कौलाचार (Kaulachar)

शाक्तागम ग्रन्थों यथा विश्वसारतंत्र, महाचीनाचार तंत्र, कुलार्णव तंत्र, महानिर्वाण तंत्र समयाचार तंत्र तथा सर्वोल्लास तंत्र में विभिन्न भावों तथा आचारों के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार –

‘‘सर्वेम्यश्चोत्तमा वेदा-वेदेम्यो बैष्ण्ंवं परम

वैष्णवादुत्तमं शैवं-शैवादक्षिण मुत्तमंम्

दक्षिणात् उत्तमं वामं-वामात् सिद्धान्त उत्तमम्

सिद्धान्तात् उत्तमं कौलं-कौलात् परतरं नहिं।।’’

(वेदाचार से श्रेष्ट वैष्णवाचार है। वैष्णवाचार से श्रेष्ट शैवाचार है। शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार है। दक्षिणाचार से श्रेष्ट वामाचार है। वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार तथा सिद्धान्ताचार से श्रेष्ट कौलाचार है।)

इन आचारों को तीन भावों के अन्तर्गत माना गया है। विश्वचार तंत्र के अनुसार-

‘‘चत्वारो देवि वेदाद्याः-पशुभावे प्रतिष्ठिता

वामाद्यास्रय आचारा-दिव्ये वीरे प्रकीर्तिता’’

(प्रथम चार आचार पशुभाव, वाम तथा सिद्धान्ताचार वीरभाव एवं कौलाचार को दिव्यभाव के अन्तर्गत माना गया है)

उपरोक्त सातों आचारो का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(1) वेदाचार-

वेदाचारी उपासक वेदाध्ययन करके वेदमाता गायत्री की उपासना करता है। अष्टांगयोग तथा ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह’ का पालन करके एक ग्रहस्थ सन्त की भांति आचरण करता हुआ श्रद्धा-विश्वासर्पूवक सदैव ब्रह्मप्राप्ति हेतु मन, वचन, कर्म से प्रयास करता है। वेदाचार का पालन करके साधक की बाह्यशुद्धि हो जाती है।

(2) बैष्णवाचार-

ईश्वरीय शक्तियों में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्तियोग का अनुयायी, परोपकारी, निराभिमानी तथा सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति जब नवधाभक्ति पूर्वक श्रीबिष्णु के विभिन्न नामों तथा उनके अवतारों (राम, कृष्ण) तथा राधा-कृष्ण का नाम जप एवं संकीर्तन करता है तो उसे बैष्णवाचारी कहते हैं। साधक हरिप्रिया तुलसी का पूजन करता है। तुलसीमाला से जप तथा उसे धारण भी करता है। बैष्णवाचार का पालन करने से साधक की चित्तशुद्धि हो जाती है तथा वह गुरूभक्त बन जाता है।

(3) शैवाचार-

शिव तथा शक्ति की ऐक्यता पर विश्वास रखने वाला, भक्ति करने की क्षमता रखने वाला, स्वधर्म पालन तथा स्वधर्म की रक्षा करने वाला विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति जब शिव-शक्ति की पूजोपासना करता है तो उसे शैवाचारी कहते हैं। ऐसा साधक भस्म तथा रूद्राक्ष धारण करता है। वह सदैव विशुद्ध ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

(4) दक्षिणाचार-

दक्षिणाचार उपासना पद्धति में साधक न केवल पुरूष तत्व (शिव) वरन् प्रकृति तत्व (शक्ति) की महत्ता को भी स्वीकार करता है। शक्ति की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन स्वरूपों पर विश्वास रखते हुए द्वैतभावना तथा देहाभिमान पूर्वक शिव-शक्ति की पूजोपासना में तत्पर रहता है। प्रथम तीन आचारों का पालन करके उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके निदिध्यासन का अभ्यास करता रहता है।

उपरोक्त चारों आचार पशु आचार तथा अधम उपासना के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन सभी आचारों में भक्तियोग योग का दास्यभाव, साधक का द्वैतभाव तथा देहाभिमान विद्यमान रहता है। ऐसा साधक उन पंच-कंचुकों तथा अष्टपाशों से आबद्ध रहता है जिनसे मुक्त हुए बिना ब्रहमप्राप्ति सम्भव नहीं है। ऐसे साधक में उस प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्मबल का अभाव रहता है जिसके बल पर एक बीर साधक अपने प्राणों को घोर संकट में डालकर भी परमलक्ष्य (ब्रह्मप्राप्ति) की प्राप्ति कर लेता है।

(5) सिद्धान्ताचार-

वामाचार की समस्त साधनाओं को पूर्णकरके तथा उस साधना से अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर साधक सिद्धान्ताचार में प्रवेश करता है। ऐसा साधक अपने मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करके समस्त शंकाओं से रहित होकर उस ‘स्थितप्रज्ञ’ अवस्था में पहुंच जाता है जिसका विवरण ‘भगवत् गीता’ में दिया गया है। वह सदैव भैरव वेश धारण कर ब्रहमानन्द का अनुभव करता रहता है।

सम्प्रदाय भेद के कारण कहीं पर सिद्धान्ताचार को वामाचार साधना से पूर्व तथा कहीं पर वामाचार के पश्चात स्थान दिया गया है। वास्तव में वामाचार तथा सिद्धान्ताचार दोनों ही वीराचार के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(6) वामाचार (वाममार्ग)-

विभिन्न आगम ग्रन्थों में वाममार्ग की श्रेष्टता, गोपनीयता तथा इस प्रकाशमान आध्यात्मिक महापथ पर चलकर परमेश्वरत्व प्राप्त करने वाले साधक के लक्षणों का जो वर्णन किया गया है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

भगवान श्री शिव द्वारा वाममार्ग को अत्यन्त दुर्गम तथा योगियों के लिए भी अगम्य माना गया है-

‘‘वामो मार्गः परम गहनो-योगिनामप्यगम्यः’’

पुरश्चर्यार्णव नामक तंत्र ग्रन्थ में वाममार्ग को सर्वोतम, सर्वसिद्धिप्रद तथा केवल जितेन्द्रिय व्यक्ति के लिए ही सुलभ माना गया है-

‘‘अयं सर्वोत्तमं धर्मः-शिवोक्त सर्वसिद्धिदः

जितेन्द्रियस्य सुलभो-नान्यथा नन्त जन्मभिः’’

अर्थात् इन्द्रिय-लोलुपव्यक्ति अनन्त जन्मों में भी इस साधना का अधिकारी नहीं बन सकता है।

भगवान श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि कि हे देवि! इस उत्कृष्ट वाममार्ग की साधना को सदैव परम गोपनीय रखना चाहिए-

‘‘अतो वामपथं देवि! गोपये मातृजारवत्’’

प्रसिद्ध आगमग्रन्थ ‘मेरूतंत्र’ का कथन है कि केवल वही साधक वाममार्ग की साधना का अधिकारी हो सकता है जो दूसरों के धन को दखकर अन्धा, परस्त्री को देखकर नपुंसक तथा दूसरों की निंदा करते समय गूंगा बनने की क्षमता रखता हो

(7) कौलाचार

तंत्र शास्त्र में पशुभाव, वीरभाव तथा दिव्यभाव के अतिरिक्त एक अन्य परमोच्चभाव की अवधारणा भी विद्यमान है जिसे ‘कौलभाव’ कहा गया है। ऐसे उपासक को ‘कौलयोगी’ तथा उसकी उपासना विधि को ‘कौलाचार’ कहते हैं। कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। देखिए-

‘‘न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम

नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा’’

(श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या नहीं है।)

भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-

‘‘भोगो योगायते साक्षात्-पातंक सुकृतायते

मोक्षायते च संसार-कौलिकानां कुलेश्वरी’’

(हे कौलिकों की कुलेश्वरी! कौलसाधक द्वारा किया हुआ भोग भी योग में बदल जाता है। उसके द्वारा किया हुआ पाप सत्कर्म (पुण्य) में बदल जाता है। वह इसी संसार में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।)

पुनश्चः

‘‘कर्दमे चन्दने मित्रे-मित्रे शत्रौ तथा प्रिये

श्मशाने भवने देवि-तथैव कांचने तृणे

न भेदायस्य देवेशि! स कौलः परिकीर्तितः’’

(हे देवि! कौलसाधक परमेश्वर की सृष्टि में विद्यमान समस्त वस्तुओं को समान दृष्टि से देखता है। उसके लिए घृणित तथा त्याज्य कुछ भी नहीं होता। कौलसाधक कीचड़ तथा चन्दन, मित्र तथा शत्रु, श्मशान तथा भवन एवं स्वर्ण तथा तृण को एक ही समान समझता है।)

सप्त आचार

आचार नाम से शास्त्रविहित अनुष्ठेय कुछ कार्यों को समझना अर्थात् शास्त्र में जिन कायों को विधेय कहकर निर्दिष्ट किया गया है, जिनका अनुष्ठान अवश्य ही करना होगा उसी को आचार समझना चाहिए शास्त्रविधि निन्दित कार्यों को भी आचार कहा जाता है, किन्तु वह कदाचार है । अतएव आचार शब्द से शास्त्र विधि-विहित अनुष्ठेय कार्य समष्टि को समझा जाता है । आचार सप्तविध हैं।

यथा- वेदाचार वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । इस समय कौन आचार किस प्रकार का है–उसका लक्षण निर्देशित किया जा रहा है ।

वेदाचार–

साधक ब्राह्म मुहूर्त में गात्रोत्थान पूर्वक गुरुदेव के नाम के अंत में ‘आनन्दनाथ’ यह शब्द उच्चारण करके उनको प्रणाम करेगा । सहस्रदल पद्म में ध्यान लगकर पञ्चोपचार से पूजा करेगा और वाग्भव बीज (एं) मन्त्र दश अथवा उससे अधिक बार जप करके परम-कला कुलकुण्डलिनी शक्ति के ध्यानान्तर यथाशक्ति मूलमंत्र जप करके जप समापन के अन्त में बहिर्गमन करके नित्यकर्म विध्यनुसार से त्रिसन्ध्या स्नान और समस्त कर्म करेगा । रात्रि में देवपूजा नहीं करना चहिये । पर्वदिन में मद्य, मांस का परित्याग करना, चाहिये और ऋतुकाल को छोड़कर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । यथाविहित अन्यान्य वेदिक अनुष्ठान करें।

वैष्णवाचार—

वेदाचार के व्यवस्थानुसार सर्वदा नियमित क्रियानुष्ठान में तत्पर रहेगा । कभी भी मैथुन तथा उससे संक्रांत बात भी नहीं करेगा । हिंसा, निदा, कुटिलता, मांसभोजन, रात में माला जप . और पूजा-काये वजनक करेगा । श्रीविष्णुदेव की पूजा करेगा और समस्त जगत् को विष्णुमय देखेगा ।

शैवाचार-

वेदाचार के नियमानुसार से शैवाचार की व्यवस्था की गई है । परन्तु शैवों में विशेष यह है कि पशुघात निषिद्ध है। सर्व कर्मों में शिवनाम का स्मरण करेगा और व्योम् ब्योम् शब्द द्वारा गाल बजायेगा ।

दक्षिणचार-

वेदाचार के क्रम से भगवती की पूजा करेगा और रात्रियोग में विजया (सिद्धि) ग्रहण कर गद्गद् चित्त से मन्त्र जप करेगा । चतुष्पथ में, श्मशान में, शून्यागार मे, नदीतीर पर, मृत्तिका तल, के नीचे पर्वतगुहा में, सरोवर तट पर, शक्तिक्षेत्र में पीठ स्थल में, शिवालय में, आंवला वृतक्षल पर, पीपल अथवा बिल्वमूल में बैठकर महाशंख माला (नरास्थि माला) द्वारा जप करेगा।

वामाचार-

दिन में ब्रह्मचर्य और रात्रि में पद्मतत्व (मद्य मांसादि) द्वारा साधक देवी की आराधना करेगा । चक्रानुष्ठान मन्त्रादि जप करेगा । यह वामाचार क्रिया सर्वदा मातृजारवत् गोपनीय है । पञ्चतत्व और ख-पुष्प (*ख-पुष्प अर्थात् स्वयंभू, कुण्ड, गोलक और वन पुष्प, इन सभी गुप्ततत्त्वों को इसी स्थान पर गुप्त रखना समीचीन समझना) के द्वारा कुल स्त्री की पूजा करेगा; उसके होने से वामाचार होगा। वामस्वरूपा होकर परमा प्रकृति की पूजा करेगा ।

सिद्धान्ताचार-

जिससे ब्रह्मानन्द ज्ञान प्राप्त हो जाय, जिस प्रकार वेद, शास्त्र, पुराणादि में गूढ़ ज्ञान होता है । मन्त्र द्वारा शोधन करके देवी का प्रीतिकर जो पञ्चतत्त्व है, उसको पशुशंका वर्जनपूर्वक प्रसादरूप में सेवन करेगा । इस आचार की साधना के लिये पशुहत्या द्वारा (यज्ञादि सदृश) कोई हिसा दोष नहीं होगा । सदा रुद्राक्ष अथवा अस्थि माला और कपालापत्र (खोपड़ी) साधक धारण करेगा और भैरव-वेश धारण के साथ निर्भय होकर प्रकाश्य स्थान पर विचरण।करेगा ।

कौलाचार–

कौलाचारी व्यक्ति को महामन्त्र-साधना में दिशा और काल का कोई नियय नहीं है । किस स्थान पर शिष्ट किस स्थान पर भ्रष्ट अथवा ” कहाँ भूत अथवा पिशाचतुल्य होकर नाना वेश सहित को लक्ष्यक्त भूमण्डल पर विचरण करेगा। कौलाचारी व्यक्ति का कोई निर्दिष्ट नियम नहीं है । उसके लिए स्थानास्थान कालाकाल अथवा कभक में आदि का थोड़ा भी विचार नहीं होता।

कर्दम और चन्दन में समान ज्ञान शत्रु, और मित्र में समज्ञान, श्मशान और गृह में समज्ञान क कांचन और तृण में समज्ञान इत्यादि–अर्थात् कौलाचारी व्यक्ति प्रकृत जितेन्द्रिय होता है । (अतः अन्तिमतत्व की साधन का अधिकारी है) अर्थात् वह निःस्पृह, उदासीन और परम योगीपुरुष और अवधूत शब्द का द्योतक है ।

अन्तः शाक्ता बहिशैवा: सभा मध्ये वैष्णवा:
नाना रुप धरा: कौला विचरन्ति मही तले ।।श्यामारहस्य

अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है ।

साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है;

कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है ।