श्रीकालभैरवाष्टकं

काशी के काल भैरव

आज कालाष्टमीके पावन अवसर पर आदि शंकराचार्य रचित श्री कालभैरवाष्टकं

ॐ देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं
व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥ १॥

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं
नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥२॥

शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥३॥

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥४॥

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं
कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥ ५॥

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं
नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरञ्जनम ।
मृत्युदर्पनाशनं कराळदंष्ट्रमोक्षणं 
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥६॥

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसन्ततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥७॥

भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं
काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥८॥

कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं
ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रिसन्निधिं ध्रुवम ॥९॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं कालभैरवाष्टकं संपूर्णम ॥

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा

शक्तिपीठ उत्पत्ति कथा उनके नाम एवं महात्म्य भाग
श्रीमद्देवीभागवत स्कंध ७ अध्याय ३०
संकलन – हिरेन त्रिवेदी,’क्षेत्रज्ञ’

छगलण्डे प्रचण्डा तु चण्डिकामरकण्टके।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती॥७३
देवमाता सरस्वत्यां पारावारा तटे स्मृता।
महालये महाभागा पयोष्ण्यां पिङ्गलेश्वरी॥७४
वे देवी छगलण्डमें ‘प्रचण्डा’, अमरकण्टकमें | ‘चण्डिका’, सोमेश्वरमें ‘वरारोहा’, प्रभासक्षेत्रमें | ‘पुष्करावती’, सरस्वतीतीर्थमें ‘देवमाता’, समुद्रतटपर ‘पारावारा’, महालयमें ‘महाभागा’ और पयोष्णीमें ‘पिंगलेश्वरी’ नामसे प्रसिद्ध हुईं ।। ७३-७४ ॥

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी।।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५
माता सिद्धवने लक्ष्मीरनका भरताश्रमे।।
जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते॥७६
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिविश्वेश्वरे तथा॥७७
कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे।।
शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा॥७८
वे कृतशौचक्षेत्रमें ‘सिंहिका’, कार्तिकक्षेत्रमें | ‘अतिशांकरी’, उत्पलावर्तकमें लोला’, सोनभद्रनदके संगमपर ‘सुभद्रा’, सिद्धवनमें माता ‘लक्ष्मी’, भरताश्रमतीर्थमें ‘अनंगा’, जालन्धरपर्वतपर ‘विश्वमुखी’, किष्किन्धापर्वतपर ‘तारा’, देवदारुवनमें पुष्टि’, काश्मीरमण्डलमें मेधा’, हिमाद्रिपर देवी ‘भीमा’, विश्वेश्वरक्षेत्रमें ‘तुष्टि’, कपालमोचनतीर्थमें ‘शुद्धि’, कामावरोहणतीर्थमें | ‘माता’, शंखोद्धारतीर्थमें ‘धारा’ और पिण्डारकतीर्थमें | ‘धृति’ नामसे विख्यात हैं। ७५-७८॥

कला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवधारिणी।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा॥७९
औषधिश्चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी॥८०
अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ॥८१
देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातृणां वैष्णवी मता॥ ८२
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम्॥८३
चन्द्रभागानदीके तटपर ‘कला’, अच्छोदक्षेत्रमें | ‘शिवधारिणी’, वेणानदीके किनारे ‘अमृता’, बदरीवनमें ‘उर्वशी’, उत्तरकुरुप्रदेशमें ‘औषधि’, कुशद्वीपमें ‘कुशोदका’, हेमकूटपर्वतपर ‘मन्मथा’, कुमुदवनमें ‘सत्यवादिनी’, अश्वत्थतीर्थमें ‘वन्दनीया’, वैश्रवणालयक्षेत्रमें ‘निधि’, वेदवदनतीर्थमें ‘गायत्री’, भगवान् शिवके सांनिध्यमें ‘पार्वती’, देवलोकमें ‘इन्द्राणी’, ब्रह्माके मुखोंमें ‘सरस्वती’, सूर्यके बिम्बमें ‘प्रभा’ तथा मातृकाओंमें ‘वैष्णवी’ नामसे कही गयी हैं। | सतियोंमें ‘अरुन्धती’, अप्सराओंमें ‘तिलोत्तमा’ और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें ‘ब्रह्मकला’ नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं ॥७९-८३॥

इमान्यष्ट शतानि स्युः पीठानि जनमेजय।
तत्संख्याकास्तदीशान्यो देव्यश्च परिकीर्तिताः॥८४
सतीदेव्यङ्गभूतानि पीठानि कथितानि च।
अन्यान्यपि प्रसङ्गेन यानि मुख्यानि भूतले॥८५
हे जनमेजय! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और – उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं। भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया; साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर – दिया॥ ८४-८५ ॥

यः स्मरेच्छृणुयाद्वापि नामाष्टशतमुत्तमम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तो देवीलोकं परं व्रजेत्॥८६
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका | स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे | मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है॥८६॥

एतेषु सर्वपीठेषु गच्छेद्यात्राविधानतः ।
सन्तर्पयेच्च पित्रादीञ्छ्राद्धादीनि विधाय च॥८७
कुर्याच्च महतीं पूजां भगवत्या विधानतः।
क्षमापयेज्जगद्धात्री जगदम्बां मुहुर्मुहुः॥८८
कृतकृत्यं स्वमात्मानं जानीयाजनमेजय।
भक्ष्यभोज्यादिभिः सर्वान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः॥८९
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक | भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये। हे जनमेजय! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये। हे राजन्! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं – आदिको खिलाने चाहिये ॥ ८७-८९॥

  • श्रीवैदिक ब्राह्मण ग्रुप,गुजरात 🚩
  • जय माँ भगवती 🚩💐🙏🏾

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए?

सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥

  • शिवमानसपूजा

“मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बर्तनों में घीयुक्त खीर, दूध, दही के साथ पाँच प्रकार के व्यंजन, केले के फल, शर्बत, अनेक तरह के शाक, कर्पूर की सुगन्धवाला स्वच्छ और मीठा जल और ताम्बूल — ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पित किया है। भगवन्! आप इसे स्वीकार कीजिए।”

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्य विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। पर शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर चण्ड का अधिकार होता है।

भगवान शिव के मुख से निकले हैं चण्ड

गणों के स्वामी चण्ड भगवान शिवजी के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं और भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं। चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है —

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:॥ (२२।१६)

“जहाँ चण्ड का अधिकार हो, वहाँ शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।”

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: ग्रहण करने योग्य है —

ज्योतिर्लिंग —बारह ज्योतिर्लिंगों (सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमतीतट में त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर और शिवालय में द्युश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग — जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग — जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं, जैसे — काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर) — बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य — प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग — इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है।

‘प्रतिमासु च सर्वासु न, चण्डोऽधिकृतो भवेत्॥

जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए?

— शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।

जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालग्राम शिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा

— जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।

— आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करूँगा’, ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।

— जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।

— शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।

— शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।

— शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि ‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्’ शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो ‘शिव’ का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं —

सुमंगलं तस्य गृहे विराजते।
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते ।

गुरु में विश्वास

गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मंत्रत्यागाद्यरिद्रता |
गुरुमंत्रपरित्यागी रैरवं नरकं व्रजेत् || ‘गुरु का त्याग करने से मृत्यु होती है, मंत्र को छोड़ने से द्ररिद्रता आती है और गुरु व मंत्र क त्याग करने से रौरव नरक मिलता है |’

  • गुरु गीता

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन |
लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ||

शिवजी रुष्ट हो जायें तो गुरुदेव बचानेवाले हैं, पर गुरुदेव रुष्ट हो जायें तो बचानेवाला कोई नहीं अतः सदा गुरुदेव के शरण में रहें|

Batuk Bhairav

According to Shat Rudra Sanhita (5/2) of Shiv Puran, Parmeshwar Sadashiva took an Avatar of Lord Bhairava on Margshirsh Krishna Paksha Asthami hence he must be worshiped as Shakshat Shiva

भैरव: पूर्णरूपो हि शंकरस्य परात्मन:।

मूढास्तं वै न जानन्ति मोहिताश्शिवमायया।।

Translation- Bhairava is Completely Shiva, Ignorant don’t recognise this due to delusion by Maya of Shiva.

The ancient text Shakti Sangam Tantra in its Kali Khand chapter has mentioned the origin of Lord Batuk Bhairav. According to the text, once a demon named Aapat had gained powers through Sadhanas and he used it to harass everyone including the gods.

The gods then got together and started to think of ways to find a solution to this problem. As they started concentrating, their powers appeared as a flash of light and took the form of a five year old child, Batuk. The child, then, killed the demon and saved the gods which is why he is known as Aapat Uddharak Batuk Bhairav.

In tantra and other Hindu puja, this is the most worshiped form of Lord Bhairav among the various forms of Bhairav. All other forms of Bhairav are terrifying apart from this as this is in the form of a child. He is also known as the child form of Lord Shiva. The image of Batuk Bhairav is displayed with a dog accompanying him, which is symbolized as dharma.

He is said to be pleased by the devotion of the worshippers and conducting puja and homam is said to take away all the obstacles and cleanse the soul. Also, the dogs, especially the black dogs are considered to be the form of Bhairav and feeding the dogs every Saturday and taking care of them is also said to please the god and bring good fortune.

Worship of any mahAvidyA is incomplete without the propitiation of vaTuka: the bhairava in the form of a brahmachArin youth. It is stated in skandayAmaLa that among the nine essentials for mantra-siddhi, guru, gaNapati and vaTuka are of primary importance without their grace, parAshakti is not pleased with the sAdhaka. While vaTuka has sAttvika, rAjasika and tAmasika forms based on kriyA-bheda, he is popularly depicted as below:

वटुकं बालवेषं च नागयज्ञोपवीतिनम् |

कपालशूलभूषाढ्यं स्वयूथैः परिवेष्ठितम् ||

कुक्कुरैर्नववर्णैश्च वेष्टितं ब्रह्मरूपिणम् |

द्वादशारस्थितं देवं प्रत्यक्ष्यफलदं कलौ |

प्रेतासनसमासीनं त्रैलोक्यजयदं भजे ||

vaṭukaṃ bālaveṣaṃ ca nāgayajnopavītinam |

kapālaśūlabhūṣāḍhyaṃ svayūthaiḥ pariveṣṭhitam ||

kukkurairnavavarṇaiśca veṣṭitaṃ brahmarūpiṇam |

dvādaśārasthitaṃ devaṃ pratyakṣyaphaladaṃ kalau |

pretāsanasamāsīnaṃ trailokyajayadaṃ bhaje ||

The origin of the mUrti named vaTuka is described variously in the tantras. The shAkta version is presented here. It is said, that at some point in the present kalpa, the universe was permeated with various beings such as vetAla-s, preta-s, pishAcha-s, kUShmANDa-s, yakSha-s, rAkShasa-s, kinnara-s, gandharva-s and grahas of various categories such as brAhma, vaiShNava, raudra, aindra, gANapatya, kaumAra, pAshupata and saura. While being devoted to a particular deity (such as gANapatya grahas to gaNapati and his upAsakas), they also created havoc and robbed sAdhakas of the merit of their japa and worship. To protect the world and the well-being of upAsakas, bhagavatI AdyA mahAkAlI conceived the divine form of vaTuka:

वेतालाद्या महादेवि जपपूजादिहारकाः |

तेषां विनाशनार्थाय भक्तानुग्रहणाय च |

वटुकोऽयं महेशानि महाकाल्या विभावितः ||

vetālādyā mahādevi japapūjādihārakāḥ |

teṣāṃ vināśanārthāya bhaktānugrahaṇāya ca |

vaṭuko.ayaṃ maheśāni mahākālyā vibhāvitaḥ ||

The form and essence of vaTuka bhairava were derived from the tejaH of innumerable forms of yoginI-s, bhairava-s, mahAvidyA-s and various manifestations of kAlI, tArA, tripurasundarI, bAla, ChinnamastA, bagalAmukhI, bhuvaneshvarI, dhUmAvatI and mAta~NgI.

पञ्चाशत्कोटिगणना योगिनीनां तु कोटिशः |

भैरवाणां कोटिकोटिर्महाविद्यास्त्वनेकशः ||

त्रिखर्वसंख्या तारा स्यात् काली दशार्बुदा शिवे |

कलाकोटिप्रभेदा तु सुन्दरी तेन संयुता ||

बाला त्रिकोटिसंख्याभिश्छिन्ना षोडशखर्वतः |

षड्विंशल्लक्षब्रह्मास्त्रैश्चन्द्रषोडशमायुता ||

कोटिद्वादशभिर्देवि भुवनांशेन पार्वति |

धूम्रकला लक्षभेदैः सिद्धविद्याख्यतत्त्वतः ||

चतुरशीतिलक्षैश्च मातङ्गीमन्त्रतः शिवे |

एतत्सर्वमयं तेजः सर्वब्रह्माण्डरूपधृक् |

सर्वतेजःसमुद्भूतं वटुरूपं सनातनम् ||

pancāśatkoṭigaṇanā yoginīnāṃ tu koṭiśaḥ |

bhairavāṇāṃ koṭikoṭirmahāvidyāstvanekaśaḥ ||

trikharvasaṃkhyā tārā syāt kālī daśārbudā śive |

kalākoṭiprabhedā tu sundarī tena saṃyutā ||

bālā trikoṭisaṃkhyābhiśchinnā ṣoḍaśakharvataḥ |

ṣaḍviṃśallakṣabrahmāstraiścandraṣoḍaśamāyutā ||

koṭidvādaśabhirdevi bhuvanāṃśena pārvati |

dhūmrakalā lakṣabhedaiḥ siddhavidyākhyatattvataḥ ||

caturaśītilakṣaiśca mātaṅgīmantrataḥ śive |

etatsarvamayaṃ tejaḥ sarvabrahmāṇḍarūpadhṛk |

sarvatejaḥsamudbhūtaṃ vaṭurūpaṃ sanātanam ||

From the congregation of the tejaH or luminous essence of those myriad deities was born the mUrti of vaTuka bhairava due to the samkalpa of AdyA mahAkAlI. He was endowed with the energies of the trimUrti-s and their corresponding shakti-s, earning him the name guNatrayasvarUpavAn (sattva, rajaH and tamas). Based on predominance of sattva, rajas or tamas, vaTuka appears in three major forms. However, based on the predominance of one of the ten mahavidyA-s who constitute his form, he also appears in ten forms propitiated by the shAkta-s.

After the appearance of vaTuka, he was gifted with an upavIta by ugratArA. He was awarded a kapAla by ChinnamastA and granted the mastership of time and death by kAlikA. He was also given a trishUla with its three prongs presided over by shaktitraya – kAlI, tArA and ChinnamastA. Categories of various beings such as siddha-s, sAdhyas etc. assumed the form of nine dogs and began to serve vaTuka. It was then revealed by mahAkAlI that it was shiva, based on her samkalpa, who had materialized as vaTuka and would henceforth be referred to as ‘devIputra’, reasserting her status as jagadyoni. vaTuka gained control over vetAlAdi grahas and by propitiating him during one’s upAsanA, the sAdhaka is not bothered by any malevolent graha and is protected from every kind of distress and danger.

The jayantI tithi of vaTuka bhairava is shuddha-dashamI of jyeShTha mAsa.

The esoteric aspect of vaTuka is described thus by mahAmAheshvara abhinavaguptapAdAchArya:

वरवीरयोगिनीगणसिद्धावलिपूजितांघ्रियुगम् |

अपहृतविनयजनार्तिं वटुकमपादानाभिदं वन्दे ||

varavīrayoginīgaṇasiddhāvalipūjitāṃghriyugam |

apahṛtavinayajanārtiṃ vaṭukamapādānābhidaṃ vande ||

बटुक भैरव ध्यानः-

कर-कलित-कपालः कुण्डली दण्डपाणिस्तरुण-तिमिर-नील वर्णो व्याल-यज्ञोपवीती ।

क्रतु-समय-सपर्या-विघ्न-विच्छेद-हेतुर्जयति बटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ।।

The jayantI tithi of Batuka bhairava is shuddha-dashamI of jyeShTha mAsa.

His Priya Bhog is Doodhpak and Vada or Pakoda of Arad fried in Tal tel or Sarsav, Sometimes bundi laddoos.

Source: Rakeshbhai Vyas London and Harshadanandji (Nirvana Sundari Group)