कौलाचार (Kaulachar)

शाक्तागम ग्रन्थों यथा विश्वसारतंत्र, महाचीनाचार तंत्र, कुलार्णव तंत्र, महानिर्वाण तंत्र समयाचार तंत्र तथा सर्वोल्लास तंत्र में विभिन्न भावों तथा आचारों के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार –

‘‘सर्वेम्यश्चोत्तमा वेदा-वेदेम्यो बैष्ण्ंवं परम

वैष्णवादुत्तमं शैवं-शैवादक्षिण मुत्तमंम्

दक्षिणात् उत्तमं वामं-वामात् सिद्धान्त उत्तमम्

सिद्धान्तात् उत्तमं कौलं-कौलात् परतरं नहिं।।’’

(वेदाचार से श्रेष्ट वैष्णवाचार है। वैष्णवाचार से श्रेष्ट शैवाचार है। शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार है। दक्षिणाचार से श्रेष्ट वामाचार है। वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार तथा सिद्धान्ताचार से श्रेष्ट कौलाचार है।)

इन आचारों को तीन भावों के अन्तर्गत माना गया है। विश्वचार तंत्र के अनुसार-

‘‘चत्वारो देवि वेदाद्याः-पशुभावे प्रतिष्ठिता

वामाद्यास्रय आचारा-दिव्ये वीरे प्रकीर्तिता’’

(प्रथम चार आचार पशुभाव, वाम तथा सिद्धान्ताचार वीरभाव एवं कौलाचार को दिव्यभाव के अन्तर्गत माना गया है)

उपरोक्त सातों आचारो का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(1) वेदाचार-

वेदाचारी उपासक वेदाध्ययन करके वेदमाता गायत्री की उपासना करता है। अष्टांगयोग तथा ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह’ का पालन करके एक ग्रहस्थ सन्त की भांति आचरण करता हुआ श्रद्धा-विश्वासर्पूवक सदैव ब्रह्मप्राप्ति हेतु मन, वचन, कर्म से प्रयास करता है। वेदाचार का पालन करके साधक की बाह्यशुद्धि हो जाती है।

(2) बैष्णवाचार-

ईश्वरीय शक्तियों में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्तियोग का अनुयायी, परोपकारी, निराभिमानी तथा सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति जब नवधाभक्ति पूर्वक श्रीबिष्णु के विभिन्न नामों तथा उनके अवतारों (राम, कृष्ण) तथा राधा-कृष्ण का नाम जप एवं संकीर्तन करता है तो उसे बैष्णवाचारी कहते हैं। साधक हरिप्रिया तुलसी का पूजन करता है। तुलसीमाला से जप तथा उसे धारण भी करता है। बैष्णवाचार का पालन करने से साधक की चित्तशुद्धि हो जाती है तथा वह गुरूभक्त बन जाता है।

(3) शैवाचार-

शिव तथा शक्ति की ऐक्यता पर विश्वास रखने वाला, भक्ति करने की क्षमता रखने वाला, स्वधर्म पालन तथा स्वधर्म की रक्षा करने वाला विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति जब शिव-शक्ति की पूजोपासना करता है तो उसे शैवाचारी कहते हैं। ऐसा साधक भस्म तथा रूद्राक्ष धारण करता है। वह सदैव विशुद्ध ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

(4) दक्षिणाचार-

दक्षिणाचार उपासना पद्धति में साधक न केवल पुरूष तत्व (शिव) वरन् प्रकृति तत्व (शक्ति) की महत्ता को भी स्वीकार करता है। शक्ति की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन स्वरूपों पर विश्वास रखते हुए द्वैतभावना तथा देहाभिमान पूर्वक शिव-शक्ति की पूजोपासना में तत्पर रहता है। प्रथम तीन आचारों का पालन करके उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके निदिध्यासन का अभ्यास करता रहता है।

उपरोक्त चारों आचार पशु आचार तथा अधम उपासना के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन सभी आचारों में भक्तियोग योग का दास्यभाव, साधक का द्वैतभाव तथा देहाभिमान विद्यमान रहता है। ऐसा साधक उन पंच-कंचुकों तथा अष्टपाशों से आबद्ध रहता है जिनसे मुक्त हुए बिना ब्रहमप्राप्ति सम्भव नहीं है। ऐसे साधक में उस प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्मबल का अभाव रहता है जिसके बल पर एक बीर साधक अपने प्राणों को घोर संकट में डालकर भी परमलक्ष्य (ब्रह्मप्राप्ति) की प्राप्ति कर लेता है।

(5) सिद्धान्ताचार-

वामाचार की समस्त साधनाओं को पूर्णकरके तथा उस साधना से अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर साधक सिद्धान्ताचार में प्रवेश करता है। ऐसा साधक अपने मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करके समस्त शंकाओं से रहित होकर उस ‘स्थितप्रज्ञ’ अवस्था में पहुंच जाता है जिसका विवरण ‘भगवत् गीता’ में दिया गया है। वह सदैव भैरव वेश धारण कर ब्रहमानन्द का अनुभव करता रहता है।

सम्प्रदाय भेद के कारण कहीं पर सिद्धान्ताचार को वामाचार साधना से पूर्व तथा कहीं पर वामाचार के पश्चात स्थान दिया गया है। वास्तव में वामाचार तथा सिद्धान्ताचार दोनों ही वीराचार के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(6) वामाचार (वाममार्ग)-

विभिन्न आगम ग्रन्थों में वाममार्ग की श्रेष्टता, गोपनीयता तथा इस प्रकाशमान आध्यात्मिक महापथ पर चलकर परमेश्वरत्व प्राप्त करने वाले साधक के लक्षणों का जो वर्णन किया गया है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

भगवान श्री शिव द्वारा वाममार्ग को अत्यन्त दुर्गम तथा योगियों के लिए भी अगम्य माना गया है-

‘‘वामो मार्गः परम गहनो-योगिनामप्यगम्यः’’

पुरश्चर्यार्णव नामक तंत्र ग्रन्थ में वाममार्ग को सर्वोतम, सर्वसिद्धिप्रद तथा केवल जितेन्द्रिय व्यक्ति के लिए ही सुलभ माना गया है-

‘‘अयं सर्वोत्तमं धर्मः-शिवोक्त सर्वसिद्धिदः

जितेन्द्रियस्य सुलभो-नान्यथा नन्त जन्मभिः’’

अर्थात् इन्द्रिय-लोलुपव्यक्ति अनन्त जन्मों में भी इस साधना का अधिकारी नहीं बन सकता है।

भगवान श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि कि हे देवि! इस उत्कृष्ट वाममार्ग की साधना को सदैव परम गोपनीय रखना चाहिए-

‘‘अतो वामपथं देवि! गोपये मातृजारवत्’’

प्रसिद्ध आगमग्रन्थ ‘मेरूतंत्र’ का कथन है कि केवल वही साधक वाममार्ग की साधना का अधिकारी हो सकता है जो दूसरों के धन को दखकर अन्धा, परस्त्री को देखकर नपुंसक तथा दूसरों की निंदा करते समय गूंगा बनने की क्षमता रखता हो

(7) कौलाचार

तंत्र शास्त्र में पशुभाव, वीरभाव तथा दिव्यभाव के अतिरिक्त एक अन्य परमोच्चभाव की अवधारणा भी विद्यमान है जिसे ‘कौलभाव’ कहा गया है। ऐसे उपासक को ‘कौलयोगी’ तथा उसकी उपासना विधि को ‘कौलाचार’ कहते हैं। कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। देखिए-

‘‘न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम

नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा’’

(श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या नहीं है।)

भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-

‘‘भोगो योगायते साक्षात्-पातंक सुकृतायते

मोक्षायते च संसार-कौलिकानां कुलेश्वरी’’

(हे कौलिकों की कुलेश्वरी! कौलसाधक द्वारा किया हुआ भोग भी योग में बदल जाता है। उसके द्वारा किया हुआ पाप सत्कर्म (पुण्य) में बदल जाता है। वह इसी संसार में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।)

पुनश्चः

‘‘कर्दमे चन्दने मित्रे-मित्रे शत्रौ तथा प्रिये

श्मशाने भवने देवि-तथैव कांचने तृणे

न भेदायस्य देवेशि! स कौलः परिकीर्तितः’’

(हे देवि! कौलसाधक परमेश्वर की सृष्टि में विद्यमान समस्त वस्तुओं को समान दृष्टि से देखता है। उसके लिए घृणित तथा त्याज्य कुछ भी नहीं होता। कौलसाधक कीचड़ तथा चन्दन, मित्र तथा शत्रु, श्मशान तथा भवन एवं स्वर्ण तथा तृण को एक ही समान समझता है।)

सप्त आचार

आचार नाम से शास्त्रविहित अनुष्ठेय कुछ कार्यों को समझना अर्थात् शास्त्र में जिन कायों को विधेय कहकर निर्दिष्ट किया गया है, जिनका अनुष्ठान अवश्य ही करना होगा उसी को आचार समझना चाहिए शास्त्रविधि निन्दित कार्यों को भी आचार कहा जाता है, किन्तु वह कदाचार है । अतएव आचार शब्द से शास्त्र विधि-विहित अनुष्ठेय कार्य समष्टि को समझा जाता है । आचार सप्तविध हैं।

यथा- वेदाचार वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । इस समय कौन आचार किस प्रकार का है–उसका लक्षण निर्देशित किया जा रहा है ।

वेदाचार–

साधक ब्राह्म मुहूर्त में गात्रोत्थान पूर्वक गुरुदेव के नाम के अंत में ‘आनन्दनाथ’ यह शब्द उच्चारण करके उनको प्रणाम करेगा । सहस्रदल पद्म में ध्यान लगकर पञ्चोपचार से पूजा करेगा और वाग्भव बीज (एं) मन्त्र दश अथवा उससे अधिक बार जप करके परम-कला कुलकुण्डलिनी शक्ति के ध्यानान्तर यथाशक्ति मूलमंत्र जप करके जप समापन के अन्त में बहिर्गमन करके नित्यकर्म विध्यनुसार से त्रिसन्ध्या स्नान और समस्त कर्म करेगा । रात्रि में देवपूजा नहीं करना चहिये । पर्वदिन में मद्य, मांस का परित्याग करना, चाहिये और ऋतुकाल को छोड़कर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । यथाविहित अन्यान्य वेदिक अनुष्ठान करें।

वैष्णवाचार—

वेदाचार के व्यवस्थानुसार सर्वदा नियमित क्रियानुष्ठान में तत्पर रहेगा । कभी भी मैथुन तथा उससे संक्रांत बात भी नहीं करेगा । हिंसा, निदा, कुटिलता, मांसभोजन, रात में माला जप . और पूजा-काये वजनक करेगा । श्रीविष्णुदेव की पूजा करेगा और समस्त जगत् को विष्णुमय देखेगा ।

शैवाचार-

वेदाचार के नियमानुसार से शैवाचार की व्यवस्था की गई है । परन्तु शैवों में विशेष यह है कि पशुघात निषिद्ध है। सर्व कर्मों में शिवनाम का स्मरण करेगा और व्योम् ब्योम् शब्द द्वारा गाल बजायेगा ।

दक्षिणचार-

वेदाचार के क्रम से भगवती की पूजा करेगा और रात्रियोग में विजया (सिद्धि) ग्रहण कर गद्गद् चित्त से मन्त्र जप करेगा । चतुष्पथ में, श्मशान में, शून्यागार मे, नदीतीर पर, मृत्तिका तल, के नीचे पर्वतगुहा में, सरोवर तट पर, शक्तिक्षेत्र में पीठ स्थल में, शिवालय में, आंवला वृतक्षल पर, पीपल अथवा बिल्वमूल में बैठकर महाशंख माला (नरास्थि माला) द्वारा जप करेगा।

वामाचार-

दिन में ब्रह्मचर्य और रात्रि में पद्मतत्व (मद्य मांसादि) द्वारा साधक देवी की आराधना करेगा । चक्रानुष्ठान मन्त्रादि जप करेगा । यह वामाचार क्रिया सर्वदा मातृजारवत् गोपनीय है । पञ्चतत्व और ख-पुष्प (*ख-पुष्प अर्थात् स्वयंभू, कुण्ड, गोलक और वन पुष्प, इन सभी गुप्ततत्त्वों को इसी स्थान पर गुप्त रखना समीचीन समझना) के द्वारा कुल स्त्री की पूजा करेगा; उसके होने से वामाचार होगा। वामस्वरूपा होकर परमा प्रकृति की पूजा करेगा ।

सिद्धान्ताचार-

जिससे ब्रह्मानन्द ज्ञान प्राप्त हो जाय, जिस प्रकार वेद, शास्त्र, पुराणादि में गूढ़ ज्ञान होता है । मन्त्र द्वारा शोधन करके देवी का प्रीतिकर जो पञ्चतत्त्व है, उसको पशुशंका वर्जनपूर्वक प्रसादरूप में सेवन करेगा । इस आचार की साधना के लिये पशुहत्या द्वारा (यज्ञादि सदृश) कोई हिसा दोष नहीं होगा । सदा रुद्राक्ष अथवा अस्थि माला और कपालापत्र (खोपड़ी) साधक धारण करेगा और भैरव-वेश धारण के साथ निर्भय होकर प्रकाश्य स्थान पर विचरण।करेगा ।

कौलाचार–

कौलाचारी व्यक्ति को महामन्त्र-साधना में दिशा और काल का कोई नियय नहीं है । किस स्थान पर शिष्ट किस स्थान पर भ्रष्ट अथवा ” कहाँ भूत अथवा पिशाचतुल्य होकर नाना वेश सहित को लक्ष्यक्त भूमण्डल पर विचरण करेगा। कौलाचारी व्यक्ति का कोई निर्दिष्ट नियम नहीं है । उसके लिए स्थानास्थान कालाकाल अथवा कभक में आदि का थोड़ा भी विचार नहीं होता।

कर्दम और चन्दन में समान ज्ञान शत्रु, और मित्र में समज्ञान, श्मशान और गृह में समज्ञान क कांचन और तृण में समज्ञान इत्यादि–अर्थात् कौलाचारी व्यक्ति प्रकृत जितेन्द्रिय होता है । (अतः अन्तिमतत्व की साधन का अधिकारी है) अर्थात् वह निःस्पृह, उदासीन और परम योगीपुरुष और अवधूत शब्द का द्योतक है ।

अन्तः शाक्ता बहिशैवा: सभा मध्ये वैष्णवा:
नाना रुप धरा: कौला विचरन्ति मही तले ।।श्यामारहस्य

अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है ।

साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है;

कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है ।

The Great Australian Dream#1

On The Airport

That was the day of 05 August 2008, At Ahmedabad International Airport, A newly wed couple was flying for their great Australian dream at 11:40pm flight to Melbourne via Singapore. As an Indian custom around 70 to 100 relatives came to bid a farewell to the couple.The relatives were feeling that possibly they won’t see the couple coming back in the future.They all were sad. All those memories of years spent together with parents, grandparents, uncles-aunts, cousins, friends and colleagues would get missed in very unknown place to them which may be culturally different as well as linguistically too.Raghav and Janki were never been to overseas . With the mixed feelings of excitement and anxiety it was difficult to separate from family as specially for Raghav from his mother as he recently lost his father but financial circumstances were such that going Australia for earning money was an only option for them. The strong widowed mother Uma stayed calm and kept smile on her face but when Raghav and  Janki started to leave for final entry into the gate of the airport, Uma just broke down into tears and so Radha and Shyam- The parents of Janki. Uma is having a thought of her passed away husbad’s dream. The couple could see misty-eyed relatives wishing all wellness and progress. The separation was not from one side that was from both sides. Raghav’s only one paternal unlce came to say goodbye to him. He could imagine his mother’s lonelyness without her sons.

“Whether my paternal uncles and their families will help to sooth my mother’s separation from us, I think no.” Raghav is having his final thoughts, ” Then why we are going? Is it worth? Would we be ever able to come back? ” He suddenly start to remember his relatives words to keep him stay there while they were visiting him at their home. Some said “You have very good job and you bought a new house here regardless it is on loan.” and some said “What will your mother do?” Raghav was just getting dragged back with these thoughts.

Suddenly he heard a voice from his soul saying ” Don’t run away from your responsibilities, go overseas and support your family even though you are in a pain. That was your father’s dream.”

He firmly kissed Uma and Janki bowed to the parents and mother-in-law and both rushed away into the airport to hide their misty eyes. There was an excitement too for new future, new opportunities, new dreams which will wash away their financial problems and will appreciate their abilities. They left all the memories and loving relatives behind for a future they didn’t imagined. End of an era of Raghav for his life in India. No one knows future.

Gujarati poem line was best fitting lines for Raghav’s situation “Na Janyu Janki Nathe Kaale Shu Thavanu Chhe” literally translates “Janki’s husband Lord Rama didn’t know what is going to happen tomorrow”.

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This story will continue in the following blogs. Please comment and share if you like….

Kaali and Lalita in Macrocosm

Shakti is one however attributes are different. Kaali is Samhar and Lalita is Shristi. Two sides of the same coin. Kaali is universal representation of black hole (desolation) while Lalita is white hole (Creation). Tatva is one however attributes are different.

During shristhi space comes out of time.Technically time gets defined as interval between two events in space.Before creation when space has not emerged out,parachit exists as Aadhya,the original, Maha Kali.During the creation,this parachit takes form of Shri Lalitha,hence all digits of time are called Kala nithya.

Very true explanation which is an extension to my black hole and white hole explanation of Devi

https://www.quora.com/Who-is-the-real-form-of-Adishakti-Durga-Lalita-or-Kali

दशमहाविद्या (10 Maha Vidyas-10 Aspects of Great Knowledge)

दशमहाविद्या अर्थात महान विद्या रूपी देवी। महाविद्या, देवी दुर्गा के दस रूप हैं, जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों द्वारा पूजे जाते हैं, परन्तु साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली है। इन्हें दस महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है।बस इसके लिए कठिन परिश्रम और एक काबिल गुरु की आवशकता हैं।

महाविद्या विचार का विकास शक्तिवाद के इतिहास में एक नया अध्याय बना जिसने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्व शक्तिमान् एक नारी है।जैसे की दुर्गा और उसके १० रूप।

शाक्त भक्तों के अनुसार “दस रूपों में समाहित एक सत्य कि व्याख्या है – महाविद्या” जो कि जगदम्बा के दस लोकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या करते है। महविद्याएँ तान्त्रिक प्रकृति की मानी जातीं हैं जो श्री देवीभागवत पुराण के अनुसार महाविद्याओं की उत्पत्ति भगवान शिव और उनकी पत्नी सती, जो कि पार्वती का पूर्वजन्म थीं, के बीच एक विवाद के कारण हुई। जब शिव और सती का विवाह हुआ तो सती के पिता दक्ष प्रजापति दोनों के विवाह से खुश नहीं थे। उन्होंने शिव का अपमान करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया, द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। सती पिता के द्वार आयोजित यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं जिसे शिव ने अनसुना कर दिया, जब तक कि सती ने स्वयं को एक भयानक रूप मे परिवर्तित (महाकाली का अवतार) कर लिया। जिसे एख भगवन शिव भागने को उद्यत हुए। अपने पति को डरा हुआ जानकर माता सती उन्हें रोकने लगी। तो शिव जिस दिशा में उस दिशा में माँ का विग्रह रोकता है। इस प्रकार दशो दिशाओं में माँ ने ओ रूप लिए थे वो ही दस महाविद्या कहलाई। तत्पश्चात् देवी दस रूपों में विभाजित हो गयी जिनसे वह शिव के विरोध को हराकर यज्ञ में भाग लेने गयीं। वहाँ पहुँचने के बाद माता सती एवं उनके पिता के बीच विवाद हुआ।।।

जानिए – देश देवीयों की महिमा

प्रथम महाविद्या – काली (काली कुल)

काली देवी – हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वो असल में सुन्दरीरूप भगवती दुर्गा का काला और डरावना रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिये हुई थी। उनको ख़ासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। काली की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से हुई है जो सबको ग्रास बना लेता है। माँ का यह विद्वंश रूप है जो नाश करने वाला है पर यह रूप सिर्फ उनके लिए है जो दानवीय प्रकति के है जिनमे कोई दयाभाव नहीं है। यह रूप बुराई को ख़तम करके अच्छाई को जीत दिलवाने वाला रूप है अत: माँ काली अच्छे मनुष्यों की शुभेछु है और पूजनीय है।…

द्वितीय महाविद्या – तारा देवी

तांत्रिकों की प्रमुख देवी तारा। तारने वाली कहने के कारण माता को तारा भी कहा जाता है। सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। शत्रुओं का नाश करने वाली सौन्दर्य और रूप ऐश्वर्य की देवी.आर्थिक उन्नति और भोग दान और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं:- तारा , एकजटा और नील सरस्वती।तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता यह पीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में स्थित है। इसलिए यह स्थान तारापीठ के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं। चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा रूपी देवी की साधना करना तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है। जो भी साधक या भक्त माता की मन से प्रार्धना करता है उसकी कैसी भी मनोकामना हो वह तत्काल पूर्ण हो जाती हैं

तृतीया महाविद्या – त्रिपुर सुंदरी (श्री कुल)

षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं। इसे ललिता, राज राजेश्वरी और त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है।

त्रिपुरासुन्दरी दस महाविद्याओं (दस देवियों) में से एक हैं। इन्हें ‘महात्रिपुरसुन्दरी’, षोडशी, ललिता, लीलावती, लीलामती, ललिताम्बिका, लीलेशी, लीलेश्वरी, तथा राजराजेश्वरी भी कहते हैं। वे दस महाविद्याओं में सबसे प्रमुख देवी हैं।त्रिपुरसुन्दरी के चार कर दर्शाए गए हैं। चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। देवीभागवत में ये कहा गया है वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती मां का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से पूर्ण है।जो इनका आश्रय लेते है, उन्हें इनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त तंत्र-मंत्र इनकी आराधना करते हैं। प्रसन्न होने पर ये भक्तों को अमूल्य निधियां प्रदान कर देती हैं।चार दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें तंत्र शास्त्रों में ‘पंचवक्त्र’ अर्थात् पांच मुखों वाली कहा गया है। आप सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं, इसलिए इनका नाम ‘षोडशी’ भी हैएक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछा, ‘भगवन! आपके द्वारा वर्णित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएगी, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइये।’ तब पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या साधना-प्रणाली को प्रकट किया।”भैरवयामल और शक्तिलहरी’’ में त्रिपुर सुन्दरी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है।ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। इनकी उपासना ‘‘श्री चक्र’’ में होती है। आदिगुरू शंकरचार्य ने भी अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की बड़ी सरस स्तुति की है। कहा जाता है- भगवती त्रिपुर सुन्दरी के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं।।

चतृर्थ महाविद्या – भुवनेश्वरी

भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं।आदि शक्ति भुवनेश्वरी मां का आशीर्वाद मिलने से धनप्राप्त होता है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।भुवनेश्वरी अर्थात संसार भर के ऐश्वर्य की स्वामिनी। वैभव-पदार्थों के माध्यम से मिलने वाले सुख-साधनों को कहते हैं। ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है- वह आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है। ऐश्वर्य की परिधि छोटी भी है और बड़ी भी। छोटा ऐश्वर्य छोटी-छोटी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर उनके चरितार्थ होते समय सामयिक रूप से मिलता रहता है। यह स्वउपार्जित, सीमित आनंद देने वाला और सीमित समय तक रहने वाला ऐश्वर्य है। इसमें भी स्वल्प कालीन अनुभूति होती है और उसका रस कितना मधुर है यह अनुभव करने पर अधिक उपार्जन का उत्साह बढ़ता है।

भुवनेश्वरी इससे ऊँची स्थिति है। उसमें सृष्टि भर का ऐश्वर्य अपने अधिकार में आया प्रतीत होता है। स्वामी रामतीर्थ अपने को ‘राम बादशाह’ कहते थे। उनको विश्व का अधिपति होने की अनुभूति होती थी, फलतः उस स्तर का आनंद लेते थे, जो समस्त विश्व के अधिपति होने वाले को मिल सकता है। छोटे-छोटे पद पाने वाले-सीमित पदार्थों के स्वामी बनने वाले, जब अहंता को तृप्त करते और गौरवान्वित होते हैं तो समस्त विश्व का अधिपति होने की अनुभूति कितनी उत्साहवर्धक होती होगी, इसकी कल्पना भर से मन आनंद विभोर हो जाता है। राजा छोटे से राज्य के मालिक होते हैं, वे अपने को कितना श्रेयाधिकारी, सम्मानास्पद एवं सौभाग्यवान् अनुभव करते हैं, इसे सभी जानते हैं। छोटे-बडे़ राजपद पाने की प्रतिस्पर्धा इसीलिए रहती है कि अधिपत्य का अपना गौरव और आनन्द हैं।।।

यह वैभव का प्रसंग चल रहा है। यह मानवी एवं भौतिक है। ऐश्वर्य दैवी, आध्यात्मिक, भावनात्मक है। इसलिए उसके आनन्द की अनुभूति उसी अनुपात से अधिक होती है। भुवन भर की चेतनात्मक आनन्दानुभूति का आनन्द जिसमें भरा हो उसे भुवनेश्वरी कहते है। गायत्री की यह दिव्यधारा जिस पर अवतरित होती है, उसे निरन्तर यही लगता है कि उसे विश्व भर के ऐश्वर्य का अधिपति बनने का सौभाग्य मिल गया है। वैभव की तुलना में ऐश्वयर् का आनन्द असंख्य गुणा बड़ा है। ऐसी दशा में सांसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न समझे जाने की तुलना में भुवनेश्वरी की भूमिका में पहुँचा हुआ साधक भी लगभग उसी स्तर की भाव संवेदनाओं से भरा रहता है, जैसा कि भुवनेश्वर भगवान को स्वयं अनुभव होता होगा।

भावना की दृष्टि से यह स्थिति परिपूणर् आत्मगौरव की अनुभूति है। वस्तु स्थिति की दृष्टि से इस स्तर का साधक ब्रह्मभूत होता है, ब्राह्मी स्थिति में रहता है। इसलिए उसकी व्यापकता और समर्थता भी प्रायः परब्रह्म के स्तर की बन जाती है। वह भुवन भर में बिखरे पड़े विभिन्न प्रकार के पदार्थों का नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थों और परिस्थितियों के माध्यम से जो आनन्द मिलता है उसे अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिमाण में आकषिर्त-उपलब्ध कर सकता है।भुवनेश्वरी मनः स्थिति में विश्वभर की अन्तः चेतना अपने दायित्व के अन्तगर्त मानती है। उसकी सुव्यवस्था का प्रयास करती है। शरीर और परिवार का स्वामित्व अनुभव करने वाले इन्हीं के लिए कुछ करते रहते हैं। विश्वभर को अपना ही परिकर मानने वाले का निरन्तर विश्वहित में ध्यान रहता है। परिवार सुख के लिए शरीर सुख की परवाह न करके प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है। जिसे विश्व परिवार की अनुभूति होती है। वह जीवन-जगत् से आत्मीयता साधता है। उनकी पीड़ा और पतन को निवारण करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करता है। अपनी सभी सामर्थ्य को निजी सुविधा के लिए उपयोग न करके व्यापक विश्व की सुख शान्ति के लिए, नियोजित रखता है।वैभव उपाजर्न के लिए भौतिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। ऐश्वर्य की उपलब्धि भी आत्मिक पुरुषार्थ से ही संभव है। व्यापक ऐश्वर्य की अनुभूति तथा सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए साधनात्मक पुरुषार्थ करने पड़ते है। गायत्री उपासना में इस स्तर की साधना जिस विधि-विधान के अन्तगर्त की जाती है उसे ‘भुवनेश्वरी’ कहते है।भुवनेश्वरी के स्वरूप, आयुध, आसन आदि का संक्षेप में-विवेचन इस तरह है-भुवनेश्वरी के एक मुख, चार हाथ हैं। चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं राजंदंड-व्यवस्था का प्रतीक है। माला-नियमितता एवं आशीर्वाद मुद्रा-प्रजापालन की भावना का प्रतीक है। आसन-शासनपीठ-सवोर्च्च सत्ता की प्रतीक है।

पंचम महाविद्या – छिन्नमस्ता

इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। इनका सिर कटा हुआ और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं बह रही है। इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन है। देवी के गले में…हड्डियों की माला तथा कंधे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है।

माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होताते हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है। छिन्नमस्ता की साधना दीपावली से शुरू करनी चाहिए। इस के कुछ हजार जप करने पर देवी सिद्ध होकर कृपा करती हैं। जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश और कन्या भोजन करना अनिवार्य हैं।

षष्ठम महाविद्या – त्रिपुर भैरवी

त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं। यह बंदीछोड़ माता है। भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं।माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका।में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।

जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है। षोडशी का भक्त कभी दुखी नहीं रहता है।

देवी कथा : नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार जब देवी काली के मन में आया कि वह पुनः अपना गौर वर्ण प्राप्त कर लें तो यह सोचकर देवी अन्तर्धान हो जाती हैं। भगवान शिव जब देवी को अपने समक्ष नहीं पाते तो। . तो व्याकुल हो जाते हैं और उन्हें ढूंढने का प्रयास करते हैं। शिवजी, महर्षि नारदजी से देवी के विषय में पूछते हैं तब नारदजी उन्हें देवी का बोध कराते हैं वह कहते हैं कि शक्ति के दर्शन आपको सुमेरु के उत्तर के उत्तर में हो सकते हैं। वहीं देवी की प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात संभव हो सकेगी। तब भोले शिवजी की आज्ञानुसार नारदजी देवी को खोजने के लिए वहां जाते हैं। महर्षि नारदजी जब वहां पहुंचते हैं तो देवी से। शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते हैं यह प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो जाती हैं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट होता है और इस प्रकार उससे छाया विग्रह ‘त्रिपुर-भैरवी’ का प्राकट्य होता है।

सप्तम महाविद्या – धूमावती

धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। इस महाविद्या के फल से देवी धूमावती सूकरी के रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोग अरिष्ट और शत्रुओं का नाश कर देती है। प्रबल महाप्रतापी तथा सिद्ध पुरूष के रूप में उस साधक की ख्याति हो जाती है।

मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है।

इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस को छूए तक नहीं।

अष्टम महाविद्या- बगलामुखी

माता बगलामुखी स्थम्भन की देवी हैं । माता बगलामुखी की साधना युद्ध में विजय होने और शत्रुओं के नाश के लिए की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है। कृष्ण और अर्जुन ने महाभातर के युद्ध के पूर्व माता बगलामुखी की पूजा की पूजा अर्चना की थी। इनकी साधना शत्रु भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है।जिसकी साधना सप्तऋषियों ने वैदिक काल में समय समय पर की है। इसकी साधना से जहां घोर शत्रु अपने ही विनाश बुद्धि से। पराजित हो जाते हैं वहां साधक का जीवन निष्कंटक तथा लोकप्रिय बन जाता है।

नवम महाविद्या – मातंगी

मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।

दशम महाविद्या- कमला देवी

दरिद्रता, संकट, गृहकलह और अशांति को दूर करती है कमलारानी। इनकी सेवा और भक्ति से व्यक्ति सुख और समृद्धि पूर्ण रहकर शांतिमय जीवन बिताता है।श्वेत वर्ण के चार हाथी सूंड में सुवर्ण कलश लेकर सुवर्ण कलश लेकर सुवर्ण के समान कांति लिए हुए मां को स्नान करा रहे हैं। कमल पर आसीन कमल पुष्प धारण किए हुए मां सुशोभित होती हैं। समृद्धि, धन, नारी, पुत्रादि के लिए इनकी साधना की जाती है। इस महाविद्या की साधना नदी तालाब या समुद्र में गिरने वाले जल में आकंठ डूब कर की जाती है। इसकी पूजा करने से व्यक्ति साक्षात कुबेर के समान धनी और विद्यावान होता है। व्यक्ति का यश और व्यापार या प्रभुत्व संसांर भर में प्रचारित हो जाता है।

श्री चक्र देहचक्र ही हैं Shri Chakra is Microcosm of your body

श्री विद्या के उपासक श्रीयंत्र या श्रीचक्र की भावना अपने शरीर में करते हैं । इस तरह विद्योपासकों का शरीर अपने आप आप में श्रीचक्र बन जाता है।

(Image source: the mind matrix)

अतएव श्री यंत्रोपासक का ब्रह्मरंध्र बिंदु चक्र, मस्तिष्क त्रिकोण, ललाट अष्टकोण, भ्रूमध्य अंतर्दशार, गला बहिर्दशार, हृदय चतुर्दशार, कुक्षि व नाभि अष्टदल कमल, कटि अष्टदल कमल का बाह्यवृत्त, स्वाधिष्ठान षोडषदल कमल, मूलाधार षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त, जानु प्रथम रेखा भूपुर, जंघा द्वितीय रेखा भूपुर और पैर तृतीय रेखा भूपुर बन जाते हैं।

श्री यंत्र की ब्रह्मांडात्मकता:- श्रीयंत्र का ध्यान

करने वाला साधक योगीन्द्र कहलाता है। आराधक अखिल ब्रह्मांड को श्री यंत्रमय मानते हैं अर्थातश्रीयंत्र ब्रह्मांडमय है। यंत्र का बिंदुचक्र सत्यलोक, त्रिकोण तपोलोक, अष्टकोण जनलोक, अंतर्दशार महर्लोक, बहिर्दशार स्वर्लोक, चतुर्दशार भुवर्लोक, प्रथम वृत्त भूलोक, अष्टदल कमल अतल, अष्टदल कमल का बाह्य वृत्त वितल, षोडशदल कमल सुतल, षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त तलातल, प्रथम रेखा भूपुर महातल, द्वितीय रेखा भूपुर रसातल और तृतीय रेखा भूपुर पाताल है ।

ब्रह्मादि देव, इंद्रादि लोकपाल, सूर्य, चंद्र आदि नवग्रह, अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र, मेष आदि द्वादश राशियां, वासुकि आदि सर्प, यक्ष, वरुण, वैनतेय, मंदार आदि विटप, अमरलोक की रंभादि अप्सराएं, कपिल आदि सिद्धसमूह, वशिष्ठ आदि मुनीश्वर्य, कुबेर प्रमुख यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, विश्वावसु आदि गवैया, ऐरावत आदि अष्ट दिग्गज, उच्चैःश्रवा आदि घोड़े, सर्व-आयुध, हिमगिरि आदि श्रेष्ठ पर्वत, सातों समुद्र, परम पावनी सभी नदियां, नगर एवं राष्ट्र ये सब के सब श्रीयंत्रोत्पन्न हैं ।

श्रीयंत्र में सर्वप्रथम धुरी में एक बिन्दु और चारो तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते है जो शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और चार ऊपर की तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते हैं जो शक्ति का प्रदर्शन करते है और चार ऊपर की तरफ शिव ती तरफ दर्शाते है। अन्दर की तरफ झुके पांच-पांच तत्व, पांच संवेदनाएँ, पांच अवयव, तंत्र और पांच जन्म बताते है।

ऊपर की ओर उठे चार जीवन, आत्मा, मेरूमज्जा व वंशानुगतता का प्रतिनिधत्व करते है।चार ऊपर और पांच बाहारी ओर के त्रिकोण का मौलिक मानवी संवदनाओं का प्रतीक है। यह एक मूल संचित कमल है। आठ अन्दर की ओर व सोलह बाहर की ओर झुकी पंखुड़ियाँ है। ऊपर की ओर उठी अग्नि, गोलाकर, पवन,समतल पृथ्वी व नीचे मुडी जल को दर्शाती है। ईश्वरानुभव, आत्मसाक्षात्कार है। यही सम्पूर्ण जीवन का द्योतक है। यदि मनुष्य वास्तव में भौतिक अथवा आध्यात्मिक समृद्ध होना चाहता है तो उसे श्रीयंत्र स्थापना अवश्य ही करनी चाहिये । शिवजी कहते हैं हे शिवे ! संसार चक्र स्वरूप श्रीचक्र में स्थित बीजाक्षर रूप शक्तियों से दीप्तिमान एवं मूलविद्या के 9 बीजमंत्रों से उत्पन्न, शोभायमान आवरण शक्तियों से चारों ओर घिरी हुई, वेदों के मूल कारण रूप ओंकार की निधि रूप हैं, श्री यंत्र के मध्य त्रिकोण के बिंदु चक्र स्वरूप स्वर्ण सिंहासन में शोभायुक्त होकर विराजमान तुम परब्रह्मात्मिका हो । तात्पर्य यह है कि बिंदु चक्र स्वरूप सिंहासन में श्री ललिता महात्रिपुरसुंदरी सुशोभित होकर विराजमान हैं । पंचदशी मूल विद्याक्षरों से श्रीयंत्र की उत्पत्ति हुई है । पंचदशी मंत्र स्थित ‘‘स’’ सकार से चंद्र, नक्षत्र, ग्रहमंडल एवं राशियां आविर्भूत हुई हैं । जिन लकार आदि बीजाक्षरों से श्री यंत्र के नौ चक्रों की उत्पत्ति हुई है, उन्हीं से यह संसार चक्र बना है ।

Jai Ambe Jai Bahuchar Jai Gurudev

गुप्त नवरात्रि विशेष

गुप्त नवरात्रि में कई साधक गुप्त साधनाएं करने शमशान व गुप्त स्थान पर जाते हैं । कई साधक श्रीविद्या की उपासना घरमें ही करते हैं। नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृद्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं । सभी नवरात्रों में माता के सभी 51पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता के दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं । माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहते हैं, क्योंकि इसमें गुप्त रूप से शिव व शक्ति की उपासना की जाती है जबकि चैत्र व शारदीय नवरात्रि में सार्वजिनक रूप में माता की भक्ति करने का विधान है । आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि में जहां वामाचार उपासना की जाती है । वहीं माघ मास की गुप्त नवरात्रि में वामाचार पद्धति को अधिक मान्यता नहीं दी गई है । ग्रंथों के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष का विशेष महत्व है

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते “सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित: ।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ॥”

प्रत्यक्ष फल देते हैं गुप्त नवरात्र

गुप्त नवरात्र में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए। उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी । इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्रों में साधना की थी शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुलदेवी निकुम्बाला की साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है…गुप्त नवरात्र दस महाविद्याओं की साधना की जाती है । गुप्त नवरात्रों से एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है एक समय ऋषि श्रृंगी भक्त जनों को दर्शन दे रहे थे अचानक भीड़ से एक स्त्री निकल कर आई और करबद्ध होकर ऋषि श्रृंगी से बोली कि मेरे पति दुर्व्यसनों से सदा घिरे रहते हैं । जिस कारण मैं कोई पूजा-पाठ नहीं कर पाती धर्म और भक्ति से जुड़े पवित्र कार्यों का संपादन भी नहीं कर पाती । यहां तक कि ऋषियों को उनके हिस्से का अन्न भी समर्पित नहीं कर पाती मेरा पति मांसाहारी हैं, जुआरी है । लेकिन मैं मां दुर्गा कि सेवा करना चाहती हूं । उनकी भक्ति साधना से जीवन को पति सहित सफल बनाना चाहती हूं । ऋषि श्रृंगी महिला के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए । ऋषि ने उस स्त्री को आदरपूर्वक उपाय बताते हुए कहा कि वासंतिक और शारदीय नवरात्रों से तो आम जनमानस परिचित है लेकिन इसके अतिरिक्त दो नवरात्र और भी होते हैं । जिन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है प्रकट नवरात्रों में नौ देवियों की उपासना हाती है और गुप्त नवरात्रों में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है । इन नवरात्रों की प्रमुख देवी स्वरुप का नाम सर्वैश्वर्यकारिणी देवी है । यदि इन गुप्त नवरात्रों में कोई भी भक्त माता दुर्गा की पूजा साधना करता है तो मां उसके जीवन को सफल कर देती हैं । लोभी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी अथवा पूजा पाठ न कर सकने वाला भी यदि गुप्त नवरात्रों में माता की पूजा करता है तो उसे जीवन में कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती । उस स्त्री ने ऋषि श्रृंगी के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए गुप्त नवरात्र की पूजा की मां प्रसन्न हुई और उसके जीवन में परिवर्तन आने लगा, घर में सुख शांति आ गई । पति सन्मार्ग पर आ गया और जीवन माता की कृपा से खिल उठा । यदि आप भी एक या कई तरह के दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं और आपकी इच्छा है कि माता की कृपा से जीवन में सुख समृद्धि आए तो गुप्त नवरात्र की साधना अवश्य करें । तंत्र और शाक्त मतावलंबी साधना के दृष्टि से गुप्त नवरात्रों के कालखंड को बहुत सिद्धिदायी मानते हैं । मां वैष्णो देवी, पराम्बा देवी और कामाख्या देवी का का अहम् पर्व माना जाता है । हिंगलाज देवी की सिद्धि के लिए भी इस समय को महत्त्वपूर्ण माना जाता है । शास्त्रों के अनुसार दस महाविद्याओं को सिद्ध करने के लिए ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ ने बहुत प्रयास किए लेकिन उनके हाथ सिद्धि नहीं लगी । वृहद काल गणना और ध्यान की स्थिति में उन्हें यह ज्ञान हुआ कि केवल गुप्त नवरात्रों में शक्ति के इन स्वरूपों को सिद्ध किया जा सकता है । गुप्त नवरात्रों में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी । इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्र में साधना की थी शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुल देवी निकुम्बाला कि साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है मेघनाद ने ऐसा ही किया और शक्तियां हासिल की राम, रावण युद्ध के समय केवल मेघनाद ने ही भगवान राम सहित लक्ष्मण जी को नागपाश मे बांध कर मृत्यु के द्वार तक पहुंचा दिया था ऐसी मान्यता है कि यदि नास्तिक भी परिहासवश इस समय मंत्र साधना कर ले तो उसका भी फल सफलता के रूप में अवश्य ही मिलता है । यही इस गुप्त नवरात्र की महिमा है यदि आप मंत्र साधना, शक्ति साधना करना चाहते हैं और काम-काज की उलझनों के कारण साधना के नियमों का पालन नहीं कर पाते तो यह समय आपके लिए माता की कृपा ले कर आता है गुप्त नवरात्रों में साधना के लिए आवश्यक न्यूनतम नियमों का पालन करते हुए मां शक्ति की मंत्र साधना कीजिए । गुप्त नवरात्र की साधना सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं गुप्त नवरात्र के बारे में यह कहा जाता है कि इस कालखंड में की गई साधना निश्चित ही फलवती होती है हां । इस समय की जाने वाली साधना की गुप्त बनाए रखना बहुत आवश्यक है । अपना मंत्र और देवी का स्वरुप गुप्त बनाए रखें । गुप्त नवरात्र में शक्ति साधना का संपादन आसानी से घर में ही किया जा सकता है । इस महाविद्याओं की साधना के लिए यह सबसे अच्छा समय होता है गुप्त व चामत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है । धार्मिक दृष्टि से हम सभी जानते हैं कि नवरात्र देवी स्मरण से शक्ति साधना की शुभ घड़ी है । दरअसल इस शक्ति साधना के पीछे छुपा व्यावहारिक पक्ष यह है कि नवरात्र का समय मौसम के बदलाव का होता है । आयुर्वेद के मुताबिक इस बदलाव से जहां शरीर में वात, पित्त, कफ में दोष पैदा होते हैं, वहीं बाहरी वातावरण में रोगाणु जो अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं सुखी-स्वस्थ जीवन के लिये इनसे बचाव बहुत जरूरी है नवरात्र के विशेष काल में देवी उपासना के माध्यम से खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाने गए संयम और अनुशासन तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं जिससे इंसान निरोगी होकर लंबी आयु और सुख प्राप्त करता है धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्र में प्रमुख रूप से भगवान शंकर व देवी शक्ति की आराधना की जाती है ।

देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है । यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का ये सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं । यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में जाप शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है सभी’नवरात्र’ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तक किए जाने वाले पूजन, जाप और उपवास का प्रतीक है- ‘नव शक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते’ । देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं ।

नवरात्र के नौ दिनों तक समूचा परिवेश श्रद्धा व भक्ति, संगीत के रंग से सराबोर हो उठता है । धार्मिक आस्था के साथ नवरात्र भक्तों को एकता, सौहार्द, भाईचारे के सूत्र में बांधकर उनमें सद्भावना पैदा करता है शाक्त ग्रंथो में गुप्त नवरात्रों का बड़ा ही माहात्म्य गाया गया है । मानव के समस्त रोग-दोष व कष्टों के निवारण के लिए गुप्त नवरात्र से बढ़कर कोई साधनाकाल नहीं हैं । श्री, वर्चस्व, आयु, आरोग्य और धन प्राप्ति के साथ ही शत्रु संहार के लिए गुप्त नवरात्र में अनेक प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते हैं । इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज ही सुख व अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ‘दुर्गावरिवस्या’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाले गुप्त नवरात्रों में माघ में पड़ने वाले गुप्त नवरात्र मानव को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करते हैं, बल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं । ‘शिवसंहिता’ के अनुसार ये नवरात्र भगवान शंकर और आदिशक्ति मां पार्वती की उपासना के लिए भी श्रेष्ठ हैं । गुप्त नवरात्रों के साधनाकाल में मां शक्ति का जप, तप, ध्यान करने से जीवन में आ रही सभी बाधाएं नष्ट होने लगती हैं ।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

देवी भागवत के अनुसार जिस तरह वर्ष में चार बार नवरात्र आते हैं और जिस प्रकार नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है । ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है ।

गुप्त नवरात्रि विशेषकर तांत्रिक क्रियाएं, शक्ति साधना, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती है । इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं । इस दौरान लोग लंबी साधना कर दुर्लभ शक्तियों की प्राप्ति करने का प्रयास करते हैं । गुप्त नवरात्र के दौरान कई साधक महाविद्या (तंत्र साधना) के लिए मां काली, तारा देवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, माता छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, मां ध्रूमावती, माता बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी की पूजा करते हैं । मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई । इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है । संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं । नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप ‘नवरात्र’ में ही शुद्ध है ।

गुप्त नवरात्र पूजा विधि

मान्यतानुसार गुप्त नवरात्र के दौरान अन्य नवरात्रों की तरह ही पूजा करनी चाहिए। नौ दिनों के उपवास का संकल्प लेते हुए प्रतिप्रदा यानि पहले दिन घटस्थापना करनी चाहिए। घटस्थापना के बाद प्रतिदिन सुबह और शाम के समय मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। अष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन के साथ नवरात्र व्रत का उद्यापन करना चाहिए।

मेष राशि इस राशि के लोगों को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती या दुर्गा चालीसा का पाठ करें।

वृषभ राशि इस राशि के लोग देवी के महागौरी स्वरुप की पूजा करें व ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करें।

मिथुन राशि इस राशि के लोग देवी यंत्र स्थापित कर मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करें। इससे इन्हें लाभ होगा।

कर्क राशि इस राशि के लोगों को मां शैलपुत्री की उपासना करनी चाहिए। लक्ष्मी सहस्त्रनाम का पाठ भी करें।

सिंह राशि इस राशि के लोगों के लिए मां कूष्मांडा की पूजा विशेष फल देने वाली है। दुर्गा मन्त्रों का जाप करें।

कन्या राशि इस राशि के लोग मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करें। लक्ष्मी मंत्रो का विधि-विधान पूर्वक जाप करें।

तुला राशि इस राशि के लोगों को महागौरी की पूजा से लाभ होता है। काली चालीसा का पाठ करें।

वृश्चिक राशि स्कंदमाता की पूजा से इस राशि वालों को शुभ फल मिलते हैं। दुर्गा सप्तशती का पाठ करें।

धनु राशि इस राशि के लोग मां चंद्रघंटा की आराधना करें। साथ ही उनके मन्त्रों का विधि-विधान से जाप करें।

मकर राशि इस राशि वालों के लिए मां काली की पूजा शुभ मानी गई है। नर्वाण मन्त्रों का जाप करें।

कुंभ राशि इस राशि के लोग मां कालरात्रि की पूजा करें। नवरात्रि के दौरान रोज़ देवी कवच का पाठ करें।

मीन राशि इस राशि वाले मां चंद्रघंटा की पूजा करें। हल्दी की माला से बगलामुखी मंत्रो का जाप भी करें।

Shri Chakra -Microcosm and Macrocosm

श्रीचक्र : देहचक्र और विश्वचक्र

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श्रीचक्र विश्वचक्र है । श्रीचक्र प्रकृति , मन , जीवन , काल ,अन्तरिक्ष और जीवन की व्याख्या है । देह पिंडात्मक -श्रीचक्र है और ब्रह्मांड विश्वात्मक श्रीचक्र है ।

श्रीचक्र की रचना देखिये >> एक कोण दूसरे कोण से संस्पृष्ट और सापेक्ष है ।इसी प्रकार संपूर्ण चराचर-सृष्टि में सब-कुछ से सब-कुछ जुडा हुआ है , कोई भी किसी से विच्छिन्न नहीं है ।प्राकृतिक-प्रक्रिया हो या मानवीय-प्रक्रिया ,भौतिक-प्रक्रिया हो या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ,,व्यष्टिप्रक्रिया हो या सामाजिकप्रक्रिया ,भावप्रक्रिया हो या विचारप्रक्रिया > कोई भी अपने आप में स्वतन्त्र नहीं है ।श्रीचक्र में सृष्टिक्रम भी है और संहारक्रम भी है ।बिन्दु से भूपुर और भूपुर से बिन्दु छत्तीस-तत्वों का विलास है ।

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(THIS IS THE REAL SRIYANTRA WORSHIPPED BY AGASTHYA MAHA MUNI AND HIS WIFE BHAGAVATHI LOPAMUDRA WHO IS THE MOTHER OF ALL SRIVIDYA UPASAKAS.IT IS STILL PRESENT IN SALEM.AGASTHYA AND LOPAMUDRA MEDITATED AND DID POOJA FOR THIS FOR MANY YEARS IN A CAVE.)

श्रीविद्या

श्रीविद्या उस अनन्त-सत्ता से तादात्म्य प्राप्त करने की साधना-संबंधी विद्या है । श्रीविद्या स्वात्म को विश्वात्म , देह को देवालय , पिंड को ब्रह्मांड बना लेने की विद्या है । श्रीविद्या चराचर के अस्तित्व तथा गति के तत्वबोध की विद्या है ।श्रीविद्या ध्यानध्यातृध्येय के एकाकार-एकरस होने की विद्या है । श्रीविद्या जीवसत्ता के शिवसत्ता में संक्रमण की विद्या है ।श्रीविद्या जडता को लांघ कर चिन्मय-प्रदेश में प्रवेश पाने की विद्या है । श्रीविद्या शक्ति और प्रकृति की उपासना है ,पूर्ण की उपासना है , सर्व की उपासना है , विराट की उपासना है ,श्रीविद्या अभेद की उपासना है ,आनन्दमयराज्य में प्रवेश की उपासना है । श्रीविद्या करुणा की उपासना है । श्रीविद्या सौन्दर्य-माधुर्य की उपासना है ।श्रीविद्या उस अचिन्त्य ऊर्जा की उपासना है ,जिससे विश्व-ब्रह्मांड तथा व्यष्टि-समष्टि का जीवन संचालित हो रहा है ।वायु बह रही है ,सुगन्धि बिखर रही है , मेघ आ रहे हैं , वर्षा हो रही है , कालचक्र चल रहा है , श्वास-प्रश्वास चल रहा है ,बीज वृक्ष बन रहा है और वृक्ष पुन: बीज रूप में समाहित हो रहा है ।

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वाक : वैखरी : मध्यमा :भाषा : शब्द और विंब

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शब्द की रचना-प्रक्रिया क्या है ?

वर्णसमुच्चय कहें या ध्वनिसमुच्चय कहें , जो भी कहें ,वह स्थूल-रूप है ।वैखरी !

अब इसके सूक्ष्म-रूप की ओर जैसे-जैसे बढेंगे , हमें मन और चेतना की भूमि में प्रवेश पाना होगा ।

क्या वह वर्णसमुच्चय या ध्वनिसमुच्चय किसी विंब के आश्रय के बिना कोई भी अर्थ दे सकता था ?

विंब मन में उतरे थे ,इन्द्रिय-संयोग से !

कान से ध्वनि-विंब आया > यह खटखट है या धमाका है ,या मेघगर्जन है ,या कोकिल का गीत है , या कौआ का कान फोडने वाला स्वर !

नाक से घ्राण-विंब मन को मिले >> इत्र है या बदबू ? यह गुलाब है या चमेली । या गैस की गन्ध है ।

इसी प्रकार जीभ से रस या स्वाद के विंब मिले , आंख से सुन्दर -असुन्दर और आकार-प्रकार के विंब आये , त्वक से स्पर्श-विंब आये ।

अब एक ओर इन्द्रिय-चेतना या इन्द्रिय-संवेदना ने बाह्यजगत को सूक्ष्म और विंबात्मक अन्तर्जगत बना दिया । अनुभूति की प्रक्रिया ।

एक प्रक्रिया से बाहर का जगत अन्दर आया था , अब दूसरी प्रक्रिया मचलने लगी ,अन्दर से बाहर की ओर ।अभिव्यक्ति ।

अभिव्यक्ति की प्रक्रिया ने वर्णसमुच्चय या ध्वनिसमुच्चय में विंब का आधान किया ।

यह प्रक्रिया जो अन्दर ही अन्दर होती रही , वाक की मध्यमा-भूमि है ।

मूलाधारात्प्रथममुदितो यश्च भाव:पराख्य: ,

पश्चात्पश्यन्त्यथ हृदयगोबुद्धिभुंग्मध्यमाख्य:॥

व्यक्ते वैखर्यथ रुरुदिषोरस्य जन्तो: सुषुम्णा,

बद्धस्तस्माद्भवति पवनप्रेरित:वर्ण-संज्ञा ॥

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स्थूलं शब्द इति प्रोक्तं ,सूक्ष्मं चिन्तामयं भवेत्‌ ।

चिन्तया रहितं यत्तु तत्परं परिकीर्तितं ।

शब्द : जब कानों से सुनाई दे रहा है ,तो वह इन्द्रियगम्य है ,स्थूल है । किन्तु जब वह मन में ही भाव-विचार या चिन्ता-चिन्तन रूप था ,तब इन्द्रियगम्य नहीं था । इसलिये वह सूक्ष्म था । इससे भी पहले वह पर-रूप था । मन या चेतना के किसी अचेतन-अवचेतन में खोया हुआ !

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सबद ही सबद भयौ उजियारौ !

शब्द को शास्त्र ने ज्योति कहा है , तुरीय-ज्योति ! चतुर्थ प्रकाश ।

तीन ज्योतियां हैं > सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि-विद्युत ।

इनके प्रकाश के अभाव में आंख [इन्द्रिय ] देख नहीं सकती ।

किन्तु जहां इनका प्रकाश नहीं हो पाता , वहां शब्द का प्रकाश होता है ।

बाहर घनघोर अंधेरा है ।

अरे तुम कहां हो?

हां यहां हूं ।

शब्द ने प्रकाशित कर दिया ।

इसी प्रकार अन्दर मन में सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि-विद्युत का प्रकाश नहीं पंहुच पाया , वहां शब्द का प्रकाश हो जाता है ।

सबद ही सबद भयौ उजियारौ !

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अत्र सखाय: सख्यानि जानते

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सक्तुमिव तितौना पुनन्तो,

यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।

अत्र सखाय: सख्यानि जानते ,

भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधिवाचि ।

ऋग्वेद

जैसे सत्तू को छाना जाता है ,भूसी अलग की जाती है ।अनाज का शु्द्ध- तत्व ग्रहण कर लिया जाता है , उसी प्रकार ध्यान-परायण मनीषिय़ों ने मन:पूत वाणी की रचना की ।

भाषा का उदात्त-रूप ।

यह वाणी है,जिसमें मित्र लोग मैत्री की पहचान कर लेते हैं ,जो परस्पर-मित्रत्व को पा चुके हैं ,उनकी शोभा इसी वाणी में निवास करती है ।

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।।श्री श्रीयंत्र।।

श्रीयंत्र का स्वरूप रचना, नवचक्रों का विवरण तथा श्रीयंत्र दर्शन की महिमा।।

श्रीयंत्र का विषय अत्यन्त जटिल तथा परमगहन है। जिस प्रकार एक नया तैराक जो सीमित आकार के तरणताल में तैरने का अभ्यस्त नहीं है वह किसी महासागर में तैरने का दुःस्साहस नहीं कर सकता उसी प्रकार मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए इस विषय पर कुछ भी लिखना आकाशकुसुम तोड़ने के समान ही है। जितना भी लिखा जा रहा है वह इस विषय के वास्तविक ज्ञान का करोड़वां अंश भी नहीं है।

श्रीयंत्र की उपासना श्रीविद्या उपासना की परमगोपनीय तथा सांकेतिक विधा (क्रिया) है। इसकी उपासना केवल उत्तमाधिकारी एवं सत्व-प्रधान मन वाला साधक ही कर सकता है। ऐसे गोपनीय विषयों का सर्वसाधारण के समक्ष प्रकटीकरण करना भी ‘‘कौलोपनिषद्’’ के अनुसार वर्जित है-

प्राकट्यं न कुर्यात्’

‘कौल प्रतिष्ठा न कुर्यात्’

शिष्याय वदेत्’

प्रकाशात् सिद्धिहानिस्यात्’

(उपासना सम्बन्धी गंभीर रहस्यों को सबके समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए)

श्रीयंत्र में निहित अनेक रहस्यमय सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त ‘पिन्डान्ड के अन्दर ब्रह्मान्ड’ तथा ‘ब्रह्मान्ड के अन्दर पिन्डान्ड’ अर्थात् पिन्ड-ब्रहमान्ड की ऐक्यता से सम्बन्धित भी है। इस रहस्य को ब्रह्मनिष्ट गुरू से ही समझा जा सकता है। सामान्य व्यक्ति जो इस विषय को समझने में प्रयोग होने वाली शब्दावली से ही अपरिचित है वह कितने ही ग्रन्थ पढ़ले तब भी इसके तत्व को स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। पिन्ड-ब्रह्मान्ड, आत्मतत्व-विद्यातत्व, शिवतत्व,वाम-दक्षिण मार्ग, त्रिपुटी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, माता-मान-मेय,मेरू-कैलाश-भू-प्रस्तार, नाद-बिन्दु-कला, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, पंचभूत-पंचतन्मात्रा-पंचप्राण, परा-पश्यन्ती-मध्यमा-बैरवरी, शब्द सृष्टि, अर्थसृष्टि जैसे शब्दों में निहित अर्थों का ज्ञान होना श्रीयंत्र के विषय को समझने के लिए आवश्यक है।

श्रीयंत्र का विषय सैद्धान्तिक ज्ञान तथा तर्क का न होकर पूर्णतया ब्यवहारपरक, श्रमसाध्य, वित्तसाध्य तथा समयसाध्य है। यदि दीक्षाप्राप्त साधक भी नित्य यंत्रार्चन (चक्रार्चन) करेगा तो उसे महाराजराजेश्वरी की पूजा-उपासना के अनुकूल तथा कुलाचार के अनुसार विभिन्न पूजन सामग्रियों की व्यवस्था के लिए पर्याप्त धनराशि की आवश्यकता होगी तथा दीर्घकाल तक परिश्रमपूर्वक अनुष्ठान करना पड़ेगा तभी उसे श्रीयंत्र पूजा के फलस्वरूप वास्तविक ज्ञान तथा वांछित सिद्धि प्राप्त हो सकेगी।

।। श्रीयंत्र का स्वरूप।।

श्रीयंत्र का तात्पर्य है श्री विद्या (महात्रिपुरसुन्दरी) का यंत्र अथवा श्री का गृह जिसमें वह निवास करती है। अतः उनके गृह का आश्रय लिए बिना उनसे मिलन नहीं हो सकता है। माँ भगवती की उपासना हेतु मंत्रों तथा यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों का अभिमत है कि यदि गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का निर्धारित संख्या में जप किया जाये तो उपासक को उस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी/देवता का साकार रूप दृष्टिगोचर हो जाता है। श्रीयंत्र स्वयं में श्री महात्रिपुरसुन्दरी का विशिष्ट ज्यामितीय स्वरूप है जिसकी रचना में बिन्दु, त्रिकोणों, वृत्तों तथा चतुर्भुजों का प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों में यंत्र को देवी का शरीर तथा मंत्र को देवी की आत्मा बताया गया है। अन्य महाविद्याओं के यंत्रों की तुलना में श्रीयंत्र को अत्यन्त जटिल तथा सर्वश्रेष्ट माना गया है। इसीलिए श्रीयंत्र को यंत्रराज की उपमा से विभूषित किया गया है। इस यंत्र में समस्त ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति तथा विकास का अद्भुत चित्रण करने के साथ ही इसका मानव शरीर तथा उसकी समस्त क्रियाओं के साथ सूक्ष्मतर तादात्म्य स्थापित किया गया है। शास्त्र बताते हैं कि श्रीयंत्र ब्रहमान्डाकार भी है तथा पिन्डाकार भी है। इस प्रकार समस्त ब्रह्मान्ड ही श्रीविद्या का गृह है। श्री शिव माँ पार्वती से कहते हैं –

‘चक्रं त्रिपुरसुन्दर्या-ब्रहमान्डाकार मीश्वरि।’

जबकि भावनोपनिषद् मानवदेह को ही नवचक्रमय श्री यंत्र मानता है

‘नवक्रभयो देहः’।

भगवत्पाद् शंकराचार्य जी द्वारा सौन्दर्य लहरी में श्रीयंत्र का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-

चतुर्भि श्रीकंठे शिवयुवतिभिः पंचभिरपि

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त्रिरेखाभि सांर्ध-तव शरणकोणाः परिणताः’

श्रीयंत्र श्रीविद्या का ज्यामितीय स्वरूप है। सम्प्रदायभेद (हादि, कादि तथा सादि), समयाचार (समयमत तथा कौलमत) पूजाक्रम तथा गुरूपरम्पराओं के अनुसार श्री यंत्र की रचना में किंचित अन्तर पाया जाता है जिसका संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-

(1) सृष्टिक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र

सृष्टिक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र की उपासना समयमत के अनुयायी साधक करते है। श्री शंकराचार्य इसी मत के अनुयायी थे। इस यंत्र में सबसे भीतरी वृत्त के अन्दर चारों तरफ 9-त्रिकोण होते हैं। जिनमें से ऊर्ध्वमुखी 5-त्रिकोण शक्ति के द्योतक हैं जिनको ‘शिवयुवती’ कहा गया है तथा अधोमुखी 4-त्रिकोण शिव के द्योतक हैं जिनको ‘श्रीकंठ’कहा गया है। यही 9-त्रिकोण पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता स्थापित करते हैं तथा इन्हीं 9-त्रिकोणों को मिलाकर वृत्त के अन्दर 43-त्रिकोण बन जाते हैं। ब्रह्मान्ड के सन्दर्भ में 5-शक्ति त्रिकोण पंचभूत, पंचतन्मात्रा, पंचकर्मेन्द्रिय,पंचज्ञानेन्द्रिय तथा पंचप्राण के द्योतक हैं जबकि शरीर के सन्दर्भ में यही त्वक्, असृक, मांस, मेद तथा अस्थि के द्योतक हैं। इसी प्रकार 4-शिवत्रिकोण ब्रह्मान्ड के सन्दर्भ में मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार का निरूपण करते हैं तो शरीर के सन्दर्भ में मज्जा, शुक्र, प्राण तथा जीव का निरूपण करते हैं। स्पष्ट है कि श्रीयंत्र के सन्दर्भ में पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता का विवरण अत्यन्त दुरूह तथा विस्तृत है। जिज्ञासु साधक को यह ज्ञान आगमग्रन्थों तथा श्रीगुरूदेव से प्राप्त कर लेना चाहिए। इस सन्दर्भ में योगिनीहृदय तंत्र का बचन दृष्टव्य है-

‘त्रिपुरेशी महायंत्रं -पिन्डात्मक मीश्वरि

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पिन्ड-ब्रह्मान्डयोज्ञानं-श्री चक्रस्य विशेषतः

(2) संहारक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र

इस क्रम के अनुसार निर्मित श्री यंत्र में 5-शक्ति त्रिकोण अधोमुखी तथा 4-शिवत्रिकोण ऊर्ध्वमुखी होते हैं। इस यंत्र की पूजोपासना कौलमतानुयायी साधक करते हैं। जो सामान्यतया ग्रहस्थ साधक होते हैं।

श्रीयंत्र के स्वरूप, श्रीयंत्र की उपासना पद्धतियों तथा उसकी पूजा-उपासना से प्राप्त सुफलों का विस्तृत विवरण त्रिपुरोपनिषद्, त्रिपुरातापिनी उपनिषद्, तंत्रराज तंत्र,रूद्रयामल तंत्र, भैरवयामल तंत्र, कामकला विलास तथा ब्रह्मान्डपुराणान्तर्गत श्री ललितासहस्रनाम तथा त्रिशतीस्तव में दिया गया है।

।। श्रीयंत्र के 9 चक्रों का विवरण।।

श्रीयंत्र स्थित 9-चक्रों के विषय में ‘रूद्रयामल तंत्र’ में बताया गया है –

बिन्दु-त्रिकोण, बसुकोण दशारयुग्म

मन्वस्र नागदल संयुत षोडशारम्

वृत्तत्रयंत्र धरणीसदन त्रयंच

श्री चक्रभेत दुदितं परदेवतायाः

इस प्रकार श्रीयंत्र में निम्नलिखित 9-चक्र होते हैं –

(1) बिन्दु-सर्वानन्दमय चक्र।

(2) त्रिकोण-सर्वसिद्धिप्रद चक्र।

(3) आठत्रिकोण (अष्टार)-सर्वरोगहर चक्र।

(4) आन्तरिक 10-त्रिकोण (अन्तर्दशार)-सर्वरक्षाकर चक्र।

(5) बाह्य 10-त्रिकोण (वहिर्दशार)-सर्वार्थसाधक चक्र।

(6) 14-त्रिकोण (चतुर्दशार)-सर्वसौभाग्यदायक चक्र।

(7) 8-दलों का कमल (अष्टदलपद्म)-सर्वसंक्षोभण चक्र।

(8) 16-दलों का कमल (षोडशदल पद्म)-सर्वाशापरिपूरक चक्र।

(9) चतुरस्र (भूपुर)-त्रैलोक्यमोहन चक्र।

श्रीयंत्र स्थित उपरोक्त 9-चक्रों के दिव्य नामों से ही इसकी पूजोपासना से प्राप्त होने वाले सुफलों का परिचय मिल जाता है।

आगम ग्रन्थों में श्रीयंत्र के विषय में विस्तृत विवरण देते हुए बताया गया है-

चतुर्भि शिवचक्रैश्च, शक्तिचक्रैश्च पंचभिः

नवचक्रैश्च ससिद्धं-श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः

(5-शक्तित्रिकोणों तथा 4-शिवत्रिकोणों से युक्त श्रीयंत्र साक्षात् शिव जी का ही शरीर है)

श्रीचक्र स्थित शक्तिचक्रों तथा शिवचक्रों का विवरण देते हुए ब्रह्मान्डपुराण (श्री ललिता त्रिशती) में बताया गया है कि –

त्रिकोण अष्टकोणं च-दशकोणद्वयं तथा

चतुर्दशारं चैतानि-शक्तिचक्राणि पंच च

(त्रिकोण, अष्टकोण, अन्तर्दशार, बहिर्दशार तथा चतुर्दशार शक्तिचक्र हैं)

बिन्दुश्चाष्टदलं पद्मं-पद्मं षोडशपत्रकम्

चतुरस्रं च चत्वारि-शिवचक्राण्यनुक्रमात्

(बिन्दु, आठदलों वाला कमल, सोलह दलोंवाला कमल तथा भूपुर शिवचक्र हैं)

पुनश्च-

त्रिकोणरूपिणी शक्तिः-बिन्दुरूप परशिवः

अविनाभाव सम्बद्धं-यो जानाति स चक्रवित्

(वही साधक ज्ञानी है जो यह जानता है कि श्रीयंत्र स्थित त्रिकोण ही शक्ति है तथा बिन्दु ही शिव-स्वरूप है)

श्रीयंत्र को सृष्टि, स्थिति तथा संहारचक्रात्मक भी माना गया है। इसके बिन्दु, त्रिकोण तथा अष्टार को सृष्टिचक्रात्मक,अन्तर्दशार, वहिर्दशार तथा चतुर्दशार को स्थिति चक्रात्मक तथा अष्टदल, षोडशदल तथा भूपुर को संहारचक्रात्मक मानते हैं। इसीलिए जिस क्रम (उपासनापद्धति) में श्रीयंत्र की पूजा बिन्दु से आरम्भ होकर भूपुर में समाप्त होती है उस क्रम को सृष्टिक्रम कहते हैं तथा जिस क्रम में श्रीयंत्र की पूजा भूपुर से आरम्भ होकर बिन्दु में समाप्त होती है उसे संहारक्रम कहा जता है। कौलमतानुयायी ग्रहस्थ साधकों में इसी संहारक्रम से पूजा (नवावरणपूजा) करने की परम्परा है। श्रीयंत्र के चक्रों में एक विशेष विधि तथा क्रम से विभिन्न वर्णाक्षर (स्वर तथा व्यंजन) लिखे रहते हैं। यही मातृकाक्षर श्रीयंत्र की आत्मा तथा प्राण हैं जिनके प्रभाव से श्रीयंत्र उपासना परमसिद्धिदायक बन जाती है।

।।श्रीयंत्र के वृत्तों तथा चतुरस्र की रचना।।

श्रीयंत्रान्तर्गत वृत्तों की संख्या तथा चतुरस्र की रेखाओं के विषय में विभिन्न गुरूपरम्पराओं तथा उपासनाक्रमों में मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया चतुर्दशार के पश्चात् एक वृत्त तथा अष्टदलकमल के पश्चात भी एक वृत्त बनाया जाता है। प्रमुख मतभेद षोडशदल कमल के बाद बनाए जाने वाले वृत्तों की संख्या के बारे में पाया जाता है। कौलमतानुसार षोडशदलों के शीर्ष से केवल एक ही वृत्त दिया जाता है जबकि अन्य गुरूपरम्पराओं में इस वृत्त के बाद एक अतिरिक्त वृत्त (कुल 2-वृत्त) तो कहीं 2-अतिरिक्त वृत्त (कुल 3-वृत्त) दिए जाते हैं। इसी प्रकार भूपुर की रेखाओं की संख्या के बारे में भी मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया 3-रेखाओं तथा 4-द्वारों वाला चतुरस्र ही पाया जाता है। कोई आचार्य 4-रेखाओं युक्त 4-द्वारों वाला चतुरस्र भी बनाते हैं। कौलमतानुदायी भूपुर की बाहरी रेखा में अणिमादि 10-सिद्धियों, मध्यरेखा में ब्राह्मी आदि 8-मातृकाओं तथा अन्दर की रेखा में सर्वसंक्षोभिण्यादि 10-मुद्राशक्तियों अर्थात् कुल 28-शक्तियों की पूजा करते हैं जबकि 4-रेखाओं वाले चतुरस्र को मानने वाले इन्द्रादि 10-दिक्पालों का भी यहीं पर पूजन करते हैं। मतभेद चाहे कुछ भी हो अपनी गुरूपरम्परा के अनुसार श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन करने से साधक को अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती ही है।

।। श्रीयंत्र उपासना में पिन्ड व्रह्मान्ड की ऐक्यता।।

श्रीविद्या के उपासक श्रीयंत्र को मन का द्योतक मानते हैं। अद्वैत वेदान्ती श्रीचक्र को मन की सृष्टि मानते हैं। श्रीचक्र को बनाने वाले बिन्दु तथा त्रिकोण आदि चक्र मन और उसकी विभिन्न वृत्तियां ही हैं। यह अत्यन्त रहस्यमय कथन है जिसका विस्तार यहाँ पर नहीं किया जा सकता है। श्रीचक्र का प्रत्येक आवरण (कुल-9 आवरण) मनुष्य की मानसिक दशा को निरूपण करता है तथा विभिन्न चक्रों में पूजित शक्तियाँ भी मन की विभिन्न वृत्तियों का ही निरूपण करती हैं। मानव शरीर में विद्यमान समस्त नाड़ी मन्डल,उनकी समस्त क्रियाओं, उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख-दुख, मनुष्य की समस्त आन्तरिक तथा बाह्य भावनाओं का श्रीचक्र के विभिन्न आवरणों की विभिन्न शक्तियों के साथ विलक्षण सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इस प्रकार की ऐक्यता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है।

(1) बिन्दु चक्र (महाबिन्दु)

श्रीयंत्र में बिन्दुचक्र ही प्रधानचक्र हैं। यहीं पर श्री कामेश्वर शिव के साथ श्री कामेश्वरी (माँ त्रिपुरसुन्दरी) नित्य आनन्दमय अवस्था में विद्यमान रहती है। इनके पूजन से साधक को परमानन्दरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है तथा सविकल्प समाधि सिद्ध हो जाती है। इस चक्र की आवरण देवी केवल ‘परदेवता’ ही है।

(2) सर्वसिद्धिप्रद चक्र (त्रिकोण)

इस त्रिकोणचक्र के 3-कोणों को कामरूप, पूर्णागिरि तथा जालन्धर पीठ माना जाता है तथा मध्यबिन्दु में ओड्याण पीठ स्थित है। इन पीठों की अधिष्ठात्री देवियां कामेश्वरी,बज्रेश्वरी तथा भगमालिनी हैं जो प्रकृति, महत् तथा अहंकार की द्योतक है।

(3) सर्वरोगहर चक्र (अष्टार)

अष्टार के 8-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री देवियां वशिनी आदि8-वाग्देवता हैं जो क्रमशः शीत से तम तक की स्वामिनी है।

(4) सर्वरक्षाकरचक्र (अन्तर्दशार)

इस चक्र के 10-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री सर्वज्ञा आदि 10-देवियां है जो रेचक से मोहक तक की स्वामिनी है।

(5) सर्वार्थसाधकचक्र (वहिर्दशार)

इस चक्र के 10-कोणों की अधिष्ठात्री सर्वसिद्धिप्रदा आदि10-देवियां है जो 10-प्राणों की स्वामिनी है।

(6) सर्वसौभाग्यदायक चक्र (चतुर्दशार)

इस चक्र के 14-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री सर्वसंक्षोभिणी आदि 14-देवियां हैं जो अलम्बुषा से सुषुम्ना तक 14-नाडि़यों की स्वामिनी है।

(7) सर्वसंक्षोभण चक्र (अष्टदल कमल)

इस चक्र के 8-दलों की अधिष्ठात्री अंनगकुसुमा आदि 8-शक्तियां हैं जो बचन से लेकर उपेक्षा की बुद्धियों की स्वामिनी है।

(8) सर्वाशापरिपूरकचक्र (16-दलों वाला कमल)

इस चक्र के 16-कमलदलों की अधिष्ठात्री कामाकर्षिणी आदि 16-शक्तियां हैं जो मन, बुद्धि से लेकर सूक्ष्मशरीर तक की स्वामिनी है।

(9) चतुरसचक्र (भुपूर)

इस चक्र में 3 अथवा 4-रेखाऐं मानी जाती है। यदि 3-रेखाऐं मानी जायें तो इन पर 10-मुद्राशक्तियां, 8-मातृकाऐं तथा 10-सिद्धियां स्थित हैं। यदि 4-रेखाऐं मानी जायें तो इनमें इन्द्रादि 10-दिग्पाल भी सम्मिलित हो जाते हैं। सर्वसंक्षोमिणी आदि 10-मुद्राशक्तियां 10-आधारों की द्योतक है। ब्राह्मी आदि 8-मातृकाऐं काम-क्रोधादि की द्योतक हैं। आणिमादि 10-सिद्धियां 9-रसों तथा भाग्य की द्योतक हैं। इन्द्र आदि 10-दिक्पालों की पूजा का उद्देश्य साधक की रक्षा करना तथा उसके समस्त बिघ्नों का निवारण करना होता है। श्री ललिता (पंचदशी) के उपासक श्री यंत्र के 9-चक्रों में उपरोक्तानुसार नित्य पूजन-अर्चन करते हैं। इसे नवावरणपूजा कहा जाता है। पूर्णाभिषेक के पश्चात् महाषोडशी (महात्रिपुरसुन्दरी) के उपासकों के लिए नवावरण पूजा के अतिरिक्त पंचपंचिका पूजा, षड्दर्शन विद्या, षडाधारपूजा तथा आम्नायसमष्टि पूजा करने का भी निर्देश हैं। इस पूजा को करने से उपासक को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि असंख्य देवी-देवता केवल एक पराशक्ति के ही बाहरीरूप हैं। इसी प्रकार षडाम्नायों के 7-करोड़ महामंत्र भी परब्रह्म स्वरूपिणी महाशक्ति का ही गुणगान करते हैं। वास्तव में श्रीचक्र पूजा का उद्देश्य आत्मा का ब्रह्म के साथ एकता करने का निरंतर अभ्यास करने के साथ ही ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहंब्रह्मास्मि’ की भावना दृढ़ करके द्वैत भावना को नष्ट करते हुए ब्रहमानन्द की प्राप्ति करना होता है।

।। श्रीयंत्र दर्शन एवं पूजन का माहात्म्य।।

श्रीयंत्र श्री महात्रिपुरसुन्दरी का जीता-जागता साकार स्वरूप ही है। रूद्रयामल तंत्र में श्रीयंत्र दर्शन से प्राप्त होने वाले पुण्य तथा सुफलों का वर्णन करते हुए कहा गया है –

सम्यक् शतक्रतून कृत्वा-यत्फलं समवाप्नुयात्

तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनात्

महाषोडश दानानि

सार्धत्रिकोटि तीर्थेषु-स्नात्वा यत्फल मश्नुते

तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनम्

(महानयज्ञों का आयोजन करके, नाना प्रकार के दान-पुण्य करके तथा करोड़ों तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य तथा सुफल प्राप्त होते हैं वह केवल श्रीयंत्र के दर्शन करने से ही प्राप्त हो जाते हैं।)

श्रीयंत्र का चरणामृत (श्रीयंत्र के ऊपर अर्पितजल) पान करने से प्राप्त सुफलों का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं-

गंगा पुष्कर नर्मदाच यमुना-गोदावरी गोमती

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तीर्थस्नान सहस्रकोटि फलदं-श्रीचक्र पादोदकं

(गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, गोमती तथा सरस्वती आदि पवित्रनदियों, पुष्कर, गया, बद्रीनाथ, प्रयागराज, काशी,द्वारिका तथा समुद्रसंगम आदि तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे हजारों-करोड़ अधिक पुण्य केवलमात्र श्रीयंत्र का चरणोदक पीने से प्राप्त हो जाता है।)

पुनश्च,

अकालमृत्यु हरणं-सर्वव्याधिविनाशनं

देवी पादोदकं पीत्वा-शिरसा धारयाम्यहं’।

(श्रीयंत्र का चरणोदक अकालमृत्यु का हरण करता है तथा समस्त व्याधियों का नाश करता है। अतः इसे पीना चाहिए तथा शिर में भी धारण करना चाहिए)

शास्त्र यह भी बताते हैं-

प्रथमं काय शुद्यंर्थ-द्वितीयं धर्मसंग्रहं

तृतीयं मोक्षप्राप्त्यर्थ एवं तीर्थं त्रिधापिवेत्

(प्रत्येक साधक को अपनी कायाशुद्धि के लिए, धर्मसंग्रह के लिए तथा मोक्षप्राप्ति के लिए इस चरणामृत को 3-बार पीना चाहिए।)

शास्त्रों तथा श्रीगुरूजनों द्वारा निर्देश दिया गया है कि श्री सत्गुरूओं द्वारा सुप्रतिष्ठित तथा साधक द्वारा कुलद्रव्यों द्वारा कुलक्रमानुसार सुपूजित श्रीयंत्र श्री माँ का नित्यजागृत शरीर की भांति हो जाता है। अतः कोई भी अदीक्षित व्यक्ति (शक्तिपात रहित) जिसने विभिन्न न्यासों के अतिरिक्त‘महाषोढा’ तथा ‘महाशक्ति’ न्यास का अभ्यास न किया हुआ हो, यदि अत्यन्त विनम्रभाव से तथा परमभक्तिपूर्वक भी, श्रीयंत्र का दर्शन करता है तो उसकी आयु (उम्र) का हरण हो जाता है। यह भी श्रीपराम्वा की इच्छा ही है कि वर्तमान समय में ऐसे सिद्ध श्रीयंत्रों के दर्शन प्राप्त हो पाना स्वतः ही कठिन हो गया है।

जय अम्बे जय गुरुदेव

Symptoms of Sadhana Progression

*साधना करतें समय साधक में विकसित होतें लक्षण ।*

● शारीरिक दर्द, विशेष रूप से गर्दन, कंधे और पीठ में। यह आपके आध्यात्मिक डीएनए स्तर पर गहन परिवर्तन का परिणाम है क्योंकि “ईश्वरीय बीज” जागता है।यह साधना करतें रहने से ठिकहो जाएगा

● बीना किसी कारण के लिए गहरी आंतरिक उदासी महसूस करना यह अनुभव से आप अपने अतीत (इस जीवनकाल और अन्य) कि दुखद घटनाओं से से मुक्त होने पर अनुभव करते हैं और इससे अकारण दुःख की भावना पैदा होती है । यह कुछ ऐसा हैं जैसे कई वषों तक अपनें घर को छोङ कर नयें घर में जाते है और पुराने घरों की यादें, ऊर्जा और अनुभवों को छोड़ने से जो उदासी अनुभव होतीं है। यह भी लगातार साधना करने से दुर हो जाएगा।बिना किसी कारण के लिए आँसू प्रवाह होना । यह शरीर और मन दोनो के लिए अच्छा और स्वास्थदायक है । यह पुरानी ऊर्जा को भीतर से रिलीज करने में मदद करता है। साधना करते जाएगा।

● वर्तमान परिवार के लोगों से अपनें को अलग महसुस करना उदासीनता आना ।हम पारिवारीक रिश्तों में अपनें पुराने कर्मों के कारण (लेन-देन) से जुड़े हुए हैं। जब आप कर्मी चक्र से निकलते हैं,तो पुराने रिश्तों के बंधनो से मुक्त होने लगते हैं। यह अनुभव हैं जैसे कि आप अपने परिवार और दोस्तों से दूर रह रहे हैं। यह समय भी गुजर जाएगा। समय के बाद, यदि आप उपयुक्त हैं तो आप उनके साथ एक नया रिश्ता विकसित कर सकते हैं। हालांकि, रिश्ते को एक नई ऊर्जा के आधार पर निभाया जाएगा बिना कार्मिक संलग्नकता के ।

● नींद का अकारण आधी रात को खुल जाना ।यह संभव है कि आप (2:00 AM- 4:00 AM) पूर्वाह्न के बीच कई रातों को जगाएंगे। तुम्हारे भीतर बहुत काम चल रहा है, और यह आपको अक्सर गहरी “श्वास” लेने के लिए जागने का कारण बनता है।कोइ चिंता नहीं। अगर आप वापस सोने के लिए नहीं जा सकते हैं, उठकर बिस्तर पर बैठकर कुछ करे गोलङन बुक पढें या मन मे सनकिरतन कर सकते हैं साधना कर सकतें हैं अच्छे सकारात्मक विचार मन में लाये इत्यादि । यह भी गुजर जाएगा।

● ❝इंटेंस सपने ।इनमें आप युद्ध और लड़ाई के सपने, राक्षस के पीछे भागने या ङरावने सपने शामिल हो सकते हैं। आप सचमुच में पुरानी ऊर्जा को भीतर से रीलिज़ कर रहे हैं, और अतीत की ये ऊर्जा अक्सर युद्ध के रूप में दर्शायी जाती है, ङर कर भागने के जैसे इत्यादि । यह भी गुजर जाएगा।* *भौतिक असंतोष ।कभी-कभी आप बहुत निराश महसूस करेंगे। आपको महसूस होगा कि आप जमीन पर दो फुट नहीं चल सकते हैं, या आप दो दुनियाओं के बीच चल रहे हैं। ऐसा अनुभव जब आपकी चेतना नई ऊर्जा में परिवर्तित होने लगतीं हैं तब ऐसा महसुस होता हैं । प्रकृति में अधिक समय व्यतीत करनेे से नई ऊर्जा का अपने भीतर निर्माण होने में मदद मिलती हैं । यह भी गुजर जाएगा।

● “स्वयं बाते करना।”अकसर आप अपने आप को अपने स्वयं से बात करतें महसूस करेंगे । आप अचानक महसूस करेंगे कि आप पिछले 30 मिनट से अपने आप से चिल्ला रहे हैं यह आपके अस्तित्व में होने वाले संचार का एक नया स्तर है, कई बार आप हिमशैल की नोकपर स्वयं को बात करते हुए अनुभव कर रहे होगें।आपकी यह बातचीत बढ़ेगी, और वे अधिक द्रव, अधिक सुसंगत और अधिक व्यावहारिक बन जाएंगे । आपको लगने लगेगा कि आप पागल होते जा रहे हैं, पर वास्तव में यह चेतना का विकास हैं आप नई ऊर्जा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हैं।

● अकेलेपन की भावना ।यह भावना लोगों के साथ होने पर भी अनुभव होती हैं । कई लोगों के होने पर भी आप अपनें आप को अकेले महसूस कर सकते हैं और लोगों कि उस भीङ से वहाँ से भाग जाये ऐसा भी ,महसूस कर सकतें हैं ।यह इसलिए अनुभव होता हैं जब हम निरंतर एक पवित्र और साधना मार्ग पर चल रहे हैं।अकेलेपन की भावनाओं के कारण आपको चिंता होती है, इस समय दूसरों से बातचीत करना या नयें संबंधबनाने में मुश्किल अनुभव करेगें । अकेलेपन की भावनाएं इस तथ्य से भी जुड़ी हुई हैं कि आपकी मार्गदर्शिकाएँ (spiritual Guids)समाप्त हो चुकी हैं। वे आपके सभी जीवन कालों में आपके सभी यात्रा पर रहे हैं। यह उनके लिए दूर करने का समय था ताकि आप अपनी जगह अपने देवत्व से भर सकें। यह भी गुजर जाएगा। भीतर का शून्य अपने ही सच ईश्वर की प्रेम और ऊर्जा से भर जाएगा

● जुनून का मौका ।इस अनुभव पर आप पूरी तरह से अपनी असहमति महसूस कर सकते हैं, कुछ भी करने की इच्छा नहीं रखते। यह ठीक है, और यह प्रक्रिया का सिर्फ एक हिस्सा है इस समय के लिए “कोई बात नहीं है।” इस पर खुद से लड़ाई मत करो, क्योंकि यह भी पारित होगा।यह कंप्यूटर को रिबूट करने के समान है आपको परिष्कृत नए सॉफ़्टवेयर को लोड करने के लिए समय की थोड़ी अवधि के लिए शट डाउन करना होगा, या इस मामले में नई दिव्य ऊर्जाओ के भीतर सुरक्षित करने के लिए होगा ।

● घर जाने के लिए एक गहन इच्छा ।यह अनुभव शायद किसी भी परिस्थितियों में सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण है। ग्रह छोड़ने और अपनें वास्तविक घर पर वापस जाने की एक गहरी और भारी इच्छा का अनुभव है ।यह कोई “आत्मघाती” अनुभव नहीं है नाहीं यह किसी प्रकार के क्रोध या हताशा पर आधारित है। आप इसे एक बड़ा सौदा नहीं करनाचाहते हैं या अपने आप को या अन्य के लिए नाटक का कारण नहीं बनाते हैं। आप का एक शांत ऊर्जा है जो घर जाना चाहती है। इसके लिए मूल कारण काफी आसान है। आपने अपना कर्मक चक्र पूरा कर लिया है आपने इस जीवनकाल के लिए अपना अनुबंध पूरा कर लियाहै ।आप इस भौतिक शरीर में अभी भी एक नया जीवनकाल शुरू करने के लिए तैयार हैं। इस संक्रमण प्रक्रिया के दौरान, आपको यह अहसास होजाता है कि आप कभी अकेले नहीं थे ।

●❝क्या आप पृथ्वी पर दूसरे कर्तव्य के दौरे के लिए तैयार हैं? क्या आप नई ऊर्जा में जाने की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं? अगर हां, वास्तव में आप अभी घर जा सकते हैं। लेकिन आप ये बहुत दूर आ गए हैं, और कई के बाद, बहुत से जन्मों के बाद फिल्म की समाप्ति से पहले ही यह शर्म की बात होगी।इसके अलावा, यहां आत्मा की जरूरत है ताकि आप दूसरों को इस नई ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें। उन्हें आपके जैसे ही एक मानव गाइड की आवश्यकता होगी, जिन्होंने पुरानी ऊर्जा से नई यात्रा की है।जिस पथ पर आप अभी चल रहे हैं, वह आपको नए दैवीय मानव के शिक्षक बनने के लिए सक्षम करने के लिए अनुभव प्रदान करता है।जैसा कि अकेला और अंधेरा जैसा आपकी यात्रा कभी-कभी हो सकती है, याद रखें कि आप अकेले नहीं हैं ।

आपका गुरु, आपके आधात्मिक गाईड, परम पिता परमेश्वर हमेशा आपके साथ हैं।

जगदगुरु श्री आदि शंकराचार्य की जन्म जयंती

आज सनातन धर्म के अर्वाचीन जगदगुरु श्री आदि शंकराचार्य की जन्म जयंती हैं वैशाख शुक्ल पंचमी, पुनर्वसु नक्षत्रे युधिष्ठिर संवत २६३१, कली संवत २५९३, १६ एप्रिल ५०९ BC. अद्वैतवादके प्रणेता महान ज्ञानी,एक पाठी (सतावधानी) और उपासक.

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“निर्वाण-षटकम्”

जब आदि गुरु शंकराचार्य जी की अपने गुरु गोविंदपदाचार्य से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा।

बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है।

यह परिचय ही आगे चलकर ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे।

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:

चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम।।१।।

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः

न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः।

न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु

चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम।।२।।

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ

मदोनैव मे नैव मात्सर्यभावः।

न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः

चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम।।३।।

न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं

न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः।

अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।।४।।

न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म।

न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं

चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम।।५।।

न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो

विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम ।

सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।।६।।

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

इति श्रीमद्जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं।।

“ॐ नमः शिवाय”

‘शंकरो शंकर: साक्षात्’।

एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘’शंकर’’, जी आगे चलकर ‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य’’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’

कुछ समय के पश्चात ई. सन् 686 में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।

आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् 788 को तथा मोक्ष ई. सन् 820 स्वीकार किया जाता है, परंतु सुधन्वा जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द 2631 शक् (507 ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द 2663 शक् (475 ई०पू०) सर्वमान्य है।

शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके ‘दसनामी संप्रदाय’ बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।

चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-

1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।

2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)

3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)

4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)

शंकराचार्य के चार शिष्य

1. पद्मपाद (सनन्दन)

2. हस्तामलक

3. मंडन मिश्र

4. तोटक (तोटकाचार्य)।

माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।

ग्रंथ :

शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया। इनके अलावा भी शंकरचार्य जी ने अनेको ग्रंथ एवं भाष्य जंकल्याणार्थ लिखे।

दसनामी सम्प्रदाय :

शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।

दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्राय:

गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।

यह दस संप्रदाय निम्न हैं :

1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।

हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी हरिहर तीर्थ।

शंकराचार्य का दर्शन :

शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि ‘ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।’ आत्मा की गति मोक्ष में है।

अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।

जिन्हें ज्ञान हैं उन्हें घमंड कैसा जिन्हें घमंड हैं उन्हें ज्ञान कैसा।

Best of the Best

Among the names Lalitā is the best. Among the mantras, Shreevidyā is the best. And in Shreevidyā , the Kādividyā is the best(Sri Vidya Pashupat Kashi Parampara is Kadi Vidya). The Sreepura is the greatest among cities; among the Shreevidyā Upāsakās, Paramashiva is the prime devotee. One is attracted to Shreevidyā only in his last birth. Those who take to this worship will have no more births. It requires an extraordinary merit to get initiated in Shreevidyā. Can anyone see objects without vision or assuage their hunger without taking food? Similarly, no one can attain Siddhi, or please the deity, without the help of Shreevidyā.