌चिन्त्यरूपा, कलिकल्मष नाशिनी ।

कात्यायिनी, कालहन्त्री, कमलाक्ष निषेविता ॥ 113 ॥

ताम्बूल पूरित मुखी, दाडिमी कुसुमप्रभा ।

मृगाक्षी, मोहिनी, मुख्या, मृडानी, मित्ररूपिणी ॥ 114 ॥

नित्यतृप्ता, भक्तनिधि, र्नियन्त्री, निखिलेश्वरी ।

मैत्र्यादि वासनालभ्या, महाप्रलय साक्षिणी ॥ 115 ॥

पराशक्तिः, परानिष्ठा, प्रज्ञान घनरूपिणी ।

माध्वीपानालसा, मत्ता, मातृका वर्ण रूपिणी ॥ 116 ॥

महाकैलास निलया, मृणाल मृदुदोर्लता ।

महनीया, दयामूर्ती, र्महासाम्राज्यशालिनी ॥ 117 ॥

आत्मविद्या, महाविद्या, श्रीविद्या, कामसेविता ।

श्रीषोडशाक्षरी विद्या, त्रिकूटा, कामकोटिका ॥ 118 ॥

कटाक्षकिङ्करी भूत कमला कोटिसेविता ।

शिरःस्थिता, चन्द्रनिभा, फालस्थेन्द्र धनुःप्रभा ॥ 119 ॥

हृदयस्था, रविप्रख्या, त्रिकोणान्तर दीपिका ।

दाक्षायणी, दैत्यहन्त्री, दक्षयज्ञ विनाशिनी ॥ 120 ॥

दरान्दोलित दीर्घाक्षी, दरहासोज्ज्वलन्मुखी ।

गुरुमूर्ति, र्गुणनिधि, र्गोमाता, गुहजन्मभूः ॥ 121 ॥

देवेशी, दण्डनीतिस्था, दहराकाश रूपिणी ।

प्रतिपन्मुख्य राकान्त तिथिमण्डल पूजिता ॥ 122 ॥

कलात्मिका, कलानाथा, काव्यालाप विनोदिनी ।

सचामर रमावाणी सव्यदक्षिण सेविता ॥ 123 ॥

आदिशक्ति, रमेयात्मा, परमा, पावनाकृतिः ।

अनेककोटि ब्रह्माण्ड जननी, दिव्यविग्रहा ॥ 124 ॥

क्लीङ्कारी, केवला, गुह्या, कैवल्य पददायिनी ।

त्रिपुरा, त्रिजगद्वन्द्या, त्रिमूर्ति, स्त्रिदशेश्वरी ॥ 125 ॥

त्र्यक्षरी, दिव्यगन्धाढ्या, सिन्धूर तिलकाञ्चिता ।

उमा, शैलेन्द्रतनया, गौरी, गन्धर्व सेविता ॥ 126 ॥

विश्वगर्भा, स्वर्णगर्भा,‌உवरदा वागधीश्वरी ।

ध्यानगम्या,‌ परिच्छेद्या, ज्ञानदा, ज्ञानविग्रहा ॥ 127 ॥

सर्ववेदान्त संवेद्या, सत्यानन्द स्वरूपिणी ।

लोपामुद्रार्चिता, लीलाक्लुप्त ब्रह्माण्डमण्डला ॥ 128 ॥

अदृश्या, दृश्यरहिता, विज्ञात्री, वेद्यवर्जिता ।

योगिनी, योगदा, योग्या, योगानन्दा, युगन्धरा ॥ 129 ॥

इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति स्वरूपिणी ।

सर्वधारा, सुप्रतिष्ठा, सदसद्-रूपधारिणी ॥ 130 ॥

अष्टमूर्ति, रजाजैत्री, लोकयात्रा विधायिनी ।

एकाकिनी, भूमरूपा, निर्द्वैता, द्वैतवर्जिता ॥ 131 ॥

अन्नदा, वसुदा, वृद्धा, ब्रह्मात्मैक्य स्वरूपिणी ।

बृहती, ब्राह्मणी, ब्राह्मी, ब्रह्मानन्दा, बलिप्रिया ॥ 132 ॥

भाषारूपा, बृहत्सेना, भावाभाव विवर्जिता ।

सुखाराध्या, शुभकरी, शोभना सुलभागतिः ॥ 133 ॥

राजराजेश्वरी, राज्यदायिनी, राज्यवल्लभा ।

राजत्-कृपा, राजपीठ निवेशित निजाश्रिताः ॥ 134 ॥

राज्यलक्ष्मीः, कोशनाथा, चतुरङ्ग बलेश्वरी ।

साम्राज्यदायिनी, सत्यसन्धा, सागरमेखला ॥ 135 ॥

दीक्षिता, दैत्यशमनी, सर्वलोक वशङ्करी ।

सर्वार्थदात्री, सावित्री, सच्चिदानन्द रूपिणी ॥ 136 ॥

देशकाला‌ परिच्छिन्ना, सर्वगा, सर्वमोहिनी ।

सरस्वती, शास्त्रमयी, गुहाम्बा, गुह्यरूपिणी ॥ 137 ॥

सर्वोपाधि विनिर्मुक्ता, सदाशिव पतिव्रता ।

सम्प्रदायेश्वरी, साध्वी, गुरुमण्डल रूपिणी ॥ 138 ॥

कुलोत्तीर्णा, भगाराध्या, माया, मधुमती, मही ।

गणाम्बा, गुह्यकाराध्या, कोमलाङ्गी, गुरुप्रिया ॥ 139 ॥

स्वतन्त्रा, सर्वतन्त्रेशी, दक्षिणामूर्ति रूपिणी ।

सनकादि समाराध्या, शिवज्ञान प्रदायिनी ॥ 140 ॥

चित्कला,‌ नन्दकलिका, प्रेमरूपा, प्रियङ्करी ।

नामपारायण प्रीता, नन्दिविद्या, नटेश्वरी ॥ 141 ॥

मिथ्या जगदधिष्ठाना मुक्तिदा, मुक्तिरूपिणी ।

लास्यप्रिया, लयकरी, लज्जा, रम्भादि वन्दिता ॥ 142 ॥

भवदाव सुधावृष्टिः, पापारण्य दवानला ।

दौर्भाग्यतूल वातूला, जराध्वान्त रविप्रभा ॥ 143 ॥

भाग्याब्धिचन्द्रिका, भक्तचित्तकेकि घनाघना ।

रोगपर्वत दम्भोलि, र्मृत्युदारु कुठारिका ॥ 144 ॥

महेश्वरी, महाकाली, महाग्रासा, महा‌உशना ।

अपर्णा, चण्डिका, चण्ड मुण्डा‌सुर निषूदिनी ॥ 145 ॥

क्षराक्षरात्मिका, सर्वलोकेशी, विश्वधारिणी ।

त्रिवर्गदात्री, सुभगा, त्र्यम्बका, त्रिगुणात्मिका ॥ 146 ॥

स्वर्गापवर्गदा, शुद्धा, जपापुष्प निभाकृतिः ।

ओजोवती, द्युतिधरा, यज्ञरूपा, प्रियव्रता ॥ 147 ॥

दुराराध्या, दुरादर्षा, पाटली कुसुमप्रिया ।

महती, मेरुनिलया, मन्दार कुसुमप्रिया ॥ 148 ॥

वीराराध्या, विराड्रूपा, विरजा, विश्वतोमुखी ।

प्रत्यग्रूपा, पराकाशा, प्राणदा, प्राणरूपिणी ॥ 149 ॥

मार्ताण्ड भैरवाराध्या, मन्त्रिणी न्यस्तराज्यधूः ।

त्रिपुरेशी, जयत्सेना, निस्त्रैगुण्या, परापरा ॥ 150 ॥

सत्यज्ञाना‌உनन्दरूपा, सामरस्य परायणा ।

कपर्दिनी, कलामाला, कामधुक्,कामरूपिणी ॥ 151 ॥

कलानिधिः, काव्यकला, रसज्ञा, रसशेवधिः ।

पुष्टा, पुरातना, पूज्या, पुष्करा, पुष्करेक्षणा ॥ 152 ॥

परञ्ज्योतिः, परन्धाम, परमाणुः, परात्परा ।

पाशहस्ता, पाशहन्त्री, परमन्त्र विभेदिनी ॥ 153 ॥

मूर्ता,‌ मूर्ता,‌ नित्यतृप्ता, मुनि मानस हंसिका ।

सत्यव्रता, सत्यरूपा, सर्वान्तर्यामिनी, सती ॥ 154 ॥

ब्रह्माणी, ब्रह्मजननी, बहुरूपा, बुधार्चिता ।

प्रसवित्री, प्रचण्डा‌ज्ञा, प्रतिष्ठा, प्रकटाकृतिः ॥ 155 ॥

प्राणेश्वरी, प्राणदात्री, पञ्चाशत्-पीठरूपिणी ।

विशृङ्खला, विविक्तस्था, वीरमाता, वियत्प्रसूः ॥ 156 ॥

मुकुन्दा, मुक्ति निलया, मूलविग्रह रूपिणी ।

भावज्ञा, भवरोगघ्नी भवचक्र प्रवर्तिनी ॥ 157 ॥

छन्दस्सारा, शास्त्रसारा, मन्त्रसारा, तलोदरी ।

उदारकीर्ति, रुद्दामवैभवा, वर्णरूपिणी ॥ 158 ॥

जन्ममृत्यु जरातप्त जन विश्रान्ति दायिनी ।

सर्वोपनिष दुद्घुष्टा, शान्त्यतीत कलात्मिका ॥ 159 ॥

गम्भीरा, गगनान्तःस्था, गर्विता, गानलोलुपा ।

कल्पनारहिता, काष्ठा, कान्ता, कान्तार्ध विग्रहा ॥ 160 ॥

कार्यकारण निर्मुक्ता, कामकेलि तरङ्गिता ।

कनत्-कनकताटङ्का, लीलाविग्रह धारिणी ॥ 161 ॥

अजाक्षय विनिर्मुक्ता, मुग्धा क्षिप्रप्रसादिनी ।

अन्तर्मुख समाराध्या, बहिर्मुख सुदुर्लभा ॥ 162 ॥

त्रयी, त्रिवर्ग निलया, त्रिस्था, त्रिपुरमालिनी ।

निरामया, निरालम्बा, स्वात्मारामा, सुधासृतिः ॥ 163 ॥

संसारपङ्क निर्मग्न समुद्धरण पण्डिता ।

यज्ञप्रिया, यज्ञकर्त्री, यजमान स्वरूपिणी ॥ 164 ॥

धर्माधारा, धनाध्यक्षा, धनधान्य विवर्धिनी ।

विप्रप्रिया, विप्ररूपा, विश्वभ्रमण कारिणी ॥ 165 ॥

विश्वग्रासा, विद्रुमाभा, वैष्णवी, विष्णुरूपिणी ।

अयोनि, र्योनिनिलया, कूटस्था, कुलरूपिणी ॥ 166 ॥

वीरगोष्ठीप्रिया, वीरा, नैष्कर्म्या, नादरूपिणी ।

विज्ञान कलना, कल्या विदग्धा, बैन्दवासना ॥ 167 ॥

तत्त्वाधिका, तत्त्वमयी, तत्त्वमर्थ स्वरूपिणी ।

सामगानप्रिया, सौम्या, सदाशिव कुटुम्बिनी ॥ 168 ॥

सव्यापसव्य मार्गस्था, सर्वापद्वि निवारिणी ।

स्वस्था, स्वभावमधुरा, धीरा, धीर समर्चिता ॥ 169 ॥

चैतन्यार्घ्य समाराध्या, चैतन्य कुसुमप्रिया ।

सदोदिता, सदातुष्टा, तरुणादित्य पाटला ॥ 170 ॥

दक्षिणा, दक्षिणाराध्या, दरस्मेर मुखाम्बुजा ।

कौलिनी केवला,‌ नर्घ्या कैवल्य पददायिनी ॥ 171 ॥

स्तोत्रप्रिया, स्तुतिमती, श्रुतिसंस्तुत वैभवा ।

मनस्विनी, मानवती, महेशी, मङ्गलाकृतिः ॥ 172 ॥

विश्वमाता, जगद्धात्री, विशालाक्षी, विरागिणी।

प्रगल्भा, परमोदारा, परामोदा, मनोमयी ॥ 173 ॥

व्योमकेशी, विमानस्था, वज्रिणी, वामकेश्वरी ।

पञ्चयज्ञप्रिया, पञ्चप्रेत मञ्चाधिशायिनी ॥ 174 ॥

पञ्चमी, पञ्चभूतेशी, पञ्च सङ्ख्योपचारिणी ।

शाश्वती, शाश्वतैश्वर्या, शर्मदा, शम्भुमोहिनी ॥ 175 ॥

धरा, धरसुता, धन्या, धर्मिणी, धर्मवर्धिनी ।

लोकातीता, गुणातीता, सर्वातीता, शमात्मिका ॥ 176 ॥

बन्धूक कुसुम प्रख्या, बाला, लीलाविनोदिनी ।

सुमङ्गली, सुखकरी, सुवेषाड्या, सुवासिनी ॥ 177 ॥

सुवासिन्यर्चनप्रीता, शोभना, शुद्ध मानसा ।

बिन्दु तर्पण सन्तुष्टा, पूर्वजा, त्रिपुराम्बिका ॥ 178 ॥

दशमुद्रा समाराध्या, त्रिपुरा श्रीवशङ्करी ।

ज्ञानमुद्रा, ज्ञानगम्या, ज्ञानज्ञेय स्वरूपिणी ॥ 179 ॥

योनिमुद्रा, त्रिखण्डेशी, त्रिगुणाम्बा, त्रिकोणगा ।

अनघाद्भुत चारित्रा, वांछितार्थ प्रदायिनी ॥ 180 ॥

अभ्यासाति शयज्ञाता, षडध्वातीत रूपिणी ।

अव्याज करुणामूर्ति, रज्ञानध्वान्त दीपिका ॥ 181 ॥

आबालगोप विदिता, सर्वानुल्लङ्घ्य शासना ।

श्री चक्रराजनिलया, श्रीमत्त्रिपुर सुन्दरी ॥ 182 ॥

श्री शिवा, शिवशक्त्यैक्य रूपिणी, ललिताम्बिका ।

एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः ॥ 183 ॥

॥ इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे, उत्तरखण्डे, श्री हयग्रीवागस्त्य संवादे, श्रीललितारहस्यनाम श्री ललिता रहस्यनाम साहस्रस्तोत्र कथनं नाम द्वितीयो‌ध्यायः ॥

सिन्धूरारुण विग्रहां त्रिणयनां माणिक्य मौलिस्फुर-त्तारानायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्या मलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतींसौम्यां रत्नघटस्थ रक्त चरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥

ललिता सहस्त्रनाम का पाठ श्री विद्या गुरु की आज्ञा या श्री कुल में दीक्षा लेने के बाद ही करना चाहिए अन्यथा योगिनीओ के शाप का भोगी बन सकते हैं ।

Kundalini Explained

कुंडलिनी सब योगोंमैं सबसे शक्तिशाली और उतना ही सबसे दुर्धर्ष योग हैं, गुरु आज्ञा और मार्गदर्शन के बिना प्रयत्न ना करे।

आध्यात्मिक शरीर (सात चक्र मंत्र और प्रभाव )

ललिता सहस्रनाम के अनुसार सात चक्र की अधिष्ठात्रि देवीयों के नाम और वर्णन निम्न दिए हैं

(१) विशुद्धि चक्र – डाकिनी देवी

विशुद्धि चक्रनिलया,‌रक्तवर्णा, त्रिलोचना 

खट्वाङ्गादि प्रहरणा, वदनैक समन्विता  

पायसान्नप्रिया, त्वक्‍स्था, पशुलोक भयङ्करी 

अमृतादि महाशक्ति संवृता, डाकिनीश्वरी 

(२) अनाहत चक्र – राकिनी देवी

अनाहताब्ज निलया, श्यामाभा, वदनद्वया 

दंष्ट्रोज्ज्वला,‌क्षमालाधिधरा, रुधिर संस्थिता  

कालरात्र्यादि शक्त्योघवृता, स्निग्धौदनप्रिया 

महावीरेन्द्र वरदा, राकिण्यम्बा स्वरूपिणी 

(३) मणिपुर चक्र – लाकिनी देवी

मणिपूराब्ज निलया, वदनत्रय संयुता 

वज्राधिकायुधोपेता, डामर्यादिभि रावृता  

रक्तवर्णा, मांसनिष्ठा, गुडान्न प्रीतमानसा 

समस्त भक्तसुखदा, लाकिन्यम्बा स्वरूपिणी  

(४) स्वाधिष्ठान चक्र – क़ाकिनी देवी

स्वाधिष्ठानाम्बु जगता, चतुर्वक्त्र मनोहरा 

शूलाद्यायुध सम्पन्ना, पीतवर्णा,‌तिगर्विता  

मेदोनिष्ठा, मधुप्रीता, बन्दिन्यादि समन्विता 

दध्यन्नासक्त हृदया, काकिनी रूपधारिणी  

(५) मूलाधार चक्र – साकिनी देवी

मूला धाराम्बुजारूढा, पञ्चवक्त्रा,‌स्थिसंस्थिता 

अङ्कुशादि प्रहरणा, वरदादि निषेविता  

मुद्गौदनासक्त चित्ता, साकिन्यम्बास्वरूपिणी 

(६) आज्ञा चक्र – हाकिनी देवी

आज्ञा चक्राब्जनिलया, शुक्लवर्णा, षडानना  

मज्जासंस्था, हंसवती मुख्यशक्ति समन्विता 

हरिद्रान्नैक रसिका, हाकिनी रूपधारिणी 

(७) सहस्त्रार चक्र – याकिनि देवी

सहस्रदल पद्मस्था, सर्ववर्णोप शोभिता 

सर्वायुधधरा, शुक्ल संस्थिता, सर्वतोमुखी ।।

सर्वौदन प्रीतचित्ता, याकिन्यम्बा स्वरूपिणी 

इन चक्रो की अधिष्ठात्रि देवीओ को ललिता सहस्त्रनाम के अनुसार ही समझना चाहिये निम्न चित्रोमैं उनका क्रम यथार्थ नहीं हैं।

1. आधार चक्र:

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह “आधार चक्र” रक्तवर्णी है।

९९.९(99.9)% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : “लं”

चक्र जगाने की विधि: मनुष्य तब तक पशुवत् है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है। इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है, यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव :

इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाते है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र :

यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है। जिसकी छ पंखुरियां हैं। यह चक्र कौसुम्भः, नारङगवर्णः का है।

अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है, तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : “वं”

कैसे जाग्रत करें :

जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती। लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं, वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। आप जानते हैं, नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते। प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो, तभी सिद्धियाँ आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुर चक्र :

नाभि के मूल में स्थित पित वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत “मणिपुर” नामक तीसरा चक्र है। यह चक्र स्वर्णिम (पित)वर्णी है।

जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है।

जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है, उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : “रं”

कैसे जाग्रत करें :

आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव :

इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-क्लेश दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4. अनाहत चक्र :

हृदय स्थल में स्थित हरितवर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश अक्षरों से सुशोभित चक्र ही “अनाहत चक्र” है।

अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

मंत्र : “यं”

कैसे जाग्रत करें :

हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और “सुषुम्ना” इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है। प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार आदि समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समक्ष ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगत व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्व प्रिय बन जाता है।

5. विशुद्ध चक्र :

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां “विशुद्ध चक्र” है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। यह चक्र नीलवर्णी है।

सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : “हं”

कैसे जाग्रत करें :

कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव :

इसके जाग्रत होने पर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है। वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटि में)

यह चक्र शौणवर्णी है।

में “आज्ञा-चक्र” है और जो दो पंखुरियों वाला है।

सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है, तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमागका बन जाता है। लेकिन वह सब कुछ जानने के बावज़ूद मौन रहता है। इसे “बौद्धिक सिद्धि” कहते हैं।

मंत्र : “ऊं”

कैसे जाग्रत करें :

भृकुटि के मध्य में ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव :

यहां अपार शक्तियाँ और सिद्धियाँ निवास करती हैं। इस “आज्ञा चक्र” का जागरण होने से ये सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र :

“सहस्रार” की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात् जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें :

“मूलाधार” से होते हुए ही “सहस्रार” तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह श्वेतवर्णका “चक्र” जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव :

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही “मोक्ष” का द्वार है।   

कुंडलिनी सब योगोंमैं सबसे शक्तिशाली और उतना ही सबसे दुर्धर्ष योग हैं, गुरु आज्ञा और मार्गदर्शन के बिना प्रयत्न ना करे।

जगज्जननी भट्टारिका महात्रिपुरसुन्दरी (Lalita Tripur Sundari) का ध्यान रहस्य

जगज्जननी भट्टारिका महात्रिपुरसुन्दरी का ध्यान श्लोक , जो श्रीदत्तात्रेय महागुरु के मुखारविन्द से प्रस्फुटित हुआ है । यह ध्यान श्लोक अनेक आगमिक रहस्यों से पूर्ण है ।

अरुणां करुणातरंग्ड़िताक्षीं

धृतपाशांकुशबाणचापहस्ताम्।

अणिमादिभिरावृतां मयूखै-

रहमित्येव विभावये भवानीम्।।

अर्थात् मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ। उनके शरीर का रंग लाल है, नेत्रों में करुणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं ।

अरुण – लाल रंग

मयूख – किरण , चरण की कान्ति

अणिमादि- अष्ट सिद्धियां

करुणा – दया

तरंगित – लहरदार, उन्मेष

अक्ष – आँख , मातृका ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक ज्ञान शक्ति।

पाश, अंकुश, बाण और धनुष

श्रीललिताम्बा के षोडशी रूप का वर्णन है।

शाम्भवी शुक्लरूपा च #श्रीविद्या_रक्तरूपगा।

श्यामला श्यामरूपाख्या. एताश्चगुणशक्तय:।। श्रीविद्या ललिताम्बा का शरीर रूप #अरुणाभ अर्थात् लाल रंग – रक्त रूपगा है और लाक्षा के रंग जैसा है । तुलना करें। कादि मत में कहा गया :

#त्वत्देहोत्थिततेजोभि: किरणैरणिमादिभि:।

आदृतां त्वां महति भावयेस्त्वत्समो भवेदिति।।

हे देवि! तुम्हारी देह से प्रष्फुटित तेजमय किरणों , समस्त अष्ट सिद्धियों का जो रूप है, भावना द्वारा भक्त तुम्हारे समान ही हो जाता है।

अक्ष:– मातृका , जो श्रीदेवी के दोनों नेत्र हैं। मीनाक्षी हैं।

#आदिमुखा कादिकरा टादिपदा पादिपार्श्वयुड्मध्या।

यादि हृदया संविद्रूपा सरस्वती जयति ।।( महामहेश्वर अभिनवगुप्त)

स्वर वर्ण मुख, कवर्ग हाथ, टवर्ग पैर, पवर्ग जंघा, यवर्ग हृदय ऐसी संवित रूप वाली सरस्वती की जय हो ।संवित् – 365 दिनमान से अतीत अब श्रीभगवद्पादाचार्य शंकराचार्य महाराज सौन्दर्यलहरी में कह रहे हैं:

स्वदेहोद्भूताभिर्घृणिभिरणिमाद्याभिरभित:

निषेव्ये नित्ये त्वामहमिति सदा भावयति य:।

किमाश्चर्यं तस्यत्रिनयनसमृद्धिं तृणयत:

महासंवर्ताग्निर्विरचयति नीराजनविधिम्।।( सौन्दर्य लहरी 30)

अर्थात् हे नित्ये! आश्पके शरीरावयवभूत चरणों से उत्पन्न रश्मियों एवं अणिमादि अष्टसिद्धियों से घिरी हुई आपका जो साधक “ अहं” इस अभेद भावना से ध्यान करता है, सूर्य चन्द्राग्नि रूप समृद्धि वाले अथवा इड़ा, पिंग्ड़ला, सुषुम्ना के उपायों से प्राप्त होने वाले, सदाशिव की समृद्धि को तुच्छ समझने वाले उस साधक की आरती प्रलयकालीन संवर्ताग्नि भी करे तो इसमें कौन सा आश्चर्य है ।

भाव यह है कि “ अहं” परामर्श दृढ़ होने पर तादात्म्य सिद्ध जब हो जाता है ऐसे साधक की आरती प्रलयाग्नि भी उतारती है, इसमें आश्चर्य की क्या बात है!

श्रीललिताम्बा सोलह नित्याओं के रूप में प्रत्येक मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा और अमावस्या तक आराधित होती हैं । ( खड्गमाला और नित्याएं )

मयूख: चरणों से निकलने वाली किरणें

पृथ्वी से 56, जल से 52, अग्नि से 62, वायु से 54, आकाश से 72, और मन से 67 मयूखों की संख्या है।कुल 363 मयूख ।

अग्नि में 108, सूर्य में 116 और चंद्र में 136 कलाएं हैं – कुल 360 कलाएं – एक सम्पूर्ण वृत्त गोल ।

इन सबके ऊपर श्रीदेवी के दिव्य चरण हैं ।

इसका संदर्भ श्रीभाष्कर राय मखीन ने वरिवस्या रहस्य के ध्यान और न्यास के प्रसंग मे किया है । ध्यान- अरुणा करुणा—-, छंद- पंक्ति आदि अपने भाष्य में लिखा है ।(श्लोक 161)।

यह ध्यान श्लोक अति रहस्यमय है और गहन है ।

Batuk Bhairav

According to Shat Rudra Sanhita (5/2) of Shiv Puran, Parmeshwar Sadashiva took an Avatar of Lord Bhairava on Margshirsh Krishna Paksha Asthami hence he must be worshiped as Shakshat Shiva

भैरव: पूर्णरूपो हि शंकरस्य परात्मन:।

मूढास्तं वै न जानन्ति मोहिताश्शिवमायया।।

Translation- Bhairava is Completely Shiva, Ignorant don’t recognise this due to delusion by Maya of Shiva.

The ancient text Shakti Sangam Tantra in its Kali Khand chapter has mentioned the origin of Lord Batuk Bhairav. According to the text, once a demon named Aapat had gained powers through Sadhanas and he used it to harass everyone including the gods.

The gods then got together and started to think of ways to find a solution to this problem. As they started concentrating, their powers appeared as a flash of light and took the form of a five year old child, Batuk. The child, then, killed the demon and saved the gods which is why he is known as Aapat Uddharak Batuk Bhairav.

In tantra and other Hindu puja, this is the most worshiped form of Lord Bhairav among the various forms of Bhairav. All other forms of Bhairav are terrifying apart from this as this is in the form of a child. He is also known as the child form of Lord Shiva. The image of Batuk Bhairav is displayed with a dog accompanying him, which is symbolized as dharma.

He is said to be pleased by the devotion of the worshippers and conducting puja and homam is said to take away all the obstacles and cleanse the soul. Also, the dogs, especially the black dogs are considered to be the form of Bhairav and feeding the dogs every Saturday and taking care of them is also said to please the god and bring good fortune.

Worship of any mahAvidyA is incomplete without the propitiation of vaTuka: the bhairava in the form of a brahmachArin youth. It is stated in skandayAmaLa that among the nine essentials for mantra-siddhi, guru, gaNapati and vaTuka are of primary importance without their grace, parAshakti is not pleased with the sAdhaka. While vaTuka has sAttvika, rAjasika and tAmasika forms based on kriyA-bheda, he is popularly depicted as below:

वटुकं बालवेषं च नागयज्ञोपवीतिनम् |

कपालशूलभूषाढ्यं स्वयूथैः परिवेष्ठितम् ||

कुक्कुरैर्नववर्णैश्च वेष्टितं ब्रह्मरूपिणम् |

द्वादशारस्थितं देवं प्रत्यक्ष्यफलदं कलौ |

प्रेतासनसमासीनं त्रैलोक्यजयदं भजे ||

vaṭukaṃ bālaveṣaṃ ca nāgayajnopavītinam |

kapālaśūlabhūṣāḍhyaṃ svayūthaiḥ pariveṣṭhitam ||

kukkurairnavavarṇaiśca veṣṭitaṃ brahmarūpiṇam |

dvādaśārasthitaṃ devaṃ pratyakṣyaphaladaṃ kalau |

pretāsanasamāsīnaṃ trailokyajayadaṃ bhaje ||

The origin of the mUrti named vaTuka is described variously in the tantras. The shAkta version is presented here. It is said, that at some point in the present kalpa, the universe was permeated with various beings such as vetAla-s, preta-s, pishAcha-s, kUShmANDa-s, yakSha-s, rAkShasa-s, kinnara-s, gandharva-s and grahas of various categories such as brAhma, vaiShNava, raudra, aindra, gANapatya, kaumAra, pAshupata and saura. While being devoted to a particular deity (such as gANapatya grahas to gaNapati and his upAsakas), they also created havoc and robbed sAdhakas of the merit of their japa and worship. To protect the world and the well-being of upAsakas, bhagavatI AdyA mahAkAlI conceived the divine form of vaTuka:

वेतालाद्या महादेवि जपपूजादिहारकाः |

तेषां विनाशनार्थाय भक्तानुग्रहणाय च |

वटुकोऽयं महेशानि महाकाल्या विभावितः ||

vetālādyā mahādevi japapūjādihārakāḥ |

teṣāṃ vināśanārthāya bhaktānugrahaṇāya ca |

vaṭuko.ayaṃ maheśāni mahākālyā vibhāvitaḥ ||

The form and essence of vaTuka bhairava were derived from the tejaH of innumerable forms of yoginI-s, bhairava-s, mahAvidyA-s and various manifestations of kAlI, tArA, tripurasundarI, bAla, ChinnamastA, bagalAmukhI, bhuvaneshvarI, dhUmAvatI and mAta~NgI.

पञ्चाशत्कोटिगणना योगिनीनां तु कोटिशः |

भैरवाणां कोटिकोटिर्महाविद्यास्त्वनेकशः ||

त्रिखर्वसंख्या तारा स्यात् काली दशार्बुदा शिवे |

कलाकोटिप्रभेदा तु सुन्दरी तेन संयुता ||

बाला त्रिकोटिसंख्याभिश्छिन्ना षोडशखर्वतः |

षड्विंशल्लक्षब्रह्मास्त्रैश्चन्द्रषोडशमायुता ||

कोटिद्वादशभिर्देवि भुवनांशेन पार्वति |

धूम्रकला लक्षभेदैः सिद्धविद्याख्यतत्त्वतः ||

चतुरशीतिलक्षैश्च मातङ्गीमन्त्रतः शिवे |

एतत्सर्वमयं तेजः सर्वब्रह्माण्डरूपधृक् |

सर्वतेजःसमुद्भूतं वटुरूपं सनातनम् ||

pancāśatkoṭigaṇanā yoginīnāṃ tu koṭiśaḥ |

bhairavāṇāṃ koṭikoṭirmahāvidyāstvanekaśaḥ ||

trikharvasaṃkhyā tārā syāt kālī daśārbudā śive |

kalākoṭiprabhedā tu sundarī tena saṃyutā ||

bālā trikoṭisaṃkhyābhiśchinnā ṣoḍaśakharvataḥ |

ṣaḍviṃśallakṣabrahmāstraiścandraṣoḍaśamāyutā ||

koṭidvādaśabhirdevi bhuvanāṃśena pārvati |

dhūmrakalā lakṣabhedaiḥ siddhavidyākhyatattvataḥ ||

caturaśītilakṣaiśca mātaṅgīmantrataḥ śive |

etatsarvamayaṃ tejaḥ sarvabrahmāṇḍarūpadhṛk |

sarvatejaḥsamudbhūtaṃ vaṭurūpaṃ sanātanam ||

From the congregation of the tejaH or luminous essence of those myriad deities was born the mUrti of vaTuka bhairava due to the samkalpa of AdyA mahAkAlI. He was endowed with the energies of the trimUrti-s and their corresponding shakti-s, earning him the name guNatrayasvarUpavAn (sattva, rajaH and tamas). Based on predominance of sattva, rajas or tamas, vaTuka appears in three major forms. However, based on the predominance of one of the ten mahavidyA-s who constitute his form, he also appears in ten forms propitiated by the shAkta-s.

After the appearance of vaTuka, he was gifted with an upavIta by ugratArA. He was awarded a kapAla by ChinnamastA and granted the mastership of time and death by kAlikA. He was also given a trishUla with its three prongs presided over by shaktitraya – kAlI, tArA and ChinnamastA. Categories of various beings such as siddha-s, sAdhyas etc. assumed the form of nine dogs and began to serve vaTuka. It was then revealed by mahAkAlI that it was shiva, based on her samkalpa, who had materialized as vaTuka and would henceforth be referred to as ‘devIputra’, reasserting her status as jagadyoni. vaTuka gained control over vetAlAdi grahas and by propitiating him during one’s upAsanA, the sAdhaka is not bothered by any malevolent graha and is protected from every kind of distress and danger.

The jayantI tithi of vaTuka bhairava is shuddha-dashamI of jyeShTha mAsa.

The esoteric aspect of vaTuka is described thus by mahAmAheshvara abhinavaguptapAdAchArya:

वरवीरयोगिनीगणसिद्धावलिपूजितांघ्रियुगम् |

अपहृतविनयजनार्तिं वटुकमपादानाभिदं वन्दे ||

varavīrayoginīgaṇasiddhāvalipūjitāṃghriyugam |

apahṛtavinayajanārtiṃ vaṭukamapādānābhidaṃ vande ||

बटुक भैरव ध्यानः-

कर-कलित-कपालः कुण्डली दण्डपाणिस्तरुण-तिमिर-नील वर्णो व्याल-यज्ञोपवीती ।

क्रतु-समय-सपर्या-विघ्न-विच्छेद-हेतुर्जयति बटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ।।

The jayantI tithi of Batuka bhairava is shuddha-dashamI of jyeShTha mAsa.

His Priya Bhog is Doodhpak and Vada or Pakoda of Arad fried in Tal tel or Sarsav, Sometimes bundi laddoos.

Source: Rakeshbhai Vyas London and Harshadanandji (Nirvana Sundari Group)

Shri Vidya Guru Shri Nitaben

Jai Bahuchar Jai Gurudev All

On the day of successful completion of my Guru Mantra Anusthan, I would like to introduce Shri Nitaben who is tirelessly extending Param Pujya Shri Devibaa’s and Param Pujya Shri Shivguruji’s work in UK.

Param Pujya Shri Nitaben (Shukladevya Amba) was born 03/02/1959 in Mombassa, Kenya. She is the youngest of Shri Devi Ba and Shri Shiv Guruji’s 3 children, Shri Urvashiben, Shri Kiritbhai & Shri Nitaben were initiated in Shri Vidya at the age of 13 by Shri Guru Devshankar Trivedi.

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 She married Shri Maheshkumar in 1975 and moved to London. Shri Nitaben has done numerous anushtaans and is an expert in Pujan and spiritual advice. Since the passing of her parents she is now the Head of the Shri Vidya Upasna Mandal UK.
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Given Purnadiksha by Shri Dev Shankar  Trivedi – Sanand, she has climbed to the heights of spiritual accomplishment.  Through Her continuous guidance and Her unlimited Motherly love, She has many  disciples in the UK and India and continued the Shri Vidya Jyotir Dharo.

Shri Nitaben is doing Puja in early November 2017 in UK as below,

Sri Nitaben with my Gurudev on the eve of Guru Purnima 2018

Guru Purnima Ashirvachan 2018

Shri Vidya Guru Shri Urvashiben (My Guru)

 Jai Bahuchar Jai Gurudev All

Around from last 3 years, To satisfy my eagerness for knowing all the unknown facets of macrocosm(universe) and microcosm(my body), I was looking for a philosophical cum scientific system or path which covers everything. I started to look for a Guru who can initiate me and teach me the hidden secrets of the such knowledge. My friend who said, “It is the Guru who finds a Shishya (disciple), not at the wish of Shishya.” I just thought I will wait until my Guru will appear to me at the right time.

I am a Shakta (Shakti Upasak-Devotee) and I feel infinite love and devotion for Goddess Bahucharaji (Bala Tripura Sundari). Out of love,  I installed a Bala Yantra  at home. To meditate on the Yantra, I started reciting Beej (seed) Mantra written on the Yantra with the intention to find me a right Guru, it is said that such Mantras must not be recited without mantra Deeksha(initiation) from a capable Guru but it was Bala’s wish to take me to the Guru. I came to know about Shri Vidya straight after starting reciting this Mantra, read more and more about Shri Vidya. It attracted me so strongly especially because Shri Vidya is confluence of  Advaita Vedanta , Bhakti yoga , Raja Yoga and Tantra(Kundalini Yoga). I was reading the book of Swami Rama of Himalayas (Who was Shri Shankaracharya at one time in his life) called “Living with Himalayan Masters” where he said Shri Vidya is the highest path of all paths,highly technical, shortest and toughest too. It is said that you can only know Shri Vidya (Lalita Tripur Sundari) only if she wishes so.

It is said in fal Shruti of Lalita Sahastranamam that you must, in past lives, have done thousands of years of sadhana of all the devatas such as Vishnu, Shiva, etc. to reach this point. It is said that one can obtain initiation into Srividya only if one is in his/her or his final birth – or is verily Shiva Himself. I was sceptical whether I will be able to even get an understanding about Shri Vidya. I searched for Gurus from Jyotirmani Peeth in Uttarakhand to South India to suit my need but some places didn’t have workshops running or Gurus who can talk to me, some were too busy to talk. I can understand now that Bala had something else pre-planned for me.

The long awaiting wait supposed to be finished in mid August 2017, Being a science and technology student I never used to believe such thing as a divine interventions at such small level which drives your life and probably you wouldn’t believe me too. One day I was browsing something on my mobile phone and suddenly the website www.shrividya.com opened in front of me. I started reading about it and felt this is it, this the place I belong to. It is 4okms away from hometown Mehsana where I lived almost 25 years but never came across.

On 21 August 2017 at 3:04pm (Singapore time) I rang on the landline number given on the website. It was Somvati Amas of holy month of Shravan and lot of puja/hawan was happening on the other side of the phone. The sweet voice from other side said “Jai Ambe Jai Gurudev”, I copied and started to tell why I rang. That voice was from Shri Urvashiben-Current Peethadhipati of Kadi Shri Vidya Learning Centre of Shri Vidya Pashupat (Kashi) Parampara. I call her Gurubaa (Daughter of Shri Devibaa and Shri Shivguruji). She calmly listened and suggested to start Shri Suktam before I go to the Shri Vidya learning centre called Raj  Rajeshwari Peeth at Kadi, North Gujarat. I reciprocated and started the Shri Suktam with pure devotion. You believe me or not but then started series of dreams related to Gurus, Devi and Peetham. I called her many times within next 5-6 weeks and she always replied with motherly voice and love. I finally made my mind to see her when I travel to India in October 2017. On the very first day in India, I went to see Shri Gurubaa at Kadi with my younger brother. She explained and advised what is next to be done. Gurubaa  gave me and my brother a Mantra  Deeksha(initiation) on very auspicious day of Diwali. We feel very lucky belonging to such a rich Parampara. If we want to save the Pramapara for future generations, we have to follow it first. The Shakta shastras allow of women being Guru, or Spiritual Director, a reverence which the West has not (with rare exceptions) yet given them. Initiation by a Mother bears eightfold fruit. Indeed to the enlightened Shakta the whole universe is Stri or Shakti. Indeed, in some texts initiation by a female guru is considered the highest form of induction into Shri Vidya. As Stri already posses Devi’s attributes physiologically and psychologically.

Param Pujya Shri Urvashiben is the oldest daughter of Param Pujya Sri Devi Ba and Param Pujya Shiv Guruji who are the founders of the Shri Rajrajeshwari Peetham in Kadi.

Born on 30th October 1950, Param Pujya Urvashiben married Shri Jagdishchandra on the 10th March 1969 and have 2 sons and 2 grandchildren.  From an early age, growing up in a spiritual household,  Uravashiben received insight and knowledge of Sri Vidya from her parents and Guru Parampara culminating in her being given Purnadiksha and is currently Peethdheesh of the Kadi Shri Vidya Peetham,

Shri Urvashiben tirelessly leads the Peetham in Gujarat and the Shri Vidya Guru lineage by teaching and guiding sadhakas in to this discipline and selflessly emanating Her divine Love. Shri Vidya Pujans and Archans are carried out daily, ans she travels at lengths around Gujarat to teach and propagate true Shri Vidya.

Having a warming smile, a radiant personality, always welcoming and full of Motherly Love, she has many disciples and has given Purnadiksha to many. She is a true living Devi (Tvarit Amba) and a leading female Shri Vidya Guru in the world.

Gurudev’s Akhada is behind Kaal Bhairav nath temple, Kashi, a place called bibi satiya, asķ any one where is Kaul Bhatt ka Akhada.

Shri Vidya Guru Shri Shivguruji

Jai Bahuchar Jai Gurudev my fellow Sadhakas,

On the 8th day of my Guru mantra Anusthan, I would like to introduce the rare jewel of my Guru Mandal (Circle of Gurus) who dissolved himself in, nurtured and spread the Shri Vidya Reet until 2006. This my tribute to the entire Guru Mandal.

Shri ShivGuruji was  one of the Guru of Shri Vidya Kashi Pashupat Parampara, who started to spread the Vidya (knowledge) to the worthy ones across the Gujarat and overseas specially Africa, UK. USA and Australia. He is my Param Guru (My Guru’s Guru), he and his wife Param Pujya Shri Devibaa established Raj Rajeshwari Peeth (Shri Vidya learning) Peeth in Kadi, North Gujarat which has turned into Kadamb Van of Shri upasakas of Shri Vidya Pashupat Parampara.

Param Pujya Shri DeviBaa and Param Pujya Shri ShivGuruji were main disciples of Shri Devshankar Trivedi (Shri Devshankar Dada/).

Param Pujya Shri ShivGuruji was born on 25/8/1929 to a very influential family in Kadi, North Gujajrat, ShivGuruji’s father was a leading Freedom Fighter.  ShivGuruji was introduced into Shri Vidya by his wife Shri Devi Ba.  He received diksha from Shri Devshankar Trivedi Guruji and immersed himself totally into Shri Vidya.

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Guruji was an ideal gentleman and had a very warm and fatherly presence. He was always kind, supportive and spent much time in teaching Shri Vidya.  Shri Shivguruji would spend 6 months in Kadi and 6 months abroad teaching Shri Vidya to many disciples around the world.  He propagated the Shri Vidya Mandal UK which is based in the UK, which carries out Shri Vidya related functions and pujas.

As a combined effort, Ba and ShivGuruji, established the first Shri Vidya centre called Shri Raj Rajeshwari Peetham in Gujarat in 1983.  Their unending contribution and service to humanity has led to the propagation of Shri Vidya not only in India but abroad in countries like Africa, America and Europe as per Guru Parmampara. 

Both Ba and Shivguruji initiated many disciples across the globe – in the UK / US. Australia, Africa and India. They both propagated the Divine knowledge of Shri Vidya on a large scale and carried out many divine functions and pujas globally.

Many of these pujans have not been carried out in hundreds of years and each was conducted to the strictest of rules according to Tantra Shastra. Many Gajmakhas have been carried out including conducting the first one outside India ever on 01/01/2000 – coinciding with the Millennium in UK.

Regular pujans include – Lalita Sahasranam Suvasini Puja, Lalita Maha Yagas, Das Maha Vidya Puja, the historical Ashtaashtaka Mahayaga,Shat Chandis, Lalitha Sahasranam Chatur Laksharchana, Annakoot Vaibhav, Laksh Deep Archan and Koti Shodashiamba Makha and 1000 Shri Pujans performed daily for 1000 days!

Both ShivGuruji and Ba took Shri Vidya in the current Century, to such great heights and founded and created one of the most vibrant, active and authentic Peethams alive in the modern age.

(In the photo Shri Kiritbhai)

They were graced with three children, the eldest being Shri Kirit Bhai, Shri Urvarshi Ben and Shri Nita Ben.  All three have achieved Purnabhashika in their own right.  As a stula form of Kameshwar Kameshwari, hundreds of disciples have been initiated in the Shri Vidya tradition. Many miracles were credited to Ba and ShivGuruji.

The great tradition and lineage is kept alive today by their daughter Param Pujya Shri Urvarshi Ben who is the Peethadhipati of Shri Raj Rajeswari Peetham Kadi, Gujarat.

ShivGuruji attained Mahasmadhi and left for Manidweepam on 8/6/2006.

Source: http://www.shrividya.com/gurus

Shri Vidya Guru Shri Devibaa

Jai Bahuchar Jai Gurudev my fellow Sadhakas,

On the 8th day of my Guru mantra Anusthan, I would like to introduce the rare jewel of my Guru Mandal (Circle of Gurus) who dissolved herself in, nurtured and spread the Shri Vidya Reet until 2009. This my tribute to the entire Guru Mandal.

Shri Devibaa was  the Guru of Shri Vidya Kashi Pashupat Parampara, who started to spread the Vidya (knowledge) to the worthy ones across the Gujarat and overseas specially Africa, UK. USA and Australia. She is my Param Guru (My Guru’s Guru) and She and her husband Param Pujya Shri Shivguruji established Raj Rajeshwari Peeth (Shri Vidya learning) Peeth in Kadi, North Gujarat which has turned into Kadamb Van of Shri upasakas of Shri Vidya Pashupat Parampara.

Param Pujya Shri Devibaa and Param Pujya Shri ShivGuruji were main disciples of Shri Devshankar Trivedi (Shri Devshankar Dada/).

Param Pujya Shri DeviBa was born on Magsar Shudh Beej on 3/12/1929.

 Little is known about her parents as they passed away at an early age. Ba’s maternal aunt and uncle bought her up. From a very young age, it was obvious that she was an extraordinary girl. Even at this tender age, Param Pujya Baa showed an immense passion towards spirituality.  

From a very early age, Shri Devi Ba showed signs of a deep yearning for spirituality and She would eventually become a modern day Saint of the highest degree. Fondly known as Ba, She would spend most of her time in puja, path, organising satsangs and serving sadhu sants from a very early age.

She married Shri ShivGuruji on 11/05/43 and they spent the rest of their lives in Kadi, North Gujarat. Both were initiated into Shri Vidya and their hard work, anustaans and upasna directed them towards obtaining Purnabhasheka by Guru Shri Devshankar Shastry, Rajuguru of Sanand State, Gujarat. They were a perfect example to mankind of an ideal yugal damapati.  Both forever immersed in the Divine light of Sri Vidya.

On meeting Param Pujya Ganpatram Guruji, She was asked to be given diksha. Humbly Ba replied that she is not ready yet, most people would have accepted mantra diksha with glee, however this showed her humble and selfless nature.

Later she was given Mantra Updesh and Purnabhishek by Shri Dev Shankar Trivedi – himself a direct shisya of Shri Ganpatram Guruji. Ba’s Guru bhakti was unparalleled, she embodied the qualities of a perfect shishya. Day by day she became more engrossed in nitya pujan (daily pujan) along with balancing her married life, duties to her extended family and her children. Ba lived in a very orthodox household and would finish her nitya archan early morning and before completing her household duties. Shri Devi Baa and Shri Shiv Guruji going to do pujan of  Shri Devshankar Dada before travelling to UK.

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Having a perfect balance of family and spiritual life, Ba set a excellent example of how upasna should be carried out for house holders and how to integrate it for every day, without neglecting our samsaric duties.

In the mid 1970’s Ba took an oath to perform 1 koti japas of the Shri Vidya mantra, whilst standing in the river Narmada waist deep in the water.

She lived in a hut on the banks of the river at Malsar for 3 and a half years to successfully complete her tapasya. The hut where she stayed was in the midst of wild animals and fearsome Aghoris.  After this intense tapasya, Ba did not want to come back and spend the remainder of her days in deep sadhana.

 Whilst in the waters of the Narmada River, she received Divine Darshan, Devi came to her and recited the verse and name of Shri Lalita Tripursundari – Name 880. “Samsara panga nirmagna samuddharana panditha” Stuck in the mud of samsara she needed to become like a lotus. Unscathed by the mud, she should flower in her upasna and share the glory of this wonderful upasna of Sri Vidya to the world.

Param Pujya Shri Dev Shankar Trivedi (Ba’s Guru) also instructed Ba not ignore society and spread the divine Shri Vidya to the worthy, to guide people in this Sacred path and continue the Shri Vidya Pashu Pat Parampara lineage. Respecting her Gurujl’s wish Ba settled in Kadi and set up the Raj Rajeshwari Pitham in the late 70’s and started guiding sadhakas on this royal path of Shri Vidya.

With the support of Shri Shivguruji they both became the a ideal yugal dampati.- epitomy of the Divine Couple – Kameshwar and Kameshwari.

They were graced with three children, the eldest being Shri Kirit Bhai, Shri Urvarshi Ben and Shri Nita Ben. All three have achieved Purnabhashika in their own right. As a stula form of Kameshwar Kameshwari, hundreds of disciples have been initiated in the Shri Vidya tradition. Guruji initiated many shisyas in India and around the world and is considered to be one of the first pioneers to spread trueShri Vidya abroad.

The great tradition and lineage is kept alive today by their daughter Param Pujya Shri Urvarshi Ben who is the Peethadhipati of Shri Raj Rajeswari Peetham Kadi, Gujarat.

Param Pujya Shree DeviBa left for Manidweepam on 19/12/2009. It is felt that Shri DeviBa’s Tatva went to Manidweepam but it appears that her Devi Tatva is dissolved into her daughters who are as Matamayi as Shri Devi Ba.

Shri DeviBaa (middle) with her daughters – Nitaben (Left) and Urvashiben (Right)- She is my Guru.