ત્રિપુરેશ્વરીની ચાર ભુજાઓ

માં ત્રિપુરેશ્વરી

🙏🏻ત્રિપુરેશ્વરીની ચાર ભુજાઓ.🙏🏻
પ્રસ્તોતા:- શાસ્ત્રી રાજેશ આચાર્ય.🖊️
ક,આદિ છત્રીશ વ્યંજનોમાં છત્રીસ તત્વોનો સમાવેશ છે.છેલ્લા વર્ણો એ તુરિય પદના અંગરૂપ છે.જ્યારે માત્ર ક્ષ’કાર એ બિંદુરૂપ શિવ છે.
પ્રવૃત્યાત્મક સંસરણની ચરમ સીમા જાગ્રત અવસ્થા છે.આ અવસ્થામાં જીવ પોતાને શિવથી જુદો ,સીમિત અને બંધાયેલો માને છે.અને જે તુરિય દશાની અનુભૂતિ છે એમાં જીવ બંધનથી મુક્ત થઈ ફરી શિવ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ કરી લે છે.
ઈચ્છા,ક્રિયા અને જ્ઞાન આ જે ત્રણ શક્તિઓ છે તેમાં ઈચ્છા જ કૂટસ્થ રૂપીણી છે.ઈચ્છાનું જ્ઞાન અને ક્રિયાના મધ્યમાં સ્ફુરણ નિરૂપેલું છે.ઈચ્છા વિના જ્ઞાન અને ક્રિયા પ્રવર્તિત નથી થતી.જ્ઞાન અને ક્રિયા ઈચ્છાનું અંગ છે અને ઈચ્છા પોતે અંગી છે.
જાગ્રત,સ્વપ્ન,સુષુપ્તિ અને તુરિય આ ચાર દશાઓને શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીના ચાર ભુજાઓ સાથે સરખાવ્યાં છે.ચાર દશાઓ ઉપલક્ષણ માત્ર છે,પારમાર્થિક સ્વરૂપ નહીં.સુષુપ્તિ આદિ જે ત્રણ દશાઓ છે તે બંધન કરનારી છે માટે તેના આયુધો ઇક્ષુ ચાપ,પુષ્પબાણ અને પાશ છે.

👉🏻ઇક્ષુચાપ- રસમય અને મધુર હોય છે,અને સુષુપ્તિ અવસ્થા વિશ્રાન્તિ રૂપ હોવાથી એક રસ છે,જેમાં જીવ શિવત્વની મધુર અનુભૂતિ કરે છે; માટે સુષુપ્તિરૂપ ભુજાનું આયુધ ઇક્ષુચાપ નિરુપ્યું છે.
👉🏻પુષ્પબાણ-જાગ્રત અવસ્થામાં પ્રપંચનો પ્રસાર થાય છે.આ અવસ્થાનો મુખ્ય વ્યાપાર વશીકરણ છે;જેમાં જીવ માયાને વશ થઈ જાય છે,અને પુષ્પબાણનો પણ એ જ ગુણ છે.માટે જાગ્રત રૂપ ભુજાનું આયુધ પંચબાણ નિરુપ્યું છે.
👉🏻પાશ – સ્વપ્નદશા થોડી સૂક્ષ્મ રૂપ છે,માટે આ વાયુતત્વ છે.વાયુના પ્રકોપથી ઝંઝાવાતના ઉદયને લીધે સ્વપ્ન દશા ભ્રામક કહેવાય છે.આમાં જીવને ભેદાભેદ ભ્રાન્તિની અનુભૂતિ થાય છે.માટે સ્વપ્નાત્મક ભુજાના આયુધને પાશના રૂપમાં પ્રદર્શિત કર્યું છે.
👉🏻અંકુશ – ચોથી ભુજા જ્ઞાનાત્મક તુર્યદશા છે જેમાં જીવ શિવત્વની પ્રાપ્તિ કરી ને મુક્ત થઈ જાય છે.માટે જ્ઞાનાત્મક સદાશિવને અંકુશના રૂપમાં ચોથા આયુધ રૂપે નિરુપ્યું છે.જેવી રીતે ગજ- હાથીરૂપી મહાપશુનું નિયંત્રક અંકુશ છે એ જ રીતે ચૈત્યરૂપ મહાપશુનું નિયંત્રણ જ્ઞાનરૂપ સદાશિવ તત્વથી થાય છે.

સવિકલ્પ અને નિર્વિકલ્પ ઉભયાત્મક રૂપ શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીને “ક્ષ્માંગિની” નામથી સંબોધિત કર્યા છે.એટલે કે ક્ષ’કાર અને મ’કાર ત્રિપુરેશ્વરીના બીજ મંત્રો છે.શિવાત્મક નિર્વિકલ્પ પદનો બોધ ક્ષ’કાર છે એટલે જ ત્રિપુરેશ્વરીના તુર્ય પદનું બીજ પણ ક્ષ’કાર છે. સુષુપ્તિ આદિ અવસ્થાઓમાં જીવની સ્થિતિ જણાવેલી છે.આ જીવનો બોધ મ’કાર છે.માટે મકાર એ વિકલ્પ પદનું બીજ છે.અને શ્રી ત્રિપુરેશ્વરીનું સ્વરૂપ સવિકલ્પ નિર્વિકલ્પ એમ ઉભયાત્મક છે.માટે ક્ષકાર અને મકાર એ ઉભયાત્મક બીજોના યોગથી ત્રિપુરેશ્વરીને “ક્ષ્માંગિની” પ્રતિપાદિત કરેલાં છે.
શાસ્ત્રી રાજેશ આચાર્યના જય અંબે જય ગુરુદેવ.

Maha Pratisara Devi

The protectress deity confer great protection. One such example befitting to this context is described in the first chapter of the Pancaraksha sutra (detailing on Pancharaksha Devtas). It is said that one who holds the dharani of Mahapratisara will be protected from all forms of illness, eliminate the past non-virtuous karma, protect from all sorts of dangers. Their body becomes a vajra body not affected by fire, weapons and others.

Ref:Aakash Deb, Shri Vidya Upasak

सहस्रनाम और रहस्य (Sahasranama and Rahasyas)

सहस्रनाम और रहस्य (Sahasranama and Rahasyas)

श्री ललिता सहस्रनाम में-“अक्षरों” के साथ एक अद्भुत जादूगरी की गयी है।

श्लोक लिखने की पद्धतिया होती है वह एक प्रकार के लेखन शैली का अनुशरण करती है जैसे गायत्री (24 अक्षर), उशनिक (28), अनुष्टुप (32), बृहथी (36), पंक्ति (40), त्रिष्टुप (44), और जगथी (48) ।

अधिकांश प्रसिद्ध कार्यों की तरह, श्री ललिता सहस्रनाम भी अनुष्टुप शैली में रचा गया था। प्रत्येक पंक्ति में 16 अक्षर होते है , इस प्रकार दो पंक्ति वाले श्लोक में 32 अक्षर होते हैं।

एक अन्य रहस्य यह है कि उपोधगतम (परिचय) में 51 श्लोक, नामा (182-1/2) और फल श्रुति (86) है। कुल 319-1 / 2 स्लोक। ध्यान स्लोक पर ध्यान नहीं दिया गया।

यह कहना है कि मैग्नम ओपस में 10,224 अक्षर (319-1 / 2 x 32 अक्षर) हैं। आमतौर पर, कोई भी प्रतिदिन पूर्वा और उत्तरा पीतिका का पाठ नहीं करता है। मान लें कि कोई व्यक्ति मुख्य ललिता सहस्रनाम का पाठ करता है, तो यह ध्यान में रखा जाता है कि उसने 5,824 अक्षर बोले ।

51 अक्षरों में से केवल 32 अक्षरों का उपयोग किया गया और अन्य स्वर और व्यंजन उपयोग नहीं किया गया । इससे यह संकेत मिलता है की कोई भी अपनी मर्ज़ी से और अपने हिसाब से शब्दों को परिवर्तित नहीं कर सकता, जैसा कि वह पसंद करता है। प्रत्येक अक्षर और शब्द का मूल अक्षर और उसकी ध्वनि समान होनी चाहिए।

आप “का ” को “गा” या इसके विपरीत नहीं पढ़ सकते। जैसे की सा और चा….. शरणम् और चरणम में – एक शरण लेना है मतलब किसी का सानिध्य लेना है और दूसरे का मतलब पैर है। इसलिए इस अंतर और असमान्ता के बारे में पता होना चाहिए और ठीक से बोलना होना चाहिए। यदि वह फिर भी नहीं बोल पा रहा , तो उसे केवल “लघु ” छोटे और आसान शब्दों को चुनना चाहिए और मंत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

2, 3, 4, 5, 6 8, 9, 12 और 16 अक्षरों में नाम आते हैं। किसी भी समय किसी भी नाम के क्रम को नहीं तोड़ना चाहिए, या तुकबंदी के लिए दूसरे को जोड़ना नहीं चाहिए ।

“निजारुना -प्रभा-पूरा -मज्जत-ब्रह्माण्ड-मंडला” को एक नाम के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। यह 16 अक्षरों का है। आपको इसे अपने लिए सुविधाजनक बनाने के लिए नहीं तोड़ना चाहिए।

कुरु-विन्द-मणि-श्रेणी-कणठ-कोटिरा-मण्डिता भी 16 अक्षरों का है।
अष्टमी-चन्द्र-विभ्राजा-धलिका-स्थला-सोभित भी 16 अक्षरों का है।
ऐसे 27 नाम और हैं पुरे सहश्रनाम में ।
इस संकलन/संग्रह की एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आधे लाइन में ही समाप्त हो जाता है। इसमें श्री माता से श्रीमत त्रिपुरसुंदरी तक 182 श्लोक हैं। हालाँकि, 16 अक्षरों की अंतिम पंक्ति श्री-शिव शिव- सकतेका रूपिनी ललिताम्बिका (3 नाम) एक स्वतंत्र ( standalone ) विवरण है।

हम सभी जानते हैं कि ललिता प्रदेवता जगत माता हैं और सब कुछ की निर्माता है वो ही विधाता है , जिनमें ब्रह्मा शब्द भी शामिल हैं। जिसमें से वेद निकले और इस तरह उन्हें “श्रुति” और “स्मृति” कहा गया क्यों की यहाँ पे जो भी लिखा गया वह याद कर के स्मरणशक्ति द्वारा लिखा गया ।

वह वेदों का सार है और इसका व्याकरण “छंद – सारा” है। वह सभी शास्त्रों का सार है “शास्त्र सारा ” । वह सभी मंत्रों का मूल है “मंत्र सारा”। “सर्व मन्त्र स्वारूपिणी”। वह सभी मन्त्रों का मूर्त रूप है। एक या कोई हजार मंत्र नहीं, वह सप्त कोटि मंत्रों (७,००,००,०००) का भंडार है। हर अक्षर एक मंत्र है। वह सभी मंत्रों का आधार है “मूल मंत्रात्मिका” ।

जो हम अपने मन्न और बुद्धि से सोच सकते है वह उस सोच से भी परे है।
“मनो-वाचम -गोचरा ” मनस , वाक् , अनुभव, समझ और विचार।
“मनोन्मनी” – वह आप में आपके विचार है, और कार्यों का परिणाम भी हैं ।
“वैखरी रूपा”- वह एक तरह से बातचीत करने का तरीका है। नाद रूपा- वह आपके विचारों को एक आकार देती है और आपको बात करने के काबिल बना ती है । हमारा सारा ज्ञान सूखे घाँस के ढेर की तरह है जब तक हमारे पास माँ की कृपा नहीं है जिसे “वाग वाधिनी” कहते है । शब्दों को प्रभावशाली बनाने में वह आपकी मदद करती है। वाक् चातुर्य , वाक् पातिमा ।

मत सोचो कि मंत्र एक कठिन अभ्यास है। मनन त्रायते इति मंत्र। जो भी आप बार-बार सुनते/पढ़ते/पाठ करते हैं वह मंत्र बन जाता है। आप सभी को माँ पर अत्यंत विश्वास होना चाहिए । वह आप की कोई भी बात सुन सकती है (सुभाषश्री) ।

हर समय आप ईश्वर की कृपा के बारे में सोचें । वह आपके साथ रहेंगे ।
यह सब उनकी कृपा के कारण हो रहा है । वह चाहती है की उन्हें ज्यादा से ज्यादा जाना जाए ।

यही बात श्रीकृष्ण ने उधव को बताया था, जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने जुआ (डाइस प्ले) के समय युद्ध को सही तरीके से क्यों नहीं रोका। कृष्ण कहते हैं कि धर्मराज ने उनकी मदद नहीं ली और उन्हें लगा कि उन्हें पासा के खेल में सब कुछ पता है। अज्ञानता और अहंकार मनुष्य को बर्बाद कर देता है। ईमानदार रहें जब आप कुछ भी नहीं जानते हैं, भगवान की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है – चाहे वह बड़ा या छोटा काम हो।

शरभावतार आकाश भैरव(Sharabheshwar)

भगवान शंकर के षष्ठ अवतार शरभावतार

का स्वरूप आधा मृग तथा शेष शरभ पक्षी (आठ पैरों वाले शेर से भी शक्तिशाली ) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था| भगवान शरभेश्वर की दो शक्ति- माता शूलिनी और माता प्रत्यांगिरा हैं जो भगवान के दोनो पंखो पर विराजमान हैं।

श्री विद्या माता ललिता की उपासना मात्र से भगवान शरभ और माता प्रत्यांगिरा की भक्तों पर विशेष कृपा रहती हैं और वे भयानक तांत्रिक एवं अन्य प्रयोगों या भय से रक्षा करते हैं।भगवान को आकाशभैरव भी कहते हैं।भगवान शरभ अति उग्रस्वरूप हैं तभी वे भगवान नृसिंह को शांत कर पाए थे। तंत्रमें शरभ जी बड़ी महिमा हैं परंतु उनको साधने वाले सच्चे साधक बहुत दुर्लभ हैं🙏🌺🙏

गुरुदेव श्री अच्युतानंदनाथ (काशी के कौल भट्टजी) जो श्री विद्या काशी पाशुपत परम्परा के २४१ वे ज्योतिर्धर थे भगवान शरभेश्वर और बटुक भैरव वारंवार उनके साथ देखे गए हैं

देवीमयि

तव च का किल न स्तुतिरम्बिके! सकलशब्दमयी किल ते तनुः।

निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयो मनसिजासु बहिःप्रसरासु च॥

इति विचिन्त्य शिवे! शमिताशिवे! जगति जातमयत्नवशादिदम्।

स्तुतिजपार्चनचिन्तनवर्जिता न खलु काचन कालकलास्ति मे॥

——- महामाहेश्वर श्री अभिनवगुप्त

‘हे जगदम्बिके! संसार मे कौन-सा वाङ्मय ऐसा है, जो तुम्हारी स्तुति नहीं है; क्योकि तुम्हारा शरीर तो सकलशब्दमय है। है देवि! अब मेरे मन मे संकल्पविकल्पात्मक रुप उदित होने वाली एवं संसार मे दृश्य रुप से सामने आने वाली सम्पूर्ण आकृतियों मे आपके स्वरुप का दर्शन होने लगा है। हे समस्त अमंगलध्वंसकारिणि कल्याणस्वरुपे शिवे! इस बात को सोचकर अब बिना किसी प्रयत्न के ही सम्पूर्ण चराचर जगत मे मेरी यह स्थिति हो गयी है कि मे समय का क्षुद्रतम अंश भी तुम्हारी स्तुति, जप, पूजा अथवा ध्यान से रहित नहीं है। अर्थात मेरे सम्पूर्ण जागतिक आचार-व्यवहार तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न रुपों के प्रति यथोचिरुप से व्यवहृत होने के कारण तुम्हारी पूजा के रुप में परिणत हो गये है।’

श्री सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्

श्री सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्

दुर्गा सप्तशती में वर्णित सिद्ध कुंजिका स्तोत्र एक अत्यंत चमत्कारिक और तीव्र प्रभाव दिखाने वाला स्तोत्र है। जो लोग पूरी दुर्गा सप्तशती का पाठ नहीं कर सकते वे केवल कुंजिका स्तोत्र का पाठ करेंगे तो उससे भी संपूर्ण दुर्गा सप्तशती का फल मिल जाता है।

शिव उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।

येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत् ॥१॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।

न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥२॥

कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।

अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।

मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥४॥

अथ मन्त्रः

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः

ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा

इति मन्त्रः॥

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।

नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥१॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥२॥

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ।

ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ॥३॥

क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ।

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ॥४॥

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥५॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।

क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥६॥

हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥७॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं

धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ॥८॥

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे ॥

इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे ।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥

यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥

इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती

संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्ण।

गणेश प्रतिमा का आध्यात्मिक रहस्य

।।श्री गणपति अथर्व विज्ञानं ।।

गणेशजी के उत्सव में 9 दिन के त्यौहार और 10 वे दिन मूर्ति का विसर्जन करते है

परन्तु इस सब में हम यह सीखना भूल गए आखिर इसका बोध क्या है क्यों हम एक परम्परा को सालो से मानते आये है पर कभी यह नहीं सोचा आखिर जो परम्परा बनी है उसका रहस्य क्या है?

कौन है गणेश?

वेदों में गणेश का कोई भी आकार नहीं बताया नहीं उपनिषद यह केहता है

पुराणों में इसका उल्लेख है एक कथा के रूप में

कथा थी

अब इसके पीछे के विज्ञानं की खोज करते है

क्यों शिव ने शक्ति के पुत्र का मस्तक काटा?

क्या कोई पिता अपने पुत्र को पहचान न पाया?

अगर एक हाथी का मस्तक धड से लग सकता है तो फिर वो ही मस्तक दुबारा क्यों नहीं लगाया?

ऐसे सवाल काफी है जिसके जवाब नहीं मिलते फिर ये एक कथा को सत्य मान लेते है

जड दिमाग कभी किसीका भला नहीं कर सकता

जब पार्वती ने अपने मेल से आकार दिया तो प्रकृति का प्रधान्य करते हुए 3 दोष उसमे चले गए

जो अपने भीतर की शक्ति को रोक नहीं पाए

इसमें एक बुद्धि और ज्ञानी के पास शक्ति हो तो वो उसका उपयोग कहा कैसे और किसके सामने करना है वो जान पाता है

यह एक दंत कथा है

शिव वो आत्मा है ज्ञान है जब की प्रकृति शक्ति यह दोनों के मिलन से ही सृष्टी का कल्याण सम्भव है

जब गणेश का पहली बार निर्माण हुआ तो वो असंतुलित था क्यूंकि सिर्फ शक्ति और प्रकृति प्रधान थे

इस हेतु जो बुद्धि स्थिर नहीं उसे काट देनी चाहिए

बुद्धि को तिन गुणों ने दूषित किया है

इस हेतु त्रिशूल से यानि ये तिन गुणों को शमन करने वाला शस्त्र

वहा हाथी जिसे पृथ्वी पर सबसे ज्ञानी और शांत प्रकृति का प्राणी है उसका मस्तक लगाया

जिसे ज्ञान और शक्ति एक हुए

थोडा गहन अभ्यास ज़रूरी है

पार्वती ने अपने मेल से एक पुतले की रचना की

पार्वती वो शक्ति है प्रकृति है

मेल वो और कोई नहीं प्रकृति तिन गुण है

अब शिव और शक्ति दोनों का समन्वय हो तो ही वो

कार्य में आ सकता है बिना तत्व शुद्ध किये प्रकृति

शक्ति का वहन ठीक से नहीं कर पायेगी वो दिशा विहीन रहेगी

जैसे ट्रांसफ़ॉर्मर से आती बिजली को अगर बिच में जम्पर या अवरोधक न मिले तो वो शक्ति व्यर्थ हो जाएगी

प्रकृति ने अपने मेल से एक प्रोग्राम का निर्माण तो किया किन्तु वायरस और zip फाइल ज्यादा थी जिसकी वजह से आगे जाके प्रोगाम संतुलित न रह्ता और वो विनाश और भय का कारण बनता

अब कहानी यह आई की वो शक्ति किसी के ताबे नहीं हुई

क्यूंकि शक्ति का एक दुरूपयोग यही है प्रदर्शन करना चाहे फिर सामने कोई भी क्यों न हो

हमने यह सुना है और पढ़ा है की शक्ति के पुत्र ने न विष्णु को छोड़ा न ब्रह्मा को न देवता को

इस पराक्रम से यह पता चला की शक्ति का सिर्फ एक ही दिशा में वहन होना भयानक हो सकता है

अब शिव यानि स्थिरता

जब तक इसमें स्थिरता न आती तो वो शिवांश कैसे कहलाते वो सिर्फ गौरी पुत्र ही रेहते

शिव जिसे आध्यात्म में शुद्ध चैतन्य कहते है

उसके स्पर्श से तिन अशुद्धि का समन होता है

जिसे त्रिशूल से वो तिन गुणों को काटा

यानि मस्तक काटा वहा शक्ति की जगह वहा ज्ञान

जिसकी उपमा हाथी से दी गयी है हाथी इसी लिए की वो सब से स्थिर शांत और ज्ञानी प्राणी है

जहा शरीर शक्ति का और बुद्धि शिव की हुई तो यह शिव शक्ति का मेलाप हुआ

जीवन में हमे शक्ति भी चाहिए और ज्ञान भी

इस हेतु यह विनायक की रचना की गयी

जीवन में दोनों साधना में पूर्ण होना है

जिसे नाद और बिन्द भी केहते है

गणपति तंत्र में आकार का प्राधान्य नाड़ी तंत्र के उपर है

प्राणायाम

प्राणों को गहराई से लेना है जहा मूलाधार चक्र है

मस्तिष्क के अग्र भाग से प्राण चेतना को सुशुप्त कुंडलिनी उर्जा तक ले जाना है

उसमे बुद्धि का प्रयोजन अनिवार्य है

यह तक अथर्व का वहन शुद्धि बिना हुआ तो शरीर पर भारी मार पड़ेगा वो उत्थान की जगह पतन का कारण होता है

इसी लिए प्रथम द्वार पर गणेश को बिठाया है की विनय पूर्वक अपने काया में धर्म को समजे

अपने प्राणों के माध्यम से अपनी चेतना को मूलाधार से वापस सहस्त्र चक्र की और ले जाए

इसमें गणपति के तिन 3 चित्र या स्वरूप है जिसमे एक और दाई सूंड जिससे सूर्य स्वर भेदिका

सूर्य मार्ग से जाकर ज्ञान एवम बुद्धि मी तेजस्विता प्राप्त करना

और चन्द्र मार्ग से माया और सिद्धियों का मार्ग

तीसरा मार्ग प्राणों को उर्ध्वरेता कर सीधा ब्रह्म में लीन हो जाना

तीसरा मार्ग गुरुग्म्य है बिना गुरु आदेश एवं अथर्व की कृपा से खुलता है

गणपति का बिज है गं

गं का प्राधान्य विशुद्ध से अनाहत और अनाहत से मस्तिस्क की और जाता है

ग कारो पूर्व रूपं यह विशुद्ध बिज हुआ

अ कारो मध्यम रूपम यह अनाहत बिज है

अनुस्वार बिंदु रुतर रूपम

म और न बिंदु प्राधान्य है जिसका तार आज्ञा चक्र और सहस्त्रार से है

यह बिज को अथर्व शक्ति से सहिता संधि करनी है

फिर वो चेतना में लीं हो जाना वही से गणपति के तत्व स्वरूप की और बढ़ा जाता है

यह बिज शक्ति और शिव का मिलन है

यहा शरीर रूप प्रकृति का

एवम आत्मा रूपी पुरुष का त्याग करके ब्रह्म की और प्रयाण करना है

जिसे परम आत्म तत्व कहते है

एवं ध्यायति यो नित्यं संयोगी योगी ना वर

योगी जन वही तत्व रूप परमात्मा का ध्यान करते है जो प्रकृति और पुरुष से परे है

जो सूद्ध चैतन्य व्यापक निशब्द निर्गुण सत्ता है

वो ही हमारा अंतिम मुकाम है

अष्टांग योग से मन और शरीर को सिद्ध और विवेकी करो फिर प्राणों के माध्यम से भीतर की चेतना स्थिर करो

फिर वो ही चेतना से प्रकृति से जुड़ जाओ प्रकृति आधीन होना शुरू हो जाएगी

साधना में विघ्न ज़रूर आयेंगे

कभी मन से कभी दुनिया से

साथ में पाश और अंकुश रखना कहा गति पर अंकुश रखना है और कहा बुद्धि को लगाम देनी है वो भी सीखना है

अवलोकन इस समष्टि को मात्र एक रंगमंच समजना

और उसको अपनी स्थिर बुद्धि से अवलोकन करना वो ही गणेश की महाकाय सिखाती है

बिना गणेश तत्व को साधे कोई भी साधना फलीभूत नहीं होती उसका प्रयोजन यही बुद्धि पर जित प्राप्त करना विवेक पर जित प्राप्त करना

विवेक वो प्रथम चरण है

उपनिषद और उसका शीर्ष जिसे अथर्व शीर्ष

अथर्व वो ब्रह्म की प्राण चैतन्य और सम्यक शक्ति है

जो ब्रह्म को अनेक कला में व्याप्त करती है उसका विज्ञानं वो अथर्व विज्ञानं है

हर एक देवता का अथर्व अलग है किन्तु सब देवता

में मूल शक्ति एक ही रहेगी

जिसे सर्व व्याप्त ब्रह्म केहते है

वो ही ब्रह्म को पाने से मुक्ति का मार्ग खुलता है

मंगलं भगवान ढुंढी मंगलं मूषकध्वजः।

मंगलं पार्वती तनयः मंगलाय तनो गणः।।

गणेशवंदना साथे जय अंबे जय गुरुदेव।

Devimaana Ashtaanga

During shristhi space comes out of time.Technically time gets defined as interval between two events in space.Before creation when space has not emerged out,parachit exists as Aadhya,the original, Maha Kali.During the creation,this parachit takes form of Shri Lalitha,hence all digits of time are called Kala nithya.

Devi herself pervades everything as kalanitya and these form her organs. Any puja,parayan or japa is incomplete without the use of sankalp. The Ashtang needs to be used in respect of desha as well as kala for the desired sankalp to be complete.The desha panchang is based on the constellations and calculated out as .tithi, nakshatra,yoga,karana, vara.

The importance of matrukas is emphasised hence the necessity of learning the matrukas are of utmost importance.Devi Lalitha is called matruka rupini and throught the parayan of the ashtaanga, matrukas are emphasised.

Out of Shri Lalithas vimarsh came the 36 tathwas.Hence the only way to realise and experience her is through Guru.

The Devi mana Ashtanga is used by Srividyopasakas .The source for this system is found in the, Shaktiyamala, Paramananda Tantra, Kaulikarnava, Tantraraja, Srigarbha Kularnava, Nathakrama patala of Badabanala, Tripurasundari Tantra and works such as Saubhaya Tantra, Saubhagya Chintamani, Dattareya Samhita, Saubhagyodaya, Nitya Kalpa, Nathodaya, Kala Nitya Nirnaya, Durvasa Kalpa etc. The knowledge of Ashtanga is considered very auspicious and important for all Srividya Upasaka as it has various applications. The Devimaan Ashtanga is structured as:

Ghatika: 60 ghatikas each being 24minutes long.

Vasaram: 9 days make a week, each of the nine days have a nath named after it.

Divasa: 4*9 divas is 36 corresponding to the 36 tatthwas as per traipur siddhant.

Din nitya: each day of the month will have 15 nitya,starting from Kameshwari in ascending and descending order not to be confused with tithi nitya.

Maasa: 16 months designated with a Chandra kala or a nitya name.

Varsha: 16 Chandra kala/months make one year

Parivrutthi: 36 tattwa varsha makes one parrivrutthi

Yuga: 36 Parivrutthis make one Yuga.

This is a shakta based calendar and should be learnt from a competent guru.The parayan for purnadikshits are further advised to do further parayan of this ashtangam like,nath parayan,ghatika parayan,tattwa parayan,nama parayan,mantra parayan,chakra parayan etc.

Shri Gurubhyo Namah

Rakesh Vyas (London)