श्रीकालभैरवाष्टकं

काशी के काल भैरव

आज कालाष्टमीके पावन अवसर पर आदि शंकराचार्य रचित श्री कालभैरवाष्टकं

ॐ देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं
व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥ १॥

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं
नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥२॥

शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥३॥

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥४॥

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं
कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥ ५॥

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं
नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरञ्जनम ।
मृत्युदर्पनाशनं कराळदंष्ट्रमोक्षणं 
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥६॥

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसन्ततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥७॥

भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं
काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥८॥

कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं
ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रिसन्निधिं ध्रुवम ॥९॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं कालभैरवाष्टकं संपूर्णम ॥

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा उनके नाम एवं महात्म्य भाग
श्रीमद्देवीभागवत स्कंध ७ अध्याय ३०
संकलन – हिरेन त्रिवेदी,’क्षेत्रज्ञ’

छगलण्डे प्रचण्डा तु चण्डिकामरकण्टके।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती॥७३
देवमाता सरस्वत्यां पारावारा तटे स्मृता।
महालये महाभागा पयोष्ण्यां पिङ्गलेश्वरी॥७४
वे देवी छगलण्डमें ‘प्रचण्डा’, अमरकण्टकमें | ‘चण्डिका’, सोमेश्वरमें ‘वरारोहा’, प्रभासक्षेत्रमें | ‘पुष्करावती’, सरस्वतीतीर्थमें ‘देवमाता’, समुद्रतटपर ‘पारावारा’, महालयमें ‘महाभागा’ और पयोष्णीमें ‘पिंगलेश्वरी’ नामसे प्रसिद्ध हुईं ।। ७३-७४ ॥

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी।।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५
माता सिद्धवने लक्ष्मीरनका भरताश्रमे।।
जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते॥७६
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिविश्वेश्वरे तथा॥७७
कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे।।
शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा॥७८
वे कृतशौचक्षेत्रमें ‘सिंहिका’, कार्तिकक्षेत्रमें | ‘अतिशांकरी’, उत्पलावर्तकमें लोला’, सोनभद्रनदके संगमपर ‘सुभद्रा’, सिद्धवनमें माता ‘लक्ष्मी’, भरताश्रमतीर्थमें ‘अनंगा’, जालन्धरपर्वतपर ‘विश्वमुखी’, किष्किन्धापर्वतपर ‘तारा’, देवदारुवनमें पुष्टि’, काश्मीरमण्डलमें मेधा’, हिमाद्रिपर देवी ‘भीमा’, विश्वेश्वरक्षेत्रमें ‘तुष्टि’, कपालमोचनतीर्थमें ‘शुद्धि’, कामावरोहणतीर्थमें | ‘माता’, शंखोद्धारतीर्थमें ‘धारा’ और पिण्डारकतीर्थमें | ‘धृति’ नामसे विख्यात हैं। ७५-७८॥

कला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवधारिणी।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा॥७९
औषधिश्चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी॥८०
अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ॥८१
देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातृणां वैष्णवी मता॥ ८२
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम्॥८३
चन्द्रभागानदीके तटपर ‘कला’, अच्छोदक्षेत्रमें | ‘शिवधारिणी’, वेणानदीके किनारे ‘अमृता’, बदरीवनमें ‘उर्वशी’, उत्तरकुरुप्रदेशमें ‘औषधि’, कुशद्वीपमें ‘कुशोदका’, हेमकूटपर्वतपर ‘मन्मथा’, कुमुदवनमें ‘सत्यवादिनी’, अश्वत्थतीर्थमें ‘वन्दनीया’, वैश्रवणालयक्षेत्रमें ‘निधि’, वेदवदनतीर्थमें ‘गायत्री’, भगवान् शिवके सांनिध्यमें ‘पार्वती’, देवलोकमें ‘इन्द्राणी’, ब्रह्माके मुखोंमें ‘सरस्वती’, सूर्यके बिम्बमें ‘प्रभा’ तथा मातृकाओंमें ‘वैष्णवी’ नामसे कही गयी हैं। | सतियोंमें ‘अरुन्धती’, अप्सराओंमें ‘तिलोत्तमा’ और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें ‘ब्रह्मकला’ नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं ॥७९-८३॥

इमान्यष्ट शतानि स्युः पीठानि जनमेजय।
तत्संख्याकास्तदीशान्यो देव्यश्च परिकीर्तिताः॥८४
सतीदेव्यङ्गभूतानि पीठानि कथितानि च।
अन्यान्यपि प्रसङ्गेन यानि मुख्यानि भूतले॥८५
हे जनमेजय! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और – उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं। भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया; साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर – दिया॥ ८४-८५ ॥

यः स्मरेच्छृणुयाद्वापि नामाष्टशतमुत्तमम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तो देवीलोकं परं व्रजेत्॥८६
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका | स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे | मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है॥८६॥

एतेषु सर्वपीठेषु गच्छेद्यात्राविधानतः ।
सन्तर्पयेच्च पित्रादीञ्छ्राद्धादीनि विधाय च॥८७
कुर्याच्च महतीं पूजां भगवत्या विधानतः।
क्षमापयेज्जगद्धात्री जगदम्बां मुहुर्मुहुः॥८८
कृतकृत्यं स्वमात्मानं जानीयाजनमेजय।
भक्ष्यभोज्यादिभिः सर्वान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः॥८९
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक | भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये। हे जनमेजय! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये। हे राजन्! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं – आदिको खिलाने चाहिये ॥ ८७-८९॥

  • श्रीवैदिक ब्राह्मण ग्रुप,गुजरात 🚩
  • जय माँ भगवती 🚩💐🙏🏾

Puja to Stotram to Japa to Dhyana to Laya

PujA koti samam stotram stotra koti samo japah, japa koti samam dhyAnam, dhyAna koti samo layah

1 crore pujA is equal to a stotram,
1 crore stotram is equal to a japa,
1 crore japa is equal to a dhyAna,
1 crore dhyAna is equal to a laya (absorption in the Goddess)

PUjA nAma na pushpAdyairyA matih kriyate dridhA
nirvikalpe mahAvyomni sA pUjA hyAdarAllayaH

Worship is not merely offering flowers and other rituals. Instead it consists in putting one’s heart on that highest space of consciousness which is beyond all false thoughts and speculations. Worship is the dissolution of the individual self with perfect ardour. Dissolution of the individual self in the supreme self, ShrI LalitA.

The 8 Goddesses of Speech residing in the ShrIchakra glorifies ShrI LalitAmbikA ParAmbA as Layakari, the One by whose mercy laya is possible. Only by Her will and grace one can be dissoluted and be absorbed into Her.

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥

  • शिवमानसपूजा

“मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बर्तनों में घीयुक्त खीर, दूध, दही के साथ पाँच प्रकार के व्यंजन, केले के फल, शर्बत, अनेक तरह के शाक, कर्पूर की सुगन्धवाला स्वच्छ और मीठा जल और ताम्बूल — ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पित किया है। भगवन्! आप इसे स्वीकार कीजिए।”

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्य विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। पर शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर चण्ड का अधिकार होता है।

भगवान शिव के मुख से निकले हैं चण्ड

गणों के स्वामी चण्ड भगवान शिवजी के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं और भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं। चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है —

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:॥ (२२।१६)

“जहाँ चण्ड का अधिकार हो, वहाँ शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।”

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: ग्रहण करने योग्य है —

ज्योतिर्लिंग —बारह ज्योतिर्लिंगों (सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमतीतट में त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर और शिवालय में द्युश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग — जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग — जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं, जैसे — काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर) — बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य — प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग — इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है।

‘प्रतिमासु च सर्वासु न, चण्डोऽधिकृतो भवेत्॥

जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए?

— शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।

जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालग्राम शिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा

— जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।

— आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करूँगा’, ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।

— जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।

— शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।

— शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।

— शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि ‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्’ शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो ‘शिव’ का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं —

सुमंगलं तस्य गृहे विराजते।
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते ।

कुल का क्या अर्थ है?

‘ कुल ‘ से वस्तुत: परिवार , समाज का अर्थ नहीं है।
आगम शास्त्र के अनुसार ‘ कुल ‘ का अर्थ है — ३६ तत्वों का समूह। ३६ तत्वों का सम्यक् ज्ञान देनेवाली शक्ति को ‘ कुल – देवी ‘ कहते हैं।
‘ कुल ‘ आगम शास्त्र का एक महत्वपूर्ण शब्द है।
भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न भिन्न कुल – देवियों का प्रचलन है, जिससे पूरे समाज को क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की आध्यात्मिकी का अनुभव होता है।
दुर्गा, दश महाविद्या , गायत्री आदि —पूरे भारत के लिए ‘ कुल – देवियां ‘ हैं। यदि किसी को आज स्थानीय कुल – देवी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, तो वह इनसे ही लाभ उठा सकता है।
कुल – देवी को ही दुर्गा, नारायणी आदि समझकर सप्तशती की स्तुतियों से स्तुति की जा सकती है। एक दृष्टि- कोण से यही सर्वोत्तम है क्योंकि सप्तशती आदि स्तुतियां सिद्ध स्तुतियां हैं । इनसे ही आज के समय में लाभ उठाया जाना चाहिए।
फिर श्री कुल – देव्यै नमः कहकर अज्ञात कुल – देवी का पूजन-अर्चन किया जा सकता है।
आज कल बतानेवाले भय पहले फैलाते हैं। सरल रूप में बताना नहीं चाहते। कुल – देवी के सम्बन्ध में भी यही बात है। कुल – देवियां , पितृ — सभी केवल श्रद्धा- भक्ति से प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि पूर्वजों ने उन्हें पहले प्रसन्न किया है। किसी प्रकार की विशेष अर्चना आदि को खोजने आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। जो ऐसा बताते हैं, वे भयभीत करते हैं। आचरण को शुद्ध रखने से सबसे ज्यादा कुल – देवता – देवी, पितृ प्रसन्न होते हैं। कठिनाई यह है कि यह न तो कोई बताता है, न कोई सुनना चाहता है।
सनातन धर्म की विविधताओं के कारण भारत के विभिन्न हिस्सों में होलिका – पर्व मनाने के स्वरूपों में कुछ भेद दिखाई देते हैं।
कहीं भगवान् कृष्ण के ज्ञान से युक्त पर्व के रूप में मनाया जाता है ।
कहीं शक्तिशाली नाम – साधना के आदि आचार्य श्री प्रह्लाद का स्मरण कर — विष्णु – पद श्रीनृसिंह की आराधना की जाती है।
श्रीकृष्ण द्वारा विषैले दुग्ध का पान करानेवाली माया-शक्ति- स्वरूपा पूतना के ज्वलन का स्मरण किया जाता है।
कुछ लोग महा- देव द्वारा कामदेव के दु: साहस के ज्वलन का स्मरण करते हैं।
कुछ लोग होलिका को एक विशेष रात्रि के रूप में देखते हैं और अनात्माकार वृत्तियों का लय करने का प्रयत्न करते हैं, जिससे आत्म – ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
संक्षेप में, उक्त सभी प्रकारों में ज्ञान- दायक ‘ अग्नि – जागरण ‘ की प्रधानता होती है।

गुरु में विश्वास

गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मंत्रत्यागाद्यरिद्रता |
गुरुमंत्रपरित्यागी रैरवं नरकं व्रजेत् || ‘गुरु का त्याग करने से मृत्यु होती है, मंत्र को छोड़ने से द्ररिद्रता आती है और गुरु व मंत्र क त्याग करने से रौरव नरक मिलता है |’

  • गुरु गीता

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन |
लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ||

शिवजी रुष्ट हो जायें तो गुरुदेव बचानेवाले हैं, पर गुरुदेव रुष्ट हो जायें तो बचानेवाला कोई नहीं अतः सदा गुरुदेव के शरण में रहें|

Shri Vidya Guru Shri Achyutananda Nath

Friends,

I am back after a long time, I would like to introduce a very new phase of my spiritual journey with Shri Vidya Kashi Pashupat Reet (method) Parampara .

While doing Guru mantra Anusthan, I would like to introduce my Guru Mandal (Circle of Gurus) who nurtured and spread the Shri Vidya Reet for hundred of years. This my tribute to the Guru Mandal.

Shri Achyutananda Nath (Kaul Bhattji) was the Guru of Shri Vidya Kashi Pashupat Sampraday, who started to spread the Vidya (knowledge) to the worthy ones across the India. He casted his physical body off 127 years before but I can feel his presence while doing the Anusthan.

Sri Achyutananda Nath is the 241st Guru in the lineage of Shri Vidya Pashupat Sampraday, which branched off to Trika and Kashmir Shaivism.

Sri Achyutananda Nathji was born as Sri DamodarRamkrishna Bhatt on Adhik Jyestha, Krishna-Paksha Pratipada in 1839. At the age of 8, known as DamodarRamkrishna Bhatt, Gurudev left Gwalior for Kashi. In Kashi he was initiated in the spiritual system of Shri Vidya by Sri Vikaranandnath, He was given Purnadiksha by Shri Kashi Vishwanath. Guruji was famous around the Temple of Vishwanathji, and was known as Kaul Bhatt. His sadhana was unparalleled especially in Batuk Bhairav and was well renowned in the highest spiritual circles.

By the grace of his Guru, he was given the Lineage of ‘Pashupath Shri Vidya’ which was near extinction at the time. Furthermore, with the Divine blessings from the Shankracharya at that time Sri AchyutanandaNathji took an oath to propagate this rare Marg. 

Gurudev had many Siddhis and had perfected the Sadhana of both Sarbheshwar and Batuk Bhairav and these devtas were always seen to be with him. Not only was he the main propagator of the rare and nearly extinct Pashupat Sampradaya (of the 8 Shri Vidya Gupta Sampradayas), he was also the master in Mallkhambh and had won many accolades in wrestling. He was given and perfected this Siddhi from Shri Hanumnaji (please see the following you tube video https://www.youtube.com/watch?v=Q1NW7etjbls).

 Guruji later set up and opened up many centres around Maharashtra and Uttar Pradesh and Puna which are still practicing this art.

Gurudev was a great Adept at the time in Shri Vidya (Pashupati Reethi)sadhana and initiated many disciples including Jahansi Ki Rani, Tatyatope Peshwa Baji Rao II, Bal Krishna Gangadhar Tilak and Shri Sitaram Bhatt (Puna) to name a few. It is rumoured that the Bhairavi, who taught Sri Ramakrshna Paramhamsa was his doing.

Once Swami Vivekananda had returned from Chicago, he was advised by Shri Ramkrishna Paramhamsa to go to Kashi and learn Shri Vidya from Achhytuanandji. Amongst the great Siddhas of Kashi, Shri Achyutanandji was exceptionally famous and always had huge crowds jostling to meet and receive his blessings. Guruji wanted to escape this extreme attention and eventually left Kashi Mokhsa Puri and went to Haridwar, where he took Jaal Samadhi. Those who witnessed his Jaal Samadhi, witnessed Maha Kali, Batuk Bhairav and Lord Shiva blessing him and before his disappearance, he handed over the Guru lineage to Shri Sitaram Bhatt – Puna

To this day, Shri Achutanandji’s Akhadas are still found in Kashi, Gwalior and Puna.

He reached Manidweepam on 27/09/1890.
In this Diwali time Shri Urvashiben (my beloved Guru Baa) and Rakeshbhai (My Guide and Guru) with other upasaks visited Gurudev’s Akhada in Kashi and Malkam Stambh Pujan, Photos as follows..
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Gurudev’s Akhada is behind Kaal Bhairav nath temple, Kashi, a place called bibi satiya, asķ any one where is Kaul Bhatt ka Akhada.